वर्तमान में लोकसाहित्य की प्रासंगिकता

By: डा. मीनाक्षी दत्ता Nov 1st, 2020 12:04 am

डा. मीनाक्षी दत्ता, मो.-9459416333

साहित्य का समय से घनिष्ठ संबंध है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। साहित्य का अर्थ हितकर होना है। जिस भी कथन में हित की भावना होती है, वह साहित्य ही है। यदि हम भारतीय साहित्य परंपरा की बात करें तो हमें कालजयी साहित्य के रूप में वही साहित्य जीवंत मिलता है जिसमें युगीन यथार्थ को हितकर संवेदना से रचने के प्रयास हुए हैं। वे रचनाएं तब भी प्रासंगिक थीं और आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं।

लोकसाहित्य तो लोक का साहित्य है। समूचे लोक का उस पर समान अधिकार है। उसका कोई कॉपीराइट नहीं होता। वह तो लोकमानस की उर्वरा भूमि में उगता, लोक कंठ में पोंगराता, अनंत होंठों पर तैरता निरंतर पसारता रहता है। इसका क्षेत्र असीम और विषय अथाह है। इतिहास अतीत का साक्षी बनाया जाता है जो शासक, राजा या शासन तंत्र की मंशा के अनुरूप होता है, समय-समय पर बदलता रहता है। इसका पुनर्लेखन होता रहता है जबकि साहित्य की पुनर्व्याख्या होती है। लोकसाहित्य जमीनी अनुभवों पर रचा जाता है और उसी धरातल पर उसका विकास और विस्तार होता है। लोक शब्द का अर्थ और परिभाषा अत्यंत व्यापक है। लोक तो हर काल में व्याप्त रहा है। हर कालखंड के इतिहास का साक्षी व समदर्शी रहा है। लोक साहित्य की हर विधा में इतिहास बोध होता है। इस दृष्टि से लोकगाथाओं की समृद्ध परंपरा गवाह है। हिमाचल प्रदेश के सभी अंचलों में इनकी वाचिक परंपरा को विरसा गायक निरंतर बनाए हैं। इनके ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक अनेक रूप हैं। ये लोकगाथाएं प्रदेश के इतिहास पुनर्लेखन में सहायक हो सकती हैं। इस प्रदेश में लोक कथाओं की अथाह और समृद्ध परंपरा है जो इतिहास, संस्कृति तथा सामाजिक जीवन को सरस, रोचक विस्तार देती, शिक्षाप्रद होकर उपदेशक भी रही हैं। इनमें पौराणिक कथाओं के अनुरूप लोक ने स्थानक विश्वासों, धारणाओं के अनेक प्रसंगों का समावेश किया है जो रोचकता और आश्चर्य को बढ़ाता है।

लोकसाहित्य के अंतर्गत कहावतें, मुहावरे, प्रहेलिकाएं, सूक्तियां हर युग में प्रासंगिक रही हैं, आज भी हैं। लोकसाहित्य की प्रासंगिकता बताने के लिए एक ऐतिहासिक महत्त्व का प्रसंग जोड़ना सार्थक होगा। लोकसाहित्य के अध्येयता जानते हैं कि भारत में लोकसाहित्य के संग्रह, संरक्षण व प्रकाशन का आरंभ ब्रिटिश शासन काल में शुरू हुआ था। उस अधिकारी का मानना था कि यदि भारत में हुकूमत जमानी है तो यहां की लोक-संस्कृति, भाषा, रीति-रिवाजों को जानना जरूरी है। इसी मंशा से कर्नल टाड ने भारत की फोकलोर संपदा के संग्रह व संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया था।

लोकसाहित्य की एक विधा लोक नाट्य है। हिमाचल प्रदेश के हर अंचल में इस विधा की परंपरा करियाला, बांठड़ा, भगत, हरण, हरणातर, बूचेन, होरिंगफो बांडे, बौरा आदि रूपों में परंपरित है। उनके स्वांग, नकलें, नाटक समकालीन समस्याओं व विसंगतियों को लेकर प्रदर्शित होते हैं जिससे लोकसाहित्य की इस विधा का प्रासंगिक होना स्वयंसिद्ध होता है। फोक मीडिया एक सशक्त विधा है लोकसाहित्य की। आज सभी प्रकार की समस्याओं से निपटने के लिए इसी विधा का प्रयोग हो रहा है। मंडी के बांठड़ा लोकनाट्य को स्टेट प्रेस की संज्ञा दी जाती है। यह परंपरा सर्वत्र वर्ग विशेष द्वारा घरानों या डेरेदारी की परंपरा से पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रही। डेरेदार और मनसुखा या मसखरा, आशु संवाद, सोचने-रचने की दैवी क्षमता रखते जो पौराणिक-ऐतिहासिक कथाओं को भी प्रासंगिक बना देते।

लोक कलाएं भी लोकसाहित्य का ही अभिन्न अंग हैं। इनकी ज्यामितिक रचना, उनमें निहित भाव हर काल में प्रासंगिक हैं। इनका सहज सौंदर्य बोध किसे प्रभावित नहीं करता। आवश्यकता है इसे पहचान देने की। फिल्म जगत ने लोकगायन के परंपरित होने के महत्त्व को पहचाना, लोक संगीत को सिनेमा संगीत से जोड़ा और उसके पापुलर होने पर इसकी प्रासंगिकता को जाना। अंत में मैं इतना ही कहना चाहूंगी कि लोकसाहित्य सनातन है और हर युग में प्रासंगिक है। इसकी प्रासंगिकता संदेह से परे है।

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