वेद पाठ करना

By: स्वामी विवेकानंद Nov 28th, 2020 12:20 am

गतांक से आगे…

शास्त्र का यह कथन ठीक अवश्य है किंतु केवल वेद नाम के गं्रथ ही वह ज्ञान समष्टि है, यह कहना मन को धोखा देना मात्र है। मनु एक स्थान पर कहते हैं वेद का जो अंश युक्तिसंगत है, वही वेद है और शेष अंश वेद नहीं है। हमारे बहुत से दार्शनिकों का भी यही मत है। हमारे दर्शन में त्याग का विशेष महत्त्व है। सचमुच में त्याग बिना हमारे दर्शन प्रतिपादित लक्ष्य को पाना असंभव है, क्योंकि त्याग का अर्थ ही है यथार्थ सत्य अर्थात आत्मा को प्रकाशित करने में सहायता करना। वह इंद्रियों द्वारा उपलब्ध जगत का ज्ञान प्राप्त करना चाहता है, उसका जगत का यथार्थ एक रूप क्या है उसे जानना चाहता है। जगत में जितने शास्त्र हैं, उसमें  केवल वेद ही यह कहता है कि वेद पाठ करना भी अपरा विद्या के अंतर्गत है। परा विद्या वह है, जिसके द्वारा अक्षर पुरुष को जाना जाए और यह पढ़ने से नहीं जाना जा सकता, विश्वास करने से भी नहीं जाना जा सकता, तर्क करने से भी नहीं जाना जा सकता। समाधि अवस्था प्राप्त करने पर ही उस परम पुरुष को जाना जा सकता है। ज्ञान प्राप्त होने पर फिर सांप्रदायिकता नहीं रह जाती। इसका अर्थ यह नहीं कि ज्ञानी किसी संप्रदाय से घृणा करते हैं। नहीं वे सभी संप्रदायों के अतीत ब्रह्य को जानकर सभी संप्रदायों से परे की अवस्था में पहुंच जाते हैं और सर्वदा उसी में प्रतिष्ठित रहते हैं।

वे सभी संप्रदायों को नष्ट-भ्रष्ट करके मिलाने की चेष्टा नहीं करते, किंतु सभी संप्रदाय उन्नति कर सकें इसमें वे सहायता करते हैं। सब नदियां जैसे समुद्र में जाकर गिरती हैं और एक हो जाती हैं, उसी तरह सब संप्रदाय, सब मतों में ही ज्ञान प्राप्ति होती है। ज्ञान प्राप्त होने पर फिर कोई मतभेद नहीं रह जाता। भक्ति लाभ कैसे हो? भक्ति तो तुम्हारे भीतर ही है। केवल उसके ऊपर काम कंचन का एक आवरण पड़ा हुआ है, उसके दूर होते ही भक्ति स्वयमेव प्रकाशित हो उठेगी। वेदांत मनुष्य की विचार शक्ति का यथेष्ट आदर करता है अवश्य है किंतु साथ ही साथ यह भी कहता है कि युक्ति विचार से भी बड़ी कोई वस्तु है। युक्ति विचार की सहायता से युक्ति विचार की सीमाओं से बाहर जाना होगा और उस वस्तु को प्राप्त करना होगा। धर्म और कल्पना  एक वस्तु नहीं है। एक प्रत्यक्ष वस्तु है। जिसने भूत को भी देखा लिया है, वह अनेक पुस्तक पढ़ने वाले पंडितों की अपेक्षा श्रेष्ठ है। ज्ञान, भक्ति, योग और कर्म इन चारों मार्गों से मुक्ति लाभ होता है। जो जिस मार्ग के उपयुक्त हो, उसे उसी मार्ग से जाना होगा, किंतु वर्तमान काल में कर्म योग के ऊपर कुछ अधिक जोर देना होगा।

 जहां वास्तविक धर्म का राज्य है, वहां पढ़ाई-लिखाई को प्रवेश करने का कोई अधिकार नहीं। एक समय स्वामी जी किसी व्यक्ति की खूब प्रसंशा कर रहे थे। इस पर उनके समीपवर्ती एक व्यक्ति ने कहा, किंतु वह तो आपको नहीं मानता है। यह सुनकर स्वामी जी बोल उठे, मुझे मानना ही पड़ेगा, ऐसी क्या कोई शर्त है? वह अच्छे काम कर रहा है, इसलिए प्रशंसा का पात्र है। यह सच है कि कट्टरपन से धर्म प्रचार अति शीघ्र होता है, किंतु सभी को अपने-अपने मत में स्वतंत्रता देकर एक उच्च पथ पर पहुंचाने से पक्का धर्म प्रचार होता है, भले ही इसमें कुछ देरी लगे।


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