वर्तमान परिप्रेक्ष्य में  लोकसाहित्य ही प्रासंगिकता

By: डा. हेमराज कौशिक Nov 22nd, 2020 12:06 am

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस नई शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी सातवीं किस्त…

डा. हेमराज कौशिक

मो.-9418010646

लोकसाहित्य सदैव समाज से संपृक्त रहा है। भारतीय समाज में लोक संस्कृति का दर्पण लोकसाहित्य में निहित है। भारतीय संस्कृति के उच्चतर जीवन मूल्यों की अभिव्यंजना लोकसाहित्य की विविध विधाओं में हुई है। आज के विज्ञान और तकनीकी युग में लोकसाहित्य की महत्ता अक्षुण्ण है। वस्तुतः लोकसाहित्य का स्वरूप गत्यात्मक है, इसमें निहित परंपराएं काल प्रवाह में तिरोहित नहीं होती, अपितु नए परिवेश में युगानुरूप नवीन और परिष्कृत होकर आविर्भूत होती हैं। काल विशेष में रचित साहित्य समय की गति के साथ कालातीत और देशातीत होकर सार्वजनिक हो जाता है। लोक में व्याप्त आख्यान, गाथाएं, वार्ताएं, लोकनाट्य आदि  लोक समाज की धरोहर हैं। वाचिक परंपरा से रचा यह साहित्य पीढ़ी दर पीढ़ी श्रुत परंपरा से अग्रसर हुआ है। हिमाचल प्रदेश के प्रत्येक जनपद के लोकसाहित्य की विविध विधाओं और कलाओं की निजी परंपरा रही है। लोकवाणी की यह सरिता सुदीर्घ काल से सतत प्रवाहित है और उसका सातत्य बना रहना चाहिए ताकि लोकसाहित्य और लोक संस्कृति के तत्त्व सुदृढ़ बने रहें। आंचलिक बोलियां भी लोक संस्कृति और लोकसाहित्य की अजस्र  धारा में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती रही हैं। इसलिए जनपदीय बोलियों के संरक्षण के लिए प्रभावी कदम उठाए जाने चाहिए।

लोकसाहित्य  इतिहास लेखन के लिए विपुल सामग्री का स्रोत है। आवश्यकता इस बात की है कि इस सामग्री के विश्लेषण के लिए सम्यक अध्ययन और अनुसंधान अपेक्षित है। इतिहासकारों की दृष्टि प्रमुख रूप में शासकों और उनके प्रशासनिक कार्य-कलापों  और अर्थव्यवस्था तक केंद्रित रहती है जिनमें अधिकतर अभिजात्य समाज की घटनाओं के विवरण होते हैं, जबकि लोकसाहित्य के अंतर्गत लोकगीतों, लोक गाथाओं,  लोकनाट्य, लोकवार्ता, लोक कहावतों और मुहावरों में अनेक संदर्भ सामान्य जन की पीड़ा,  अंतर्द्वंद्व, जीवन शैली एवं श्रमशीलता, सामाजिक विषमता,  जातिभेद,  लिंगभेद उत्पन्न से पीड़ा और प्रतिरोध सब कुछ मुखरित होता है। हिमाचली लोकसाहित्य के अंतर्गत ऐसी बहुत सी ऐतिहासिक लोक गाथाएं, लोकनाट्य और लोकगीत विद्यमान हैं जिनका ऐतिहासिक दृष्टि से विशिष्ट महत्त्व है। इन विधाओं के अनुशीलन से सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के विविध पक्षों का बोध होता है। सामाजिक परंपराओं, मान्यताओं, आस्थाओं, विश्वासों और संस्कारों की समृद्ध विरासत की भी बहुत सी जानकारी मिलती है।

लोकसाहित्य की प्रकृति  सतत प्रवाहमान है। इसमें मनुष्य के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का प्रतिबिंब है। लोकमानस की भावनाओं, विचारों, आकांक्षाओं, अनुभूतियों, अभिरुचियों के साथ सामाजिक विडंबनाओं की अभिव्यंजना भी लोकसाहित्य में होती है। लोकसाहित्य की प्रासंगिकता सदैव बनी रही है। लोकसाहित्य का ऐतिहासिक,  सामाजिक और सांस्कृतिक महत्त्व है। किसी भी देश या समाज के प्राचीन स्वरूप के सूत्र लोकसाहित्य में विद्यमान रहते हैं। लोकसाहित्य की विधाओं में किसी भी समाज के जनजीवन के इतिहास को जानने के सूत्र विद्यमान रहते हैं। इनका अध्ययन और विश्लेषण करने से इतिहास की घटनाओं के सूत्रों और कडि़यों की तलाश की जा सकती है क्योंकि इनमें अनेक ऐतिहासिक वृत्तों के विवरण सन्निहित होते हैं जिनसे किसी कालावधि का सांस्कृतिक इतिहास लिखा जा सकता है। वर्तमान परिवेश का अवलोकन करें तो लोक तीव्र गति से वैश्विक हो रहा है और परिणामस्वरूप वह स्थानीयता से  कटता जा रहा है। लोक की अमूल्य धरोहर लोक साहित्य,  लोक गीत,  लोक नृत्य, लोक गाथाएं, लोकनाट्य आदि में जीवन मूल्यों की  अटूट धारा है। लोक समाज वैश्वीकरण, उदारीकरण और बाजारवाद की  गिरफ्त में  आवेष्टित हो रहा है। भौतिक विकास से घोर वैयक्तिकता  और निजी स्वार्थों की अंधी दौड़ में लोक समाज अपनी क्षुद्रताओं में महानता के स्वप्न देख रहा है।

 वर्तमान समाज परंपराओं से अर्जित स्वच्छ, जीवंत व सुसंस्कारित करने वाले जीवन मूल्यों से विमुख हो रहा है और परंपराओं को स्वेच्छा से परिवर्तित कर रहा है। वर्तमान समाज में सांस्कृतिक विच्छिन्नता और लोक संस्कृति के प्रति उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण चिंताजनक है। लोक कवियों और लोक कथाकारों की दृष्टि जनतांत्रिक और जनोन्मुखी रही है। इसकी पक्षधरता सामान्य जन, शोषित-उत्पीडि़त वर्ग के प्रति रही है, जिसे हम लोक की संज्ञा से अभिहित करते हैं। वह कोई जड़ विचार, विचारहीन जन समुदाय नहीं है, अपितु आदिम परंपराओं से संपृक्त गतिशील सामान्य जन का समूह है। लोकसाहित्य की यह स्वाभाविक प्रकृति है। वह शास्त्रीय बातों को भी अनुभव की कसौटी पर उतारकर लोक के अनुरूप ढाल कर सामान्य जन के लिए बोधगम्य बनाता है। यही कारण है कि बहुत सी कथाएं और गीत वाचन और श्रुत परंपरा से हस्तांतरित होकर आज भी समसामयिक स्थितियों में प्रासंगिक, प्रयोजनयी और लोक रंजक हैं।

विमर्श के बिंदु

अतिथि संपादक : डा. गौतम शर्मा व्यथित

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -7

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

गदियाली लोकसाहित्य में ऐंचलीगायन का महत्त्व

प्रताप जरयाल

मो.-9817768661

साहित्य समाज का दर्पण होता है। समाज में आज जो कुछ भी घटित हो रहा है, उसी बात का चित्रण हमें आज के साहित्य में देखने को मिलता है। समाज की हर अच्छी और बुरी घटना साहित्य के माध्यम से आमजन तक पहुंच जाती है। साहित्य का दायरा सीमित नहीं है। इसे किसी दायरे विशेष में बांधकर रख पाना कठिन है, बल्कि आज के नेटवर्क क्रांति के इस युग में तो इसे सीमाओं में बांधकर रख पाना संभव ही नहीं है। किसी भी क्षेत्र या समुदाय से संबंधित साहित्यकार द्वारा लिखित साहित्य उसी के नाम से ही जाना जाता है, लेकिन कालांतर में वही साहित्य जहां आमजन के दिलों की आवाज बन जाता है तथा वक्त के साथ-साथ उसे रचने वाले का नाम लुप्त हो जाता है, वही लोकसाहित्य है। उस पर किसी का दावा नहीं रह जाता। हर कोई उसे अपने हिसाब से उपयोग में लाना चाहता है।

ऐसा साहित्य गद्य और पद्य किसी भी विधा में हो सकता है, मसलन किस्से-कहानियां, कविता, गीत, लोकोक्तियां, मुहावरे, श्लोक, कहावतें और शेअर आदि। लोग बातों-बातों में इन्हें उदाहरण के रूप में या फिर अपने अंदाज में पेश करने का प्रयास करते हैं, यही लोकसाहित्य है। इसे रचने वाले का नाम किसी को मालूम नहीं होता, लेकिन उसे सुनकर उस रचना में शब्दों या फिर छंदों की जादूगरी के मुरीद हुए बिना नहीं रहा जा सकता। लोकसाहित्य हर समुदाय, हर भाषा व संस्कृति में अलग-अलग रूपों में देखने को मिलता है। गदियाली भाषा में भी लोकसाहित्य का बहुत समृद्ध एवं विस्तृत क्षेत्र है। वैसे तो गदियाली बोली एक जनजाति क्षेत्र में बोली जाने वाली बोली है, लेकिन अपने समृद्ध लोकसाहित्य एवं लोक परंपराओं के बलबूते अपने सीमित दायरे से निकलकर हिमाचल के लगभग 50 फीसदी भूभाग पर पसंद की जाने वाली लोक संस्कृति बन कर उभरी है। गदियाली बोली में यूं तो लिखित में साहित्य नाममात्र को ही मिलता है, लेकिन यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ज्यों का त्यों पहुंचाया जाता रहा है। हजारों की संख्या में गीत-गाने लोक धुनों में बड़े चाव से गाए व सुने जाते रहे हैं।

एक ही लोकगीत को दर्जनों गायकों द्वारा अपने-अपने अंदाज में गाया जा रहा है, जबकि लोगों द्वारा उसे हर बार सराहा गया है, यही लोकगीतों की खूबसूरती है। कुंजू चंचलो, सुन्नी भूंखू, फुलमु रांझू, रूपणू पुहाल तथा वसोआ आदि असंख्य लोकगीतों का नाम गिनाया जा सकता है जो सदियों के बाद भी लोगों को आकर्षित करने में कामयाब रहे हैं। इसी तरह गदियाली लोकसाहित्य में ऐंचलीगायन का बहुत बड़ा महत्त्व है। या फिर यूं कहें कि ऐंचलीगायन गदियाली लोकसाहित्य का सबसे महत्त्वपूर्ण लोक गायन है। इसका कोई एक विषय विशेष नहीं है। इसके माध्यम से लोक गायकों द्वारा शिव लीला, कृष्ण लीला, रामायण, महाभारत, ऋषि-मुनियों के प्रसंग तथा राजा-महाराजाओं के अनेक प्रसंगों को भी बड़ी खूबसूरती के साथ प्रस्तुत किया जाता है। नुआला तथा मुसादा गायन की सभी ऐंचलियां गदियाली लोकसाहित्य व लोक संगीत की बहुमूल्य रचनाएं हैं। रामायण एवं  महाभारत की सभी पौराणिक कहानियां तो हर भाषा में हमें लिखित रूप में मिल जाया करती हैं या फिर दूरदर्शन के माध्यम से देखने को मिल जाया करती हैं, लेकिन लोकसाहित्य एवं लोक संगीत में जो प्रसंग हम सुन पाते हैं, वे किसी भी किताब व धारावाहिक में पढ़ने व देखने को नहीं मिल सकते।

इन पौराणिक कथाओं में कुछ घटनाएं इस तरह सुनने को मिल जाती हैं जिन्हें सुनकर ऐसा लगता है कि यह सही में इन कथाओं का ही हिस्सा हैं। यही लोकसाहित्य की खूबसूरती है। उदाहरण के तौर पर राम वनवास के दौरान पंचवटी में जो पर्णकुटी बनाई गई थी, उसे गदियाली लोक संगीत के ऐंचलीगायन में महल बनाने के रूप में इतनी खूबसूरती के साथ दर्शाया गया है कि सुनकर दिल बाग-बाग हो उठता है। इस प्रसंग की कुछ पंक्तियां देखते हैं, जैसे… ‘वणखंडा महल पुआऐ, सिया रहने रै ताऐं। है फिरन्दै रक्खै दरुआजै, रामै महल लाए पाणा। फिरन्दै रक्खै वो झरोखे, सिया हेरनै रै ताऐं। बणा खेरा चनण कटाया, रामै महल लाए पाणा।’ इसी प्रसंग में आगे राम हिरण के शिकार पर जाते हैं तो सीता द्वारा श्री राम से वन में अकेले न छोड़ने की बात कही जाती है। इस पर श्रीराम द्वारा जंगल के सभी पेड़-पौधों व पक्षियों के साथ होने की बात कही जाती है। इस पर सीता द्वारा श्री राम की सलामती की चिंता जताई गई तथा ऐसी कोई प्रमाण स्वरूप वस्तु छोड़कर जाने की बात की जो उनकी सलामती का एहसास करवा सके। इस पर भगवान राम द्वारा दूध से भरी एक कटोरी में मरुए की ताजा टहनी रोपते हुए यह कहा गया कि अगर मेरे आने से पहले मरुए की यह ताजा टहनी कुम्हला  जाए या दूध की भरी कटोरी में रक्त के छींटे पड़ जाएं तो तुम यह समझ लेना कि मैं सलामत नहीं हूं।

इस प्रसंग की अंतिम लाइने यूं हैं … ‘दुधै भरी रखिया कटोरी, ऊपर मरुऐ री डाली। मरुआ जाला कुम्लाई, बुझैं राम मारिया वो, दुधै पैली रगता री धारा, बुझैं राम ना रिया वो।’ सर्वप्रथम इन अंतिम पंक्तियों में छंद की खूबसूरती की बात की जाए तो इन दोनों पंक्तियों के अंतिम शब्द क्रमशः राम मारिया वो तथा राम ना रिया वो की तुकबंदी के साथ-साथ ही मात्राओं की संख्या भी एकदम बराबर है। आज हम इतने छंद शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद भी इस तरह की रचना कर पाने में कई गलतियां कर जाते हैं, उस पर सदियों पहले के अशिक्षित लोगों द्वारा इस प्रकार की शब्द रचना करना सिर्फ  और सिर्फ  ईश्वरीय इच्छा के सिवा कुछ नहीं हो सकता। इसी तरह रामायण में एक श्रवण कुमार का प्रसंग आता है, उसमें श्रवण कुमार को राजा दशरथ का भानजा बताया गया है तथा श्रवण की हत्या से उन्हें भानजे की हत्या का पाप लग जाता है जिससे वह कई यत्नों के बाद मुक्त हो पाए। इसी प्रकार शिव लीला में भी पर्वतराज हिमालय व देवी मैना की बेटी पार्वती द्वारा संन्यासी वेशधारी भोलेनाथ के साथ माता-पिता द्वारा उनका रिश्ता तय किए जाने से नाराजगी व्यक्त करते हुए इसका जोरदार विरोध किया गया। जब बात न बनी तो उसने अपने मामा से इस शादी में दहेज के रूप में इतनी हिमवृष्टि की मांग की कि सारा संसार हिमवृष्टि से दब जाए तथा भोलेनाथ उन्हें ब्याहने नहीं आ पाएं।

यह बेहतरीन प्रसंग शिव लीला के शिव विवाह प्रसंग में सुनने को मिलता है। इसी तरह और भी कई अद्भुत प्रसंग हैं जो हमें कहीं और सुनने को नहीं मिलते। उन्हें गदियाली लोकसाहित्य के ऐंचलीगायन में सुना जा सकता है। आज के दौर में ऐंचलीगायन का प्रचार-प्रसार इस हद तक बढ़ गया है कि लोकगायकों द्वारा इन्हें अब नाटी  के रूप में पेश करके वाहवाही बटोरी जा रही है। आज नुआला व मुसादा गायन अपनी चरम सीमा पर हैं। आज अनेकों लोकगायक ऐंचलीगायन को बढ़ावा देने में अपनी अहम भूमिका अदा कर रहे हैं। सुनील राणा, निशांत भारद्वाज, शुभकरण, ओम चंद, इंद्र कपूर, कमल नेहरिया, मदन सिप्पी, राजूराम तथा मुसादा गायन में कश्मीरी लाल जैसे लोकगायकों का नाम इसके लिए विशेष रूप से लिया जा सकता है। इसके अलावा और भी कई ऐसे तथ्य गदियाली लोकसाहित्य व लोक गायन में सामने आते हैं जिससे यह बात सामने उभर कर आती है कि गदियाली लोकसाहित्य में ऐंचलीगायन का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

श्रद्धांजलि : लाहुली संस्कृति के पैरोकार थे छेरिंग दोरजे

भोटी भाषा के ज्ञाता और अटल टनल बनाने को लेकर पूर्व और वर्तमान प्रधानमंत्री तक अपनी बात रखने वाले जनजातीय जिला लाहुल-स्पीति के साहित्यकार छेरिंग दोरजे उर्फ गुरु जी के नाम से पुकारे जाने वाली शख्सियत भले ही आज अपनों के बीच नहीं है, लेकिन किस तरह से साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने अपनी एक पहचान बनाई, यह जरूर साहित्यजगत में देखने को मिलता है। यही बात हमेशा साहित्य जगत में उन्हें कहीं न कहीं जीवित रखेगी। उन्होंने दुनिया को भले ही अलविदा कहा हो, लेकिन उनसे सीखने वाले साहित्य जगत से जुड़े साहित्यकारों की मानें तो वह एक बेहतर इतिहासकार व भोटी भाषा के ज्ञाता और हिमालय-तिब्बत और मध्य एशिया की संस्कृति और इतिहास की गहरी समझ रखने वाले जनजातीय जिला लाहुल-स्पीति की गाहर वैली के गुसख्यार गांव से संबंध रखने वाले थे। छेरिंग दोरजे वह शख्सियत थे, जिन्हें उनके साहित्यिक कार्यों के लिए हमेशा याद रखा जाएगा। उन्होंने हिमालय के लगभग 200 दर्रों को पैदल पार किया और हिमालय की भौगोलिक परिस्थितियों से वह पूरी तरह  परिचित थे। उन्होंने इतिहास, विविध लोक-संस्कृतियों, देव समाज की मान्यताओं, परंपराओं, विविध धर्मों व भौगोलिक परिस्थितियों के साहित्य को अपने मस्तिष्क में सहेज कर रखा था। अखिल भारतीय इतिहास संकलन समिति के प्रदेश उपाध्यक्ष रहे दोरजे वर्तमान समय में संकलन समिति के मार्गदर्शक भी थे। छेरिंग दोरजे रशिया के विख्यात कलाकार निकोलस रौरिक के बेटे जॉर्ज रौरिक के खास मित्रों में एक थे।

इसके चलते निकोलस के ग्रीष्मकालीन निवास स्थान लाहुल-स्पीति में भी रौरिक आर्ट गैलरी का निर्माण किया गया था, जिसका उन्होंने कुछ वर्ष पूर्व ही सरकार से आग्रह करके जीर्णोद्धार भी करवाया था। उनकी यही इच्छा थी कि वहां पर जो भी रूसी भाषा में किताबें और साहित्य हैं, उनका हिंदी और अंग्रेजी में अनुवाद भी हो ताकि युवा पीढ़ी भी उन किताबों को पढ़ सके। छेरिंग दोरजे हिमालय की संस्कृति के आधिकारिक विद्वान थे। विदेशी छात्र हों या भारतीय छात्र, उन्हें अकसर कुछ भी पूछने के बाद जवाब मिलने पर सभी छात्र उन्हें पुस्तकालय का भंडार कहते थे। उनसे कभी भी कोई भी किसी भी इतिहास के बारे में पूछता, वह चंद सेकंड में उसका जवाब विस्तार से दे डालते। साहित्यकार और वर्तमान में साहित्य एवं कला परिषद के अध्यक्ष डा. सूरत सिंह ठाकुर की मानें तो छेरिंग दोरजे जितने विद्वान थे, उतने ही मृदुभाषी भी। उनके जाने से साहित्य जगत को काफी अधिक क्षति पहुंची है। छेरिंग दोरजे के लेख प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं में काफी अधिक छप चुके हैं।

उन्होंने करीब 50 लेख लिखे। उनके लेख अकसर भोटी भाषा व लाहुली संस्कृति को महत्त्व देते थे। उनके लेख विपाशा, हिम भारती, सोमसी जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं में अकसर छपा करते थे। लाहुल-स्पीति के पर्यटन व संस्कृति को हमेशा वह लेखों के माध्यम से उजागर किया करते थे। छेरिंग दोरजे बदलते समय के अनुसार भी लेख लिखने में माहिर थे, ताकि युवा पीढ़ी अपने लाहुली-कल्चर व भोटी भाषा को सीख सके। यही नहीं, अनेक युवाओं को उन्होंने अपने साथ जोड़ा भी। ऐसे में गुरु जी कह कर ही सभी उन्हें पुकारा करते थे। आज गुरु के जाने पर न केवल साहित्य जगत टूटा है, बल्कि लला मेमे फाउंडेशन जिला लाहुल-स्पीति से जुड़े तमाम छात्रों व लोगों का मन भी आहत हुआ है। ऐसे में उनके जाने पर कितना नुकसान साहित्य जगत को हुआ है, इसे लेकर साहित्यकार अब वर्चुअल वीडियो कान्फं्रेसिंग के माध्यम से श्रद्धांजलि देंगे।

– शालिनी रॉय भारद्वाज

पुस्तक समीक्षा : बच्चों को गुदगुदाती कविताएं

शिक्षाप्रद बाल कविताओं का संग्रह ‘चिडि़या, कहां खो गई तू?’ डा. गौतम शर्मा व्यथित का नया काव्य संग्रह है। प्रकाशक राष्ट्रीय पुस्तक माला से प्रकाशित इस संग्रह की कीमत 395 रुपए है। बाल-भावों को संप्रेषित करती डा. व्यथित की बाल कविताओं में वाचन और श्रवण प्रभाव बहुत ही सरस, सहज व प्रिय है। इस कविता संग्रह का शीर्षक भी सार्थक है। संकलन की हर कविता बालमानस को स्पर्श करती, बालमनोविज्ञान को रूपायित करती है। बाल सुबोध शैली में लिखी हर कविता मानो सामने बैठी संवाद करती है। बाल साहित्य मनोरंजन, मनोविनोद के साथ शिक्षाप्रद भी हो तो सृजन सार्थक हो जाता है। ऐसा ही इन कविताओं को पढ़कर लगता है। घर-आंगन का प्राकृतिक परिवेश भौतिक विकास के कारण निरंतर बदल रहा है। ऐसे में कहां मिलता-दिखता है आज भोर होते आंगन में चिडि़यों का चहचहाना, दाना चुगना, मुंडेर पर कौवे का आना और बोलना? बच्चे का ऐसा सोचना सार्थक है, तभी तो वह सवाल करता है कि चिडि़या, कहां खो गई तू?

बाल साहित्य की सृजन-धर्मिता का निर्वाह करते लेखक ने जो पांच दशक मध्य अपने दीर्घकालीन अध्यापन अनुभव को सांझा करते समकालीन संवेदना को भी संप्रेषित किया है, वह निश्चित ही एक नया प्रयोग और नई सोच का प्रतीक है। यहां हर कविता कुछ कहती है, शिक्षा देती है, आकर्षित करती है। बालमानस के मर्म को पहचानने के सामर्थ्य का बोध भी होता है। बच्चों, अभिभावकों और अध्यापकों के लिए विशेषकर यह संग्रह पठनीय है। इस बाल कविता संग्रह में 49 कविताएं संकलित की गई हैं। हर कविता जहां बच्चों का मनोरंजन करती है, वहीं कुछ न कुछ शिक्षा भी देती है। काव्य संग्रह की भाषा ऐसी है जो बच्चों को आसानी से समझ में आ जाएगी। हे ईश्वर वरदान हमें दो, गिनती सीखो, दौड़ी आती रेल, मैं भी पक्षी होता, पेड़ लगाओ साथी, बिल्ली आई बिल्ली आई, आओ गाय पालें, झूठ था बोला, फूल लगाओ, कहां मानते तोते, गाथा अपने देश की तथा चिडि़या कहां खो गई तू जैसी कविताएं रोचकता लिए हुए हैं जिनमें बच्चों का मन रम जाता है। कविताएं अपने आकार में छोटी हैं तथा बच्चे इनसे ऊबते नहीं हैं। आशा है कि यह बाल कविता संग्रह पाठकों को अवश्य पसंद आएगा।

-राजेंद्र ठाकुर


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