यादों में शिलान्यास

By: Nov 17th, 2020 12:06 am

पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार की यादों की तारीफ करें या इनमें झांकते राजनीतिक दर्द का एहसास करें, लेकिन हिमाचल का यथार्थ कितना भौंडा है यह स्पष्ट हो रहा है। करीब तीन दशक पूर्व पालमपुर रज्जु मार्ग का शिलान्यास याद दिलाता है कि सियासी ढकोसलों को ढोता यथार्थ कितना काल्पनिक है। हम यहां एक रज्जु मार्ग की बात नहीं कर रहे, बल्कि यह देख रहे हैं कि विकास का ऊंट हर बार अपनी करवट क्यों बदलता है। इसे हम राजनीति के परिप्रेक्ष्य में देखें या सामाजिक गणना में समझें, संकीर्णता पर सिद्ध होते नेताओं की स्वीकार्यता बढ़ रही है। हिमाचल में संपूर्ण नेतृत्व का अभाव और क्षेत्रवाद का दबाव बढ़ रहा है। इसके भौगोलिक, ऐतिहासिक, जातीय, आर्थिक और सामाजिक कारण हो सकते हैं, लेकिन सत्ता की संरचना हर बार मुख्यमंत्री पद पर बैठे नेता को अपने इर्द-गिर्द ही देखने को बाध्य कर रही है। यह नहीं कह सकते कि पालमपुर रज्जु मार्ग की केवल कांग्रेस सरकारों ने अनदेखी की। इसके लिए शांता कुमार की अपनी पार्टी व उनके द्वारा अर्जित सत्ता के लाभ भी तो दोषी हैं। विडंबना भी यही है कि हिमाचल में सरकार की निरंतरता का आभास नहीं होता और इस तरह विकास का निरादर, राजनीतिक पसंद-नापसंद का पैमाना साबित होता है। स्वयं शांता कुमार जिन परियोजनाओं का जिक्र कर रहे हैं, वे उनके गृह क्षेत्र की ही पैरवी कर रही हैं। क्या हिमाचली परिप्रेक्ष्य में पूर्ण विकास को प्रमाणित करने के लिए, सत्ता की ताकत को नेताओं के राजनीतिक क्षेत्र ही तय करेंगे। जरा गौर करें कि पिछले  दशकों में कितने पर्यटन सूचना केंद्र या सरकार की पर्यटन इकाइयां इसलिए बर्बाद हुईं, क्योंकि इनकी प्रासंगिकता साबित नहीं हुई।

 कितने नए कालेज मौजूदा दौर में ही छात्रों की संख्या के आधार पर अप्रासंगिक और गैर जरूरी साबित हो रहे हैं। क्या हिमाचल जैसे प्रदेश को तकनीकी तथा मेडिकल विश्वविद्यालयों की आवश्यकता अधिक थी या इसी तरह भविष्य में संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना होनी चाहिए। प्रश्न तो यह भी उठता रहा है कि कृषि विश्वविद्यालय के लिए पालमपुर सही स्थान है या राष्ट्रीय होटल प्रबंधन संस्थान का औचित्य हमीरपुर में सिद्ध होता है। राजनीतिक खींचातानी में हिमाचल से कितनी परियोजनाएं छिटकीं इसका एक नमूना उत्तर भारत के क्षेत्रीय शहरी प्रबंधन संस्थान की स्थापना को लेकर रहा, जहां तत्कालीन मंत्री इसे उपमंडल स्तर पर खोलने के तर्क पर गंवा बैठे। इसी तरह राजनीतिक वैमनस्य से पुलिस बटालियनें ही शिफ्ट कर दी गईं या केंद्र से स्वीकृत बजटीय प्रावधानों का गलत इस्तेमाल हुआ। पालमपुर का बस स्टैंड भी इसका एक उदाहरण है कि वर्षों बाद भी इसकी आवश्यकता व व्यापारिक क्षमता को प्र्राथमिकता नहीं मिली। धर्मशाला बस स्टैंड निर्माण के समझौते में खलल डालकर वर्तमान सरकार ने प्रथम चरण की पैंतीस करोड़ की परियोजना पर ताला लगाया या राष्ट्रीय खेल छात्रावास के स्वीकृत 26 करोड़ राशि को प्रताडि़त किया जा रहा है। हिमाचल में राजनीतिक विद्वेष अब विध्वंस तक पहुंच गया है और इसका एक बड़ा कारण समाज भी है। नेताओं के राजनीतिक प्रदर्शन को ही प्रशासनिक क्षमता में मंजूर करने की ख्वाहिश के कारण कमोबेश हर सत्ता का दोहन हो रहा है। यही वजह है कि हर बार मंत्री पद सिमट कर किसी नेता के विधानसभा क्षेत्र तक ही रह जाता है या मुख्यमंत्री पद भी राजनीतिक गठजोड़ के लिए नई प्राथमिकताएं बुनता है।

 राज्य की आर्थिक स्थिति को नजरअंदाज करती राजनीति ने आर्थिक विवेचन की जगह ही नहीं समझी, लिहाजा हिमाचली मंत्रिमंडल में स्वतंत्र वित्त मंत्री का कद सामने नहीं आया। दूसरी ओर राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा की सीढि़यों पर तीन बड़े जिलों शिमला, मंडी व कांगड़ा के ध्रुव में नेताओं का कद या तो अटक जाता है या सत्ता लाभ की दृष्टि से नए जिलों की मांग का स्वार्थ सामने आता है। कुछ इसी  तरह नगर निगमों का गठन भी शहरीकरण की जरूरतों से अलग राजनीतिक पाठशाला का विषय बन जाता है। हिमाचल को विकास के लक्ष्यों में पारदर्शिता, गुणवत्ता, जरूरतों, प्राथमिकताओं के साथ-साथ फिजूलखर्ची का मूल्यांकन भी करना होगा। इसके लिए सरकार की निरंतरता में मूल्यपरक राजनीति का प्रदर्शन तभी संभव है अगर समाज भी पढ़े-लिखे, दक्ष तथा विजन से परिपूर्ण जनप्रतिनिधियों को जाति व वर्ग से ऊपर उठ कर चुने। हिमाचल में मुख्यमंत्री के पास न तो वित्त और न ही गृह मंत्रालय होना चाहिए। विकास की निरंतरता में व्यवस्थागत सुधार तथा वन अधिनियम के तहत अनापत्तियों के बहाने छोड़ने होंगे, वरना कभी पालमपुर का रोप-वे अटकेगा, तो कभी हमीरपुर का बस स्टैंड वर्षों बाद भी निर्धारित जमीन पर खड़ा नहीं हो पाएगा।


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