चंबा की गघाली संस्कृति और वर्तमान संदर्भ 

By: डा. प्रिया शर्मा Dec 6th, 2020 12:08 am

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस नई शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी नौवीं किस्त…

डा. प्रिया शर्मा

मो.-9891755469

लोक संस्कृति परंपरा से प्राप्त होती है। मनुष्य समाज में रहकर ही संस्कृति को सीखता है और संप्रेषित करता है। संस्कृति का संबंध मानव की बौद्धिक और मानसिक अनुभूतियों से है। यह संस्कृति ही है जो मानव को शेष प्राणी जगत से विशिष्ट कोटि का स्थान प्रदान करती है। जो जितना संस्कृत है, उतना ही सभ्य मानव है। भौगोलिक परिप्रेक्ष्य की दृष्टि से हिमाचल प्रदेश के चंबा क्षेत्र की लोक संस्कृति में गद्दी जनजाति का सांस्कृतिक अध्ययन कठिन विषय है। वास्तव में गद्दी ट्रैवलर हैं। ये लोग जहां जाते हैं, वहीं उनका घर होता है।

बड़ी अद्भुत बात है कि महानगरों में दो-चार फ्लैट, गाड़ी, बंगला, धन-संपत्ति को प्रोपर्टी कहते हैं, परंतु गद्दियों का वास्तविक धन या संपत्ति मेमने और भेड़-बकरियां हैं। लोक संस्कृति मनुष्य के विश्वासों, रीति-रिवाजों, रूढि़यों, व्यवहारों और परंपराओं से निर्मित होती है। चंबा का गडरिया मेमने को गोद में लेकर भेड़ें चराता हुआ अपनी पत्नी को याद कर रहा है जिससे बिछुड़े हुए उसको कई महीने बीत चुके हैं। उधर गांव में पत्नी भी उसे याद करती हुई गीत गुनगुनाती है-

‘घरा जो तू इयां बो जानी घरा जो तू इयां बो’

इसी लोकगीत के माध्यम से गडरिया अपनी पत्नी को उत्तर देता है-

‘घरा जो कियां इयां बो जानी बकरिए सोला पाया हो’

अगर वर्तमान संदर्भ में प्रियतमा से बात करेंगे तो कहेंगे, ‘माई डियर स्वीट हार्ट’, मेरी प्रिय आदि-आदि। गडरिए ने ‘जानी’ शब्द का प्रयोग किया है जो बहुत सार्थक है। जानकारी के लिए कहूंगी कि इस गाने का प्रयोग डॉक्यूमेंटरी फिल्म – ‘चंबा नेड़े ए के दूर’ में हुआ है, जिसे साहित्य अकादमी नई दिल्ली ने बनाया है। शिष्ट और लोक संस्कृति मनुष्य को विरासत में मिलती है और इसका पालन शिष्ट व्यवहार का परिचायक होता है। वर्तमान दंपति संतानहीन जीवन का उपभोग करके प्रत्येक क्षण को ऐशो-आराम और मनोरंजनपूर्ण बनाना चाहते हैं, बाध्यता यह है कि उन्हें कॉरपोरेट लाइफ  से फुर्सत नहीं है। कोख भाड़े में देने और लेने की ‘सरोगेट मदर परंपरा’ भी लोकप्रिय हो रही है। इसके विपरीत महत्त्वपूर्ण बात है कि चंबा का गडरिया मेमने को गोद में लेकर यात्रा कर रहा है।

भेड़ों के झुंड में साथ-साथ दो कुत्ते भी शेर के समान चल रहे हैं। पहाड़ी लड़कियां घर से बाहर कम निकलती थीं, परंतु आज समय बदल रहा है। आज हिमाचली लड़कियां महानगरों में हवाई जहाज, रेल, मेट्रो और पब्लिक सेक्टर में, सिनेमा में काम करके प्रदेश का नाम रोशन कर रही हैं। औद्योगिकीकरण और संचार साधनों ने समूचे विश्व में सामाजिक समीकरणों को प्रभावित किया है। कारण कुछ भी हो, हमें अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपने लोग नहीं भूलने चाहिए। मेरी कविता की ये पंक्तियां-

‘शिवजी री ऐंचली न कोई मुजरा नी

कदी-कदी अपु जो सुनाना चीहंदा’

चंबा की शिष्ट संस्कृति का मूल रूप मौखिक संस्कृति है, जहां मेले, छिंज, जातर आदि मनाए जाते हैं। लोक संस्कृति शुद्ध संस्कारों के माध्यम से मानव को संस्कारित करती है। आज महानगरों में प्रेम विवाह होते हैं, एक वर्ष बाद गोद में बच्चा होता है और तलाक की अर्जी कोर्ट में लगी होती है। पहाड़ी लोग संयुक्त परिवार प्रथा में रहते हुए अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करते हैं। अतिथि का सत्कार करना यहां के लोगों की प्रकृति है। चुराह में तो थके-हारे अतिथि के गर्म पानी से हाथ-पैर धोकर मालिश करने की प्रथा है।

स्थानीय लोकाचार में यहां के देवी-देवता प्रथम और अंतिम निर्णायक की भूमिका अदा करते हैं। प्रथम फसल आने पर कुलज देवता को ‘संज’ चढ़ाने की प्रथा है। जन्मदिन, खिरपू, जट्टू, काहरण, जनेऊ तथा विवाह संस्कार विधि-विधान से मनाए जाते हैं। चंबा की लोक संस्कृति में रथ-रथनी का मेला, लोहड़ी का फेरा, कुंजड़ी का गाना और पिंदड़ी का खाना विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त चंबा की चुख, कसरोढ़ का अचार, चीरों की चटनी, जरीस, कढ़ाई वाली चप्पल और चंबा का रूमाल सुप्रसिद्ध हैं। चंबा रूमाल दस रुपए से लेकर दो या तीन लाख तक खरीदे जा सकते हैं जो सारा हाथ का काम है। इन रूमालों पर हाथ से कढ़ाई किए हुए भेड़ें चराते हुए गद्दी-गद्दन, रामायण, महाभारत, विष्णुपुराण, कृष्ण लीला, रासलीला, चौरासी मंदिर, शिशुपाल वध, गणेश जी, लैला-मजनूं तथा शिकार आदि के अनेक दृश्य बने होते हैं। ….कुछ रीति-रिवाज समग्र समाज को मान्य होते हैं।

वर्णाश्रम व्यवस्था इसका स्पष्ट उदाहरण है। चंबा में मोची, जुलाहा, डूम, धोबी, लकड़हारा, गायक, गडरिया, सेवक, बाजीगर, हरण आदि की सक्रिय उपस्थिति के कारण लोकगीत समृद्ध रहे हैं। इन लोकगीतों में सुकरात, ढोलरु, बसोआ, धुरेई, ऐंचली, बसंत-बहार, कुंजड़ी-मल्हार, सूही की जातर, स्वांग, हरण, झांकी, नुआला तथा मुसाधा आदि विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। गद्दी लोग विवाह, उत्सव, नुआला आदि में ऐंचली गाते हैं। ऐंचलियों में शिव स्तुति और शिव विवाह का गायन होता है। आज महानगरों में मेहंदी लगाना व्यापार बन गया है जिसमें ‘कैमिकल कलर’ का प्रयोग किया जाता है। इससे हाथों में प्रतिक्रिया अर्थात रिएक्शन हो जाता है जिससे हाथ फूल जाते हैं। गद्दी जनजाति के लोगों में भी मेहंदी लगाने की प्रथा है। पहाड़ों में तिंबर और हलुए के पत्ते होते हैं। इन पत्तों को पीसकर रात को हाथों और पांवों में लेप करके बिस्तर में सो जाते हैं।

सुबह उठकर लाल हाथ-पांव देखकर जो आनंद की अनुभूति होती है, उसे लिखकर बयान नहीं किया जा सकता। तिंबर और हलुए के पत्तों को लगाने से ठंडक मिलती है। धीरे-धीरे महानगरों में पांव छूने की प्रथा समाप्त हो रही है। अगर निर्वाह होता भी है तो घुटनों तक ही लोग झुकते हैं। पॉपुलर कल्चर के प्रभाव से संस्कारों का हनन हो रहा है। इसके विपरीत चुराह क्षेत्र में बड़ों को सम्मान देने के लिए पैर बंदणे की प्रथा है। तकनीक के कारण आज सबके पास मोबाइल आ गया है। जब यह सुविधा नहीं थी तो किसी की मृत्यु हो जाने पर गांव का व्यक्ति ज़ोर से आवाज़ लगाता था जिसे क्षेत्रीय भाषा में ‘हक्का लाणा’ कहते हैं। ओ… करके मृत्यु की सूचना के बाद दूसरे-तीसरे गांव तक यह प्रक्रिया जारी रहती है। यह धर्म का कार्य माना जाता है। गद्दी और पंगवाल क्षेत्र के लोग मृतक के परिवार के घर यथायोग्य अनाज लेकर जाते हैं, ताकि परिवार पर आर्थिक बोझ न पड़े। कुछ पट्टू या टल्लू न देकर रुपए देते हैं। इस प्रकार जनजातीय क्षेत्रों में विकासशील देशों की अपेक्षा सहयोग की भावना कूट-कूट कर भरी होती है। आधुनिक पीढ़ी को मूल जड़ें खोजनी हों तो जनपदीय जीवन शैली का अध्ययन करना होगा।

विमर्श के बिंदु

अतिथि संपादक : डा. गौतम शर्मा व्यथित

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -9

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

लोकसाहित्य : आवश्यकता और औचित्य

डा. आशु फुल्ल

मो.-9459545088

लोकसाहित्य भारतीय संस्कृति की गौरवशाली तथा अनमोल विरासत के रूप में समादृत है जो देश के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक अस्तित्व को राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह साहित्य सामान्य लोक की युग-युगीन वाणी साधना को संजोए हुए ऐसी मौखिक अभिव्यक्ति है जो भले ही किन्हीं अज्ञात व्यक्तियों ने गढ़ी हो, लेकिन वर्तमान में सामान्य लोक समूह जिसे अपना ही मानता है। इसका प्रत्येक शब्द, प्रत्येक स्वर और प्रत्येक लहजा सहज ही लोकमानस से जुड़ा है। लोकसाहित्य के इस अभिप्राय और महत्त्व को ध्यान में रखते हुए वर्तमान संदर्भ में जब इसकी आवश्यकता और औचित्य पर विचार-मंथन करते हैं तो अनेक विसंगतियां उभर कर आती हैं। तथाकथित वैश्वीकरण एवं बाजारवाद ने परंपरागत सामाजिक संरचना में संक्रमण और बिखराव सा ला दिया है जिससे हर विकासशील देश त्रस्त है।

परिणाम यह है कि राष्ट्र, समाज, संस्कृति और नैतिक अवधारणाएं अवमूल्यन से त्रस्त गुमशुदा सी हो रही हैं। ऐसी विस्फोटक स्थिति से बचाव हेतु  सार्थक विकल्पों की तलाश की जा रही है। वर्तमान में देश के समस्त राज्य अपनी-अपनी संकुचित सीमाओं में कैद हो रहे हैं। इससे सामूहिक राष्ट्रवाद का ह्रास और क्षेत्रीयवाद को बढ़ावा मिल रहा है। आज युवा जन मानसिकता लोकसाहित्य और कलाओं को आउटडेटेड कहकर नकारने में लगी है। इससे लोकसाहित्य के प्रति उदासीनता बढ़ रही है जिससे पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुरु-शिष्य परंपरा में विकसित कलाओं के लोप होने का खतरा बढ़ रहा है। जबकि लोकसाहित्य में परंपरा प्रेम के साथ-साथ समसामयिक समाज की आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक सोच की वह सशक्त बनावट होती है जो आज को बारीकी से बुनती हुई चलती है।

वस्तुतः वर्तमान का अतीत की बैसाखी पकड़े बिना गुजारा नहीं। वर्तमान को सुखी बनाना है तो अतीत से सबक सीखने ही होंगे और देश की समृद्धि के लिए ‘हम कौन थे, क्या हैं और क्या होंगे, अभी आओ मिलकर विचारे समस्याएं सभी’ जैसे प्रश्नों का उत्तर यहीं मिल जाता है। हमें यह विश्वास करना ही होगा कि निश्चित रूप से लोकसाहित्य कभी भी काल से परे नहीं हो सकता, यह आज भी प्रासंगिक और उपयोगी है तथा प्रत्येक युग के साथ कदमताल करते हुए आगे ही आगे बढ़ता है। यही कारण है कि आज के समय में लोकगाथा, लोकनाट्य तथा लोकगीतों में प्राचीनता के साथ-साथ आधुनिकता का बोध प्राप्त होता है। वर्तमान में जनसंचार माध्यमों जैसे सिनेमा थिएटर और दूरदर्शन ने लोकसाहित्य को प्रोत्साहित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। दूरदर्शन से धारावाहिकों, चलचित्र के द्वारा तथा रंगमंच पर नाटकों के द्वारा लोक संस्कृति केंद्रित रचनाओं का सजीव प्रस्तुतीकरण इसकी संश्लिष्ट स्थिति का सूचक है। लोकसाहित्य के विकास में प्रशासनिक तंत्र द्वारा असंख्य विसंगतियां उपजाई जा रही हैं, जैसे सरकार द्वारा सांस्कृतिक मंत्रालय की स्थापना करके विभिन्न अकादमियां खोल दी गईं, लेकिन सरकारी तंत्र के ढुलमुल रवैये और अव्यवस्थित नीतियों की वजह से लोकसाहित्य को आगे ढेलती योजनाएं बंदरबांट का शिकार हो रही हैं।

परिणाम यह है कि लोक कलाओं और साहित्य को संरक्षण देने वाले और प्रचार प्रसारित करने वाले लोक कलाकार भुखमरी और उपेक्षा के कगार पर पहुंच गए। जो प्रतिष्ठा व मान-सम्मान और अर्थ समृद्धि इन्हें मिलनी चाहिए थी, उससे ये वंचित रह गए। क्षेत्रीय भाषाओं से परिचित कराने हेतु पाठ्य पुस्तकें छोटी कक्षाओं से बनाई जाएं जिसमें उस क्षेत्र विशेष की संस्कृति, रहन-सहन, खानपान व जीवनशैली आदि के साथ-साथ लोक प्रचलित गीतों तथा कथाओं को प्राथमिकता दी जाए। इसके साथ-साथ जन प्रचलित किंवदंतियों (दंत कथाओं) को स्थान मिले। क्षेत्र विशेष में प्रचलित वाद्य यंत्रों और कलाओं के प्रति छात्रों की अभिरुचि और निपुणता को देखते हुए सप्ताह में दो या तीन दिन अवश्य संगीत कला के अंतर्गत प्रशिक्षण दिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सरकार द्वारा लोकसाहित्य को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक छात्रवृत्तियां, पुरस्कार, रोजगार, पेंशन का प्रावधान करके उन्हें पारदर्शी बनाया जा सकता है। सूर्य प्रसाद दीक्षित के शब्दों में ‘लोकसाहित्य आज भूमंडलीकरण और बाजारवादी स्वार्थी नीतियों के कारण लुप्त होता जा रहा है जो किसी भी देश के लिए सांस्कृतिक रूप से बहुत बड़ा नुकसान है। आधुनिक युग में लोकसाहित्य का विकास करना है तो पहले बचाओ, फिर आगे बढ़ाओ के फार्मूले पर चलना होगा।’

वस्तुतः वर्तमान समय में लोकसाहित्य का आधुनिक युग में औचित्य प्रमाणित करने के लिए भगीरथी प्रयासों की आवश्यकता है जिसके तहत समाज के बुद्धिजीवी वर्ग और प्रशासनिक तंत्र के साथ-साथ क्षेत्रीय लोक कलाकारों की सामूहिक सहभागिता सुनिश्चित हो। युवा भी इसके प्रचार-प्रसार में अपनी अभिरुचि यथा योग्यता प्रदर्शित करें। आधुनिकीकरण के इस अति व्यस्त दौर में आधुनिक तकनीकों में लोक अभिरुचि और संवेदना का मसाला भरकर दोनों को साथ-साथ लेकर चलना है। इस सच्चाई को हृदयंगम करना ही होगा कि लोकसाहित्य मानव समाज के विकास हेतु आज भी उतना ही प्रासंगिक और उपयोगी है जितना पूर्व काल में था। इसकी उपादेयता कल भी रही है, आज भी है और भविष्य में भी अनवरत जारी रहेगी।

पुण्यतिथि विशेष

खड़ी बोली को काव्य भाषा बनाने वाले मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से उन्होंने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया। इस तरह ब्रजभाषा जैसी समृद्ध काव्य भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नए कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिंदी कविता के इतिहास में गुप्त जी का यह सबसे बड़ा योगदान है। उनका जन्म 3 अगस्त 1886 को चिरगांव (झांसी, उत्तर प्रदेश) में हुआ था। संभ्रांत वैश्य परिवार में जन्मे मैथिलीशरण गुप्त के पिता का नाम सेठ रामचरण और माता का नाम श्रीमती काशीबाई था। पिता रामचरण एक निष्ठावान् प्रसिद्ध राम भक्त थे। इनके पिता कनकलता उप नाम से कविता किया करते थे और राम के विष्णुत्व में अटल आस्था रखते थे। गुप्त जी को कवित्व प्रतिभा और राम भक्ति पैतृक देन में मिली थी।

 वह बाल्यकाल में ही काव्य रचना करने लगे। पिता ने उनके एक छंद को पढ़कर आशीर्वाद दिया कि ‘तू आगे चलकर हमसे हजार गुनी अच्छी कविता करेगा’ और यह आशीर्वाद अक्षरशः सत्य हुआ। मुंशी अजमेरी के साहचर्य ने उनके काव्य-संस्कारों को विकसित किया। उनके व्यक्तित्व में प्राचीन संस्कारों तथा आधुनिक विचारधारा दोनों का समन्वय था। मैथिलीशरण गुप्त जी को साहित्य जगत् में ‘दद्दा’ नाम से संबोधित किया जाता था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा चिरगांव, झांसी के राजकीय विद्यालय में हुई। प्रारंभिक शिक्षा समाप्त करने के उपरांत गुप्त जी झांसी के मेकडॉनल हाई स्कूल में अंग्रेजी पढ़ने के लिए भेजे गए, पर वहां उनका मन न लगा और दो वर्ष पश्चात् ही घर पर उनकी शिक्षा का प्रबंध किया गया। लेकिन पढ़ने की अपेक्षा उन्हें चकई फिराना और पतंग उड़ाना अधिक पसंद था। फिर भी उन्होंने घर पर ही संस्कृत, हिंदी तथा बांग्ला साहित्य का व्यापक अध्ययन किया।

इसी बीच गुप्तजी मुंशी अजमेरी के संपर्क में आए और उनके प्रभाव से उनकी काव्य-प्रतिभा को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। अतः अब वह दोहे, छप्पयों में काव्य रचना करने लगे। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जब झांसी के रेलवे ऑफिस में चीफ क्लर्क थे, तब गुप्तजी अपने बड़े भाई के साथ उनसे मिलने गए और कालांतर में उन्हीं की छत्रछाया में मैथिलीशरण जी की काव्य प्रतिभा पल्लवित व पुष्पित हुई। वह द्विवेदी जी को अपना काव्य गुरु मानते थे और उन्हीं के बताए मार्ग पर चलते रहे तथा जीवन के अंत तक साहित्य साधना में रत रहे। उन्होंने राष्ट्रीय आंदलनों में भी भाग लिया और जेल यात्रा भी की। मैथिलीशरण गुप्त जी स्वभाव से ही लोकसंग्रही कवि थे और अपने युग की समस्याओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहे। उनका काव्य एक ओर वैष्णव भावना से परिपोषित था, तो साथ ही जागरण व सुधार युग की राष्ट्रीय नैतिक चेतना से अनुप्राणित भी था। लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक, विपिनचंद्र पाल, गणेश शंकर विद्यार्थी और मदनमोहन मालवीय उनके आदर्श रहे। महात्मा गांधी के भारतीय राजनीतिक जीवन में आने से पूर्व ही गुप्त का युवा मन गरम दल और तत्कालीन क्रांतिकारी विचारधारा से प्रभावित हो चुका था। ‘अनघ’ से पूर्व की रचनाओं में, विशेषकर जयद्रथ वध और भारत भारती में कवि का क्रांतिकारी स्वर सुनाई पड़ता है।

बाद में महात्मा गांधी, राजेंद्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरू और विनोबा भावे के संपर्क में आने के कारण वह गांधीवाद के व्यावहारिक पक्ष और सुधारवादी आंदोलनों के समर्थक बने। 1936 में गांधी ने ही उन्हें राष्ट्रकवि का संबोधन दिया। महावीर प्रसाद द्विवेदी के संसर्ग से गुप्तजी की काव्य-कला में निखार आया और उनकी रचनाएं ‘सरस्वती’ में निरंतर प्रकाशित होती रहीं। 1909 में उनका पहला काव्य ‘जयद्रथ-वध’ आया। जयद्रथ-वध की लोकप्रियता ने उन्हें लेखन और प्रकाशन की प्रेरणा दी। 59 वर्षों में गुप्त जी ने गद्य, पद्य, नाटक, मौलिक तथा अनूदित सब मिलाकर हिंदी को लगभग 74 रचनाएं प्रदान कीं, जिनमें दो महाकाव्य, 20 खंड काव्य, 17 गीतिकाव्य, चार नाटक और गीतिनाट्य हैं। 12 दिसंबर 1964 को झांसी में उनका निधन हो गया। हिंदी साहित्य में योगदान के लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है।

पुस्तक समीक्षा

यह आम रास्ता नहीं है

पंजाब के होशियारपुर में जन्मे प्रसिद्ध साहित्यकार कमलेश भारतीय एक अंतराल के बाद फिर कहानी लेखन की ओर लौटे हैं। हिंदी साहित्य को 10 कथा संग्रह सौंपने वाले कमलेश भारतीय ‘यह आम रास्ता नहीं है’ नामक कहानी संग्रह के जरिए 16 कहानियां पाठकों के लिए लेकर आए हैं। इन 10 कथा संग्रह में चार लघुकथा संग्रह शामिल हैं। प्रकाशक इंडिया नेटबुक्स द्वारा प्रकाशित इस कहानी संग्रह का पेपरबैक मूल्य 150 रुपए है, जबकि हार्ड बॉन्ड का मूल्य 250 रुपए है। इन कहानियों को पाठकों को समर्पित करते हुए लेखक कहते हैं : ‘आज जब इन सोलह कहानियों को आपके हाथों सौंप रहा हूं तो मुझे सारी कहानियों के रचनाकाल याद आ रहे हैं।

 सन् 1990 में पूर्ण रूप से पत्रकारिता में आने के बाद यह वक्त खलनायक हो गया और लंबी कहानियां लिखने का समय नहीं रहा। इसलिए लघुकथा में ज्यादा सक्रिय रहा। फिर भी जादूगरनी, भुगतान, तीन दृश्य ः एक चेहरा, हिस्सेदार जैसी कहानियां दैनिक ट्रिब्यून की उपसंपादकी को दौरान ही लिखी गईं। एक सूरजमुखी की अधूरी परिक्रमा, यह आम रास्ता नहीं है और कठपुतली जैसी कथाएं नारी जीवन के विविध पहलू सामने लाती हैं। कितना? यह पाठक तय करेंगे। अपडेट आज की राजनीति पर आधारित कहानी है और मेरी सबसे ताजा कहानी। कैसे एक छोटी-सी घटना दलित बनाम दबंग बन जाती है, इसे मिर्जापुर में रिपोर्टिंग करते बड़े करीब से देखा, लेकिन लिखने में आठ साल लंबा समय लिया।’

कमलेश भारतीय की कहानियां जहां पाठकों का मनोरंजन करती हैं, वहीं कोई न कोई संदेश भी जरूर देती हैं। कहानियों को सरल भाषा में लिखा गया है। इस कहानी संग्रह में अर्जी, तीन दृश्य ः एक चेहरा, जादूगरनी, यह आम रास्ता नहीं है, भुगतान, सूनी मांग का गीत, अपडेट, कठपुतली, हिस्सेदार, एक सूरजमुखी की अधूरी परिक्रमा, अगला शिकार, अंधेरी सुरंग में, मैंने अपना नाम बदल लिया है, देश दर्शन, नीले घोड़े वाले सवारों के नाम तथा मां और मिट्टी जैसी कहानियों की रचना की गई है। लेखक को इस कहानी संग्रह के प्रकाशन पर बधाई है। आशा है पाठकों को यह कहानी संग्रह अवश्य पसंद आएगा।

-राजेंद्र ठाकुर


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