दिल्ली घेराबंदी का आंदोलन

By: Dec 1st, 2020 12:04 am

किसान संगठनों ने दिल्ली की सीमाओं पर देश की राजधानी की घेराबंदी कर ली है। पंजाब-हरियाणा के अलावा उप्र, मप्र और राजस्थान आदि राज्यों से भी किसानों के जत्थे दिल्ली की ओर बढ़ रहे हैं तथा बॉर्डर पर ही डेरा डाल रहे हैं। किसान एक लंबी लड़ाई के मूड में दिख रहे हैं। उनका दावा है कि वे चार महीने का राशन-पानी लेकर चले हैं। दो माह से ज्यादा का वक्त गुज़र चुका है, जब किसानों ने पंजाब में ‘रेल रोको’ आंदोलन की शुरुआत की थी। इस दौरान रेलवे का अरबों रुपए का नुकसान हो चुका है। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी बयान दिया है कि उनके राज्य का भी करीब 43,000 करोड़ रुपए का नुकसान हो चुका है। रेलवे के अतिरिक्त सार्वजनिक परिवहन के भी चक्के थाम दिए गए हैं।

यह नुकसान भी करोड़ों का होगा! सब्जियां, फल, अनाज आदि राजधानी तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। किसान इस पराकाष्ठा तक पहुंच चुके हैं कि दिल्ली को भूखों मार देने के बयान दिए जा रहे हैं। क्या यही किसान आंदोलन का निष्कर्ष होगा? सातवें-आठवें दशक में शरद जोशी, चौ. चरण सिंह, देवीलाल और महेंद्र सिंह टिकैत सरीखे प्रख्यात और कद्दावर किसान-नेताओं ने लाखों किसानों को लामबंद करके आंदोलन किए, धरने-प्रदर्शनों पर बैठे और संसद तक में आवाज़ बुलंद की, लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और मंडियों से जुड़े सरोकार और सवाल आज भी यथावत हैं। मौजूदा आंदोलन तक किसानों के डर और खौफ की दो बुनियादी वजहें हैं। एक, कृषि के तीनों विवादित कानूनों में एमएसपी की किसी भी गारंटी का उल्लेख तक नहीं है। दूसरे, नवंबर, 2019 में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने ही सार्वजनिक रूप से विचार रखा था कि अब एपीएमसी मंडियों को खत्म करने का समय आ गया है। गंभीर विरोधाभास यह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में और कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने सार्वजनिक मंचों पर किसानों को बार-बार आश्वस्त किया है कि न तो एमएसपी और न ही मंडियां समाप्त की जाएंगी। यह भी स्पष्ट नहीं है कि फसलों का खुला बाज़ार खोल देने के बाद जो कॉरपोरेट कंपनियां गांव-शहर के स्तर पर अपना ढांचा तैयार करेंगी, तो उसके मद्देनजर क्या आढ़तियों के भी खत्म होने का सिलसिला शुरू हो जाएगा? औसत किसान इन सवालों को लेकर आशंकित हो सकता है। उसका आंदोलित और आक्रामक होना भी स्वाभाविक है, क्योंकि उसकी खेती बर्बाद हो सकती है, ज़मीन बिकने तक की नौबत आ सकती है! उन हालात में किसान की आमदनी दोगुनी होगी या वह मज़दूर बनने को विवश होगा? देश में 60-62 करोड़ किसानों में सभी संपन्न और बड़े किसान नहीं हैं। 2017 में तमिलनाडु से कुछ किसान संगठन दिल्ली आए थे और उन्होंने जंतर-मंतर पर कई दिनों तक प्रदर्शन भी किए थे। किसान इतने कुंठित और क्षुब्ध थे कि उन्होंने कई अजीबोगरीब क्रिया-कलाप भी किए। ज्यादातर किसानों ने अपने कपड़े उतार दिए, अपना मूत्रपान तक किया, ज़मीन पर ही भोजन (बिना बर्तनों के) किया और प्रतीकात्मक तौर पर अंतिम संस्कार भी किए। सरकार ने उनकी कितनी मांगें मानीं, यह तो पूरी जानकारी नहीं, लेकिन एमएसपी और मंडियों के सवाल तमिल किसान के सामने भी बरकरार हैं। चूंकि हरियाणा और पंजाब राजधानी दिल्ली के बेहद करीब हैं। ये दोनों राज्य मिलकर देश को करीब 70 फीसदी खाद्यान्न की आपूर्ति करते हैं। यदि देश के जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी 15-16 फीसदी है, तो उसमें इन दोनों राज्यों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। करीब 67 फीसदी धान की खरीद अकेले पंजाब से ही होती है।

पंजाब में कृषि से जुड़े 12 लाख से अधिक परिवार हैं और करीब 28,000 पंजीकृत कमीशन एजेंट हैं। फरवरी, 2022 में वहां विधानसभा चुनाव होने हैं, लिहाजा पंजाब, वहां के राजनीतिक दलों और किसानों की चिंता समझ आती है। मसला गेहूं, धान के एमएसपी का ही नहीं है। मक्का, सरसों, ज्वार, बाजरा, सब्जियों और फलों पर भी एमएसपी के मुताबिक किसानों को दाम नहीं दिए जाते रहे हैं। यह परंपरा तब से ही जारी है, जब से एमएसपी को मान्यता मिली है। मोदी सरकार ने तो फिर भी एमएसपी में डेढ़ गुना बढ़ोतरी की है। बहरहाल एक अनुमान के मुताबिक, करीब 5-6 फीसदी किसानों की फसलें ही एमएसपी की कीमत पर बिक पाती हैं। उसमें भी सरकारी खरीद का हिस्सा ज्यादा होता है। शेष 94 फीसदी किसानों की विपन्नता और कर्ज़दारी का अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसे तमाम तथ्य मोदी सरकार के सामने भी होंगे, लिहाजा सरकार एमएसपी को कानूनी दर्जा देने में क्यों अचकचा रही है? सरकार को सार्वजनिक तौर पर साफ  करना चाहिए। सिर्फ  बयानों से किसान आश्वस्त नहीं होगा।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App