कांगड़ा के जन्मगीतों का संगीत सौंदर्य

By: डा. जन्मेजय गुलेरिया Dec 13th, 2020 12:06 am

डा. जन्मेजय गुलेरिया

मो.-9805065132

लोकगीतों का माधुर्य आदिकाल से मानव हृदय को आंदोलित व आनंदित कर रहा है। यद्यपि इन गीतों में स्वर, लय, ताल व छंद के नियमों का कोई शास्त्रीय अनुशीलन नहीं है, लेकिन इनका संगीतात्मक अध्ययन करने पर यह उद्घाटित हुआ कि इन लोकगीतों में अधिकतर काफी, देशकार, यमन, दुर्गा, भीमपलासी, झिंझोटी, तिलक कामोद, भूपाली, पहाड़ी आदि रागों का प्रभाव परिलक्षित होता है।

लोक साहित्य अध्येयताओं तथा शोधकर्ताओं के मतानुसार – ‘लोकगीत पहाड़ी झरने से मुक्त निर्द्वन्द्व व सहज़ बहते चले आ रहे हैं। इनका गेय होना ही इनका सहज़ व महत्त्वपूर्ण तत्त्व है।’ अपनी मौलिकता, मधुरता व गेयता के कारण ही लोकगीत एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सम्प्रेषित होते जा रहे हैं। इन गीतों द्वारा प्राचीन परंपरा, रीति-रिवाज़, संस्कार, लोकानुष्ठान व विश्वासों की धरोहर वर्तमान पीढ़ी को सहज़ ही उपलब्ध हो जाती है। वर्तमान में आधुनिक चकाचौंध में ये लोकगीत विलुप्त होने की कगार पर खड़े हैं। आधुनिक पीढ़ी की सोच व उनकी वाणी से परे होते जा रहे हैं। वस्तुतः लोकगीत, विशेष रूप से संस्कार गीतों (जन्म, मुंडन, उपनयन, विवाह, मृत्यु) की रचनाकार संभवतः स्त्रियां ही रही होंगी। कांगड़ा जनपद में अधिकांश संस्कार गीत नारी केंद्रित ही हैं। इसलिए इनमें नारी का मनोविज्ञान व उनकी समस्याएं मुखर हुई हैं। स्त्रियों ने ये गीत अपने घर-परिवार व परिवेश से ग्रहण किए और इनमें निरंतर बढ़ोतरी की।

आधुनिक युग के संगीत में यद्यपि नए-नए आविष्कार हुए हैं। परंतु लोक संगीत का ठहराव, माधुर्य व उसके भीतर से शृंगार व शांत रस की भव्यता की ओर संगीतकारों का आकर्षण सदैव रहा है। उनकी प्रेरणा का मूल स्रोत यह लोक संगीत ही है। लोक का संबंध प्रकृति से रहा है। प्रकृति ही उनकी शिक्षा स्थली रही। वहीं से उन्होंने जीवन जीने का मर्म सीखा। लोक संगीत की परंपरा के निर्वहन में सभी का सहयोग है। इसलिए अनंत काल तक इसका प्रसार रहेगा। मानव मिट्टी से विलग नहीं रह सकता, इसलिए माटी की सुगंध लिए इन गीतों से भी जुदा नहीं रह सकता। यह परंपरा सतत् प्रवाहमान पावन जलधारा है। कांगड़ा के लोकगीत भाव प्रधान गीत हैं। प्रत्येक गीत किसी संस्कार व अनुष्ठान विशेष के निहितार्थ तथा रूप-स्वरूप को निरूपित करता है। लोक के भाव कलात्मक जगत को समृद्ध करते हुए जन्मगीतों का वर्णन है जिनका भाव-सौंदर्य अद्भुत है। इन गीतों को जन्म तथा जन्मदिवस के समय गाने की प्रथा है। इनमें शिशु की दीर्घायु की प्रार्थना स्वरूप भ्याई मां (माटी की मूर्ति) के पूजन-अर्चन की विधि वर्णित है। मां की उपस्थिति, मूर्ति से सुनिश्चित करके स्त्रियां समग्र चेतना से मंगल कामना करती हैं। इन गीतों में शिशु रूप में कृष्ण की ही कल्पना प्रत्येक मां ने की है। यह शायद पुरुष प्रधान समाज का वर्चस्व है। स्त्री को जन्म से ही पिलाई गई घुट्टी  का प्रभाव है कि वह पुत्रवती होकर ही स्वयं को धन्य मानती है।

इन गीतों में परिवार का दायरा बड़ा है। शिशु के मां व पिता के साथ-साथ दादा-दादी, नाना-नानी, ताया-ताई, चाचा-चाची, मामा-मामी आदि सभी संबंधी उन गीतों में किसी न किसी संदर्भ में याद किए जाते हैं। वास्तव में ये गीत संभवतः स्त्रियों द्वारा ही रचे गए होंगे और स्त्रियां परिवार और संबंधों के बिना नहीं रह सकती। यद्यपि इन गीतों में काव्यात्मक चमत्कार दिखाने का सायास प्रयास नहीं है, ये रचनाएं अत्यंत सहज-स्वाभाविक हैं। परंतु इनमें अनायास ही अलंकारों का प्रयोग देखने को मिलता है। इन गीतों में अनुप्रास, तुलना व उपमा अलंकार परिलक्षित होते हैं। इन गीतों में मुख्य रस वात्सल्य रस है। भक्त कवि सूरदास का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। कुछ गीत उनके पद्यांशों का भाव लिए लोक भाषा में वर्णित है। जहां भ्याई मां की पूजा में भाव-विभोर होकर गाती हैं, वहां शांत रस विद्यमान है।

गायन संस्कारों की दृष्टि से क्रमशः सूहडि़या, सोहर, भियाइयां, रूणझुणे, काल़े महीने, हंसणू-खेलणू व बधाइयां इत्यादि का प्रचलन हमारे कांगड़ा जनपद में मिलता है। शहरों व कस्बों में इन गीतों का प्रचलन धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है। परंतु गांवों में ये संस्कार गीत कांगड़ा जनपद में आज भी गाए जा रहे हैं। संस्कार गीतों की परंपरा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक रूप से ही सम्प्रेषित हुई है, परंतु 1950 के बाद कांगड़ा जनपदीय लोकगीतों का प्रकाशन इतिहास शुरू हुआ। एमएस रंधावा के प्रयास से उनके नाम से, कांगड़ा के लोकगीत, पुस्तक 1953 में प्रकाशित हुई।

उसके बाद गौतम शर्मा व्यथित का 126 संस्कार गीतों का संग्रह हिंदी अनुवाद सहित सन् 1973 में प्रकाशित हुआ। वर्ष 1974 में कांगड़ा के लोकगीत, साहित्यिक विश्लेषण एवं मूल्यांकन विषय पर शोध प्रबंध प्रस्तुत कर पीएचडी उपाधि प्राप्त की। सन् 1980 के बाद संस्कार लोकगीतों के सांगीतिक अध्ययन को लेकर डा. राजेंद्र गुरुंग, डा. देवराज शर्मा, डा. सतीश ठाकुर, साहित्यिक पक्ष को लेकर डा. मीनाक्षी दत्ता ने और संस्कार लोकगीतों के स्वरांकन दस्तावेजीकरण की दिशा में कांगड़ा लोक साहित्य परिषद, डा. जन्मेजय तथा प्रो. चंद्ररेखा ढडवाल के साझा प्रयास स्तुत्य हैं। लोक साहित्य के क्षेत्र में शोध व प्रकाशन अपेक्षित है, ताकि इन गीतों के मूल्यगत सिद्धांत युवा पीढ़ी तक पहुंच सकें।


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