लोक संस्कृति व सहित्य में मंडी जनपद का योगदान

By: डा. राकेश कपूर, मो.-9418495128 Dec 20th, 2020 12:05 am

डा. राकेश कपूर, मो.-9418495128

-गतांक से आगे…

चित्रकला में भी मंडी जनपद का अलग स्थान है, जिसे मंडी कलम के नाम से जाना जाता है। 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में जब राजा ईश्वरी सेन कांगड़ा से मंडी आए तो सजनूं नामक कांगड़ा शैली के एक चित्रकार को अपने साथ लेकर आए। तत्पश्चात मुगल शैली के अलावा कांगड़ा-गुलेर शैली का प्रभाव मंडी कलम पर पड़ा। सजनूं ने मंडी शिवरात्रि के चित्र भी ओकेरे। इसी कड़ी में मोहम्मदी या मोहम्मद वक्श, लोक कलाकार बातू एवं गहिया नरोत्तम आदि मंडी कलम के निष्णात चितेरे माने जाते हैं। वर्तमान में श्री राजेश कुमार मंडी कलम को सहेजने में अपना अमूल्य योगदान प्रदान कर रहे हैं। मूर्तिकला के उत्कृष्ट कार्य इस जनपद में बने किलों, मंदिरों तथा प्रतिमाओं में देखे जा सकते हैं। वैसे तो मूर्ति कला में पत्थरों का प्रयोग अधिकतम है, परंतु इसके अलावा धातु का भी अलग स्थान है। सभी देवी-देवताओं के मोहरे धातु से ही निर्मित होते हैं। कला के यह नमूने चौथी, पांचवीं, सातवीं, आठवीं शताब्दी से अब तक के काल तक देखे जा सकते हैं। मंडी नगर में अर्धनारीश्वर की प्रतिमा, त्रिलोकनाथ में आदमकद शिव, पंचवक्त्र में पांच मुख शिव, बरसेले, पाषाण में, करसोग के ममेल महादेव अष्टधातु, कामाख्या कॉव में पीतल में चतुर्भुज प्रतिमाएं अनूठी हैं। अर्धनारीश्वर, त्रिलोकनाथ व पंचवक्त्र मंदिरों को भारतीय पुरातत्त्व विभाग द्वारा संरक्षित किया गया है। अब भी मूर्तिकार पाषाण व धातु से मूर्तियां बना पुरानी परंपरा को बनाए हुए हैं, परंतु समय के प्रभाव से उसमें अंतर देखने को मिल रहा है।

वास्तुशास्त्र के अनुसार इस जनपद के मंदिरों, किलों व घरों में हुए वास्तु कार्य व लकड़ी की नक्काशी द्वारा प्रकट होते हैं। मंदिर शिखर, ढालू छत, लकड़ी का बंगला, पैगोड़ा भारत-तिब्बती शैली में निर्मित है। काष्ठ नक्काशी से, मंदिरों में देवी-देवताओं व सांप, पशु-पक्षी आदि को वास्तु शास्त्र अनुरूप उकेरा गया है। मंडी नगर के जगन्नाथ, माधवराव, रामचंद्र के वैष्णव मंदिर तथा भुवनेश्वरी देवी, शीतला देवी, श्यामा काली टारना, महामृत्युंजय मंदिर वास्तु कला के उदाहरण हैं। विभिन्न कलाओं की बात करने के पश्चात अब मंडी जनपद की जीवन शैली की बात की जाए क्योंकि इसके बिना संस्कृति की बात अधूरी रह जाएगी। हालांकि इसमें भी परंपराएं समाहित हैं। मंडी जनपद की वेशभूषा में पुरुष साफा, पगड़ी, चूड़ीदार पजामा, कमीज तथा औरतें चोल़ू, कुर्ती, दुपट्टा तथा गांव में गाची ऊन की टोपी पहनते थे। आभूषणों में स्त्रियां सिर पर सुहाग पूड़ा, जिसमें चाक, टीक, संगार पट्टी, नाक में बाल़ू, ब्लॉक, लौंग, तिल्ली, बेसर, कान में खुड़ीयां, कनबीच, बालियां, झुमर, गले में कंठी, जौ माल़ा, डेढू माल़ा, चमकली, हाथ में सनंगण, बंगा, बाजूबंद, अंगूठी में मुंदड़ी, पैरों में पंजेबा। पुरुषों में भी आभूषण पहनने का शौक था।

वे कानों में कनबाल़े, नंतियां या मुरकियां, हाथों में अंगूठियां, बाजू में सोने का कड़ा या सनंगण, गले में चेन, पैरों में पूल्हा पहनते थे। परंतु समय के साथ इसमें बहुत परिवर्तन देखने को मिल रहा है। खानपान की बात की जाए तो पारंपरिक पकवानों में धाम तथा धाम में बदाणे का मीठा, सेपू बड़ी, कद्दू या गोगल़े का खट्टा, एक या दो दम, कोल़्ह या छोले का खट्टा, दाल़ व झोल़ बनाए जाते हैं। इसके अलावा बटुहरू, बाबरू, भल्ले, घयोर, स्गोति लाड्डू, कचौरी, सिड्डू, गुलगुले, संधेई रे छोले, फाकी इत्यादि का प्रचलन है। रोजमर्रा के भोजन में बदलाव देखने को मिल रहा है, परंतु विवाह-शादियों, तिथ-त्यौहारों पर इन्हें बनाया ही जाता है। अंत में यदि रहन-सहन की बात की जाए तो मूल रूप से यह सादा व बिना तड़क-भड़क का था, परंतु अब समय व संपन्नता के साथ इसमें बहुत अधिक बदलाव देखने को मिल रहा है। उपरोक्त लिखित तथ्यों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मंडी जनपद की सभ्यता व संस्कृति तथा साहित्य समृद्ध हैं। लोक संस्कृति व साहित्य की परंपरा को सहेजने में भी मंडी जनपद का योगदान रहा ही है, परंतु इस वैज्ञानिक-प्रौद्योगिकी व विपणन के दौर में उपेक्षा की झलक देखने को मिल रही है तथा बहुत सी परिपाटियां व परंपराएं विलुप्त या उपेक्षित होने लगी हैं। इन सबके संवर्धन के लिए हम सबको मिलकर प्रयास करने होंगे। तभी हम अपनी एक अलग पहचान व संस्कृति को संजोने में सक्षम व समर्थ होंगे।


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