लोकसंगीत में शोध की संभावनाएं

By: डा. मनोरमा शर्मा Dec 20th, 2020 12:10 am

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस नई शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी 11वीं किस्त…

मो.- 9418130860

विमर्श के बिंदु

अतिथि संपादक : डा. गौतम शर्मा व्यथित

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -11

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

डा. मनोरमा शर्मा, मो.-9816534512

लोकसाहित्य किसी भी देश-प्रदेश की संस्कृति का अभिन्न अंग है। इसी के माध्यम से वहां की सांस्कृतिक धरोहर, परंपराएं, रीति-रिवाज, आस्था-विश्वास तथा ऐतिहासिक परिवेश का ज्ञान होता है। लोकसाहित्य और लोकसंगीत ऐसे दो सशक्त और समृद्ध पहलू हैं जिनके बहुत विस्तृत आयाम हैं। लोकसाहित्य के अंतर्गत लोक कथाएं, पहेलियां, मुहावरे-लोकोक्तियां, आख्यान तथा अन्य  मौखिक साहित्य आता है जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता रहा है और प्रबुद्ध शोधकर्ताओं द्वारा लिपिबद्ध किया गया है।

लोकसंगीत के अंतर्गत लोकगीत, लोकगाथाएं, लोकनृत्य, लोकनाट्य, लोकवाद्य आदि प्रदर्शनगत कलाएं आती हैं। हिमाचल प्रदेश के लोकसाहित्य और लोकसंगीत में भौगोलिक और सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत विविधता है। यद्यपि प्रशासनिक दृष्टि से प्रदेश के बारह  जिले हैं, परंतु अपनी बोली, रीति-रिवाज और ऐतिहासिक विभिन्नता के कारण इनकी विशिष्ट सांस्कृतिक और सांगीतिक पहचान है।

यही कारण है कि शोधकर्ता विभिन्न आयामों की गहराई तक जाकर अपनी जिज्ञासाओं  के उत्तर पाने का प्रयत्न करने में  लगे हुए हैं, फिर भी बहुत से प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं। इन्हीं  जिज्ञासाओं के उत्तर गहन शोध से ही प्राप्त हो सकते हैं। संगीत मानव के प्रत्येक कार्यकलाप के साथ जुड़ा हुआ है। जिस प्रकार मानव जीवन के रहस्यों का पूर्ण रूप से उद्घाटन संभव नहीं  हुआ है, उसी प्रकार लोकमानस के संगीत के भी अनंत आयाम ऐसे हैं जहां तक अभी शोधकर्ताओं की पैठ नहीं हुई है। विशेष रूप से जनजातीय क्षेत्रों के लोक संगीत पर कोई योजनाबद्ध कार्य नहीं  हुआ है।

हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के संगीत विभाग में लोकसंगीत के विभिन्न पक्षों पर शोधकार्य हुए हैं, लेकिन वे सभी एम फिल और पीएचडी उपाधि के लिए किए गए हैं, अतः सीमित अध्ययन होने के कारण उनमें स्तरीयता का अभाव है। विषय-वस्तु सीमित होने के कारण बहुत से पक्ष और आयाम छूट जाना स्वाभाविक है। अतः लोकसंगीत की बहुआयामी विधाओं पर गहन चिंतन और शोधपरक दृष्टि से गंभीर कार्य होना चाहिए। शोध परियोजनाओं के लिए आर्थिक पक्ष भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। आर्थिक अभाव के कारण भी शोध कार्य प्रभावित होते हैं। अतः स्तरीय शोध कार्यों हेतु सुदृढ़ आर्थिक व्यवस्था होना आवश्यक जान पड़ता है। सीमावर्ती क्षेत्रों के संगीत का प्रभाव भी स्थानीय संगीत पर हावी होता है। कई गायन शैलियां ऐसी हैं जिनकी धुनें  सीमावर्ती क्षेत्रों के लोकगीतों  के समान हैं, केवल बोली का अंतर है। ऐसी शैलियों पर गहन अध्ययन की अपेक्षा की जाती है।

शोधार्थी जिस भी विषय को लेता है, उससे संबंधित अन्य सूत्र भी साथ जुड़ते चले जाते हैं। ऐसे सूत्रों की उपेक्षा न करते हुए उन पर भी गहन अध्ययन शोध को संप्रभुता प्रदान करता है। कई विषय ऐसे हैं जहां  शोधकर्ता को उन्हीं के परिवेश में रह कर ही सभी पक्षों  की जानकारी मिलती है।

उदाहरण के लिए एक ब्रिटिश महिला पंजाब की ग्रामीण महिलाओं के जीवन स्तर, उनका लोकसंगीत तथा दिनचर्या, आर्थिक स्थिति तथा महिलाओं में प्रचलित लोकसंगीत का उनके व्यक्तित्व पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव आदि का अध्ययन करने भारत आई। वह लुधियाना के एक अत्यंत पिछड़े गांव में गई और वहां एक परिवार के घर-परिवार के सदस्य के रूप में लगभग दो वर्ष रही। वहां उसने पंजाबी भाषा बोलना, पढ़ना और लिखना भी सीखा। तभी वह स्तरीय काम कर पाई। उसी शोध परियोजना को आगे बढ़ाते हुए लंदन निवासी भारतीय महिला ने हिमाचल प्रदेश के पालमपुर के निकट बंदला गांव में एक घर लिया  और चार वर्ष तक वहीं रह कर शोध कार्य किया। बीच में कुछ समय के लिए वह लंदन जाकर अपने कार्य की प्रगति पर सेमिनार करती रही। इस प्रकार हिमाचल प्रदेश तथा पंजाब की महिलाओं के प्रचलित लोकसंगीत और अन्य विधाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया गया।

गंभीरता से विचार किया जाए तो लोकसंगीत के ऐसे अनेक अनछुए पहलू दृष्टिगत होते हैं जहां शोध कार्य की संभावनाएं हैं और आवश्यकता भी है। हिमाचल प्रदेश के शिमला जिला और सिरमौर जिले में दीपावली के एक महीने बाद आने वाली अमावस को बूढ़ी दिवाली त्योहार मनाया जाता है। इस अवसर पर शिमला जिले के ऊपरी क्षेत्र और कुल्लू जिले के निरमंड और उसके आसपास के क्षेत्रों  में  मनाई जाने वाली बूढ़ी दिवाली तथा सिरमौर जिले के शिलाई तहसील के एक गांव द्रविल और उसके आसपास के गांवों में यह त्योहार मनाया जाता है। बूढ़ी दिवाली मनाने की परंपरा उत्तराखंड के जौनसार बाबर क्षेत्र  में भी है। इन तीनों क्षेत्रों में बूढी दिवाली मनाने के पीछे भिन्न-भिन्न किंवदंतियां और मान्यताएं हैं। इसलिए इनके कथानक भी भिन्न हैं। अतः इसी विषय पर तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है। जहां  इस अवसर पर गाए जाने वाले गीत, नृत्य, वाद्य, रीति-रिवाज और त्योहार के अवसर पर बनाए जाने वाले विशेष पकवान, नर्तकों की वेशभूषा, आभूषण, वहां के स्थानीय देवी-देवता, उनसे जुड़े कार्यकलाप, मान्यताएं, रीति-रिवाज, विशेष गीत, नृत्य, वाद्य, उनकी वादन शैलियों  का अध्ययन प्राप्त हो सकेगा, वहीं इन दूरदराज के क्षेत्रों के विषय में वृहद जानकारी देश को मिल पाएगी।

ऐसी कई विधाएं हैं जिन पर शोध छात्रों ने कुछ कार्य किया है, लेकिन बहुत से पक्ष बहुधा छूट जाते हैं। उन पक्षों पर अध्ययन करना आवश्यक प्रतीत होता है। तभी उस विषय विशेष पर समग्र जानकारी प्राप्त हो सकती है। आज के बदले हुए परिवेश में कई संदर्भ अप्रासंगिक हो गए हैं, विशेष रूप से लोक नाट्यों की कथावस्तु।

उदाहरण के लिए करयाला लोकनाट्य में अभिनीत किए जाने वाले प्रहसन जैसे साधु का स्वांग अथवा साहब का स्वांग। इनमें आजकल की परिस्थिति के अनुसार समसामयिक विषयों पर प्रहसन होते हैं, जैसे बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ। साहब के स्वांग में अंग्रेजी साहब के स्थान पर आज के युवा वर्ग में  फैलती नशे की बुरी आदत  आदि ज्वलंत समस्याओं पर चुटकुले-प्रहसन प्रस्तुत किए जाते हैं। कथावस्तु बदलने से उसके अनुरूप ही पार्श्व संगीत भी बदल जाता है। ऐसे परिवेश में ही आधुनिक समय में शोध की संभावनाएं हैं।


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