समृद्ध एवं संपन्न है सिरमौरी लोकसाहित्य

By: आचार्य ओमप्रकाश ‘राही’ Dec 27th, 2020 12:08 am

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस नई शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी 12वीं किस्त…

आचार्य ओमप्रकाश ‘राही’

मो.-8278797150

कहने की आवश्यकता नहीं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है और संस्कृति उस दर्पण में झांकने का प्रयास। साहित्य एवं संस्कृति किसी भी राष्ट्र की जान एवं पहचान होते हैं। विस्तृत पटल पर न जाकर हम यहां सिरमौरी लोकसाहित्य की बात कर रहे हैं। लोकसाहित्य के लोकगीत, लोकगाथा, लोककथा, लोकनाट्य तथा सुभाषित इन पांचों भागों के दर्शन सिरमौरी लोकसाहित्य में बखूबी हो जाते हैं। सिरमौरी भावात्मक लोकगीतों में झूरी, झांगें, घुघतु गीत  आते हैं जिनमें झूरी शृंगारपरक गीत होकर प्रायः आर-पार की दो घासणियों में घास काट रहे घसारे-घसारियों या डंगर-पशु चरा रहे ग्वाले-ग्वालिनों द्वारा परस्पर अनुरागात्मक संवादपरक गीत होते हैं।

वर्णनात्मक गीतों में नाटियां और ‘साके’ आते हैं। बाबू जोगिंदर, नारदा, सुमित्रा, शावणी आदि इसी श्रेणी के गीत हैं। मनोरंजनपरक गीतों में हास्य प्रधान नाटियां, करयाल़ा, स्वांग गीत, शिठणे, ढकोसले आदि आते हैं। यथार्थ ऐतिहासिक बिंदु पर खड़ी कथाओं को लोकगाथा कहा जाता है। चार भागों में विभक्त इन गाथाओं में देवी-देवता संबंधी शिरगुल, रणसीवीर, पूरणभगत, गूगा जाहरवीर आदि धार्मिक गाथाएं हैं, जबकि पौराणिक एवं ऐतिहासिक गाथाओं में रमैण, देशू की हार, टीकरी, बिंची आदि गिनी जा सकती हैं। वीरगाथाओं में कमना, होकू, मदना, छीछा, सामा, दौलतु आदि और प्रेमगाथाओं में झीणिया, बणशूईटा, खशीया-कदारा आदि विभिन्न गाथाएं हैं। लोककथाओं के अंतर्गत सिरमौरी लोकसाहित्य में ऐतिहासिक, पौराणिक, धार्मिक, व्रतपरक, मनोरंजक, नीतिपरक, प्रेमपरक, पराक्रम संबंधी, पशु-पक्षी संबंधी, परियों तथा राक्षसों की कथाओं का उल्लेख  आता है।

 करयाल़ा, स्वांग आदि लोकनाट्य की श्रेणी में आते हैं जिनमें अभिनय तथा संवाद का मिश्रण रहता है और प्रकीर्ण या सुभाषित विधा के अंतर्गत सिरमौर के विशिष्ट मुहावरों, लोकोक्तियों तथा बुझावणियों को परिगणित किया जाता है। ‘हेब्बी इथे हेब्बी पार’ जैसी बुझावणियों में मनोरंजन और बुद्धिपरख रहती है जबकि ‘जोल़दी छानी रा कोड़वा सोई’, ‘नाव री चोंरी पूंछ रेय गोल़े’, ‘से जाणों ओसकोल़े जिंयो री जोल़ो पीठ’ जैसी लोकोक्तियों में अर्थगांभीर्य छिपा रहता है। अब यदि थोड़ी सी लोक साहित्य संरक्षण-संवर्धन की बात करें तो डा. रूपकुमार शर्मा ने जहां ‘सिरमौर दर्पण’ पुस्तक में इस ओर बेहतरीन प्रयास किया है, वहीं डा. खुशीराम गौतम द्वारा लिखित तथा 1992 में हिमाचल कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘सिरमौरी लोकसाहित्य’ में इसका विस्तृत विवेचन हुआ है और अकादमी द्वारा ही 2001 में प्रकाशित सोमसी विशेषांक ‘हिमाचल प्रदेश की लोकगाथाएं’ में सिरमौरी लोकगाथाओं को खूब अधिमान दिया गया है।

इस दिशा में सिरमौर की महान् हस्ती स्व. वैद्य सूरतसिंह तथा ‘पहाड़ी मृणाल’ आचार्य चंद्रमणि वशिष्ठ के योगदान को भी भुलाया नहीं जा सकता। वैद्य जी ने जहां अनेक लोकगीतों की रचना की जिन्हें आज भी खेत-खलिहान से लेकर आकाशवाणी तक गाया जाता है, वहीं पहाड़ी कलाकार संघ की स्थापना कर अनेक नाट्यशालाओं का आयोजन कर अनेक कलाकारों तथा संस्थाओं को तैयार किया। आचार्य वशिष्ठ जी ने भी प्रचुर मात्रा में पहाड़ी साहित्य सृजन कर ‘नोदी रे पाथर’ जैसी पुस्तकों की रचना से न केवल सिरमौरी लोकसाहित्य को पुष्ट किया, बल्कि सिरमौर कला संगम की स्थापना कर लोकसाहित्य संरक्षण की दिशा में अनेक कार्य किए और ‘करयाल़ा प्रशिक्षण संस्थान’ की स्थापना कर इस लोकनाट्य विधा को संरक्षित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

वर्तमान में भी विद्यानंद सरैक जैसे अनेक वरिष्ठ तथा कनिष्ठ साहित्यकार इस दिशा में प्रयत्नशील हैं। प्रसिद्ध साहित्यकार गौतम शर्मा व्यथित से प्राप्त जानकारी के अनुसार 1956 में रामदयाल नीरज के संपादकत्व में हिमाचल की लोकगाथाएं पुस्तक प्रकाशित हुई थी जिसमें सिरमौर की परंपरित लोकगाथाओं, हारों-हारुलों का हिंदी अनुवाद सहित किया गया प्रकाशन और अभी 2019 के अक्तूबर-दिसंबर के इसी पत्रिका के सिरमौर विशेषांक में सिरमौरी लोकगीतों, नाटियों, हारुलों, करियाला आदि की जानकारी इस दिशा में किए गए महत्त्वपूर्ण प्रयास हैं।

हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी ने आजकल अपने एक विशेष कार्यक्रम में जिस प्रकार प्रथम अक्तूबर को सिरमौरी लोकसाहित्य तथा 10 नवंबर के पहाड़ी भाषा साहित्य के अंतर्गत सिरमौरी साहित्य को जनसाधारण के समक्ष लाने का श्रेयस्कर कार्य किया है तथा अपनी सोमसी व हिम भारती जैसी पत्रिकाओं द्वारा भी इस दिशा में प्रयत्नशील है, निःसंदेह यह प्रशंसनीय है। इस प्रकार हम देखते हैं कि लोकसाहित्य के सभी भागों को समाहित करते हुए सिरमौरी लोकसाहित्य स्वयं में पर्याप्त समृद्ध एवं संपन्न है और इसके संरक्षण-संवर्धन की दिशा में भी संतोषजनक प्रयास जारी हैं।

विमर्श के बिंदु

मो.- 9418130860

अतिथि संपादक ः डा. गौतम शर्मा व्यथित

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -12

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

लोकगायन में प्रतिबिंबित साहित्य

शिवा पंचकरण

मो.-8894973122

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘लोकगीतों में धरती गाती है, पर्वत गाते हैं, नदियां गाती हैं, फसलें गाती हैं। उत्सव, मेले और अन्य अवसरों पर मधुर कंठों में लोक समूह लोकगीत गाते हैं।’ साहित्य की सीमा नहीं होती, किसी न किसी तरह हर लौकिक-पारलौकिक वस्तु से साहित्य का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध बन जाता है या यूं कहना उचित होगा कि साहित्य सबसे अपना रिश्ता खोज लेता है। किसी देश के जातीय, राष्ट्रीय, साहित्यिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, धार्मिक एवं आर्थिक मापदंड के लिए यदि कोई पैमाना हमारे पास है तो वह उस देश का लोकसाहित्य ही है। सभ्यता और लोक संस्कृति का वास्तविक स्वरूप लोकसाहित्य में ही देखने को मिलता है। लोकसाहित्य की ही शाखा लोकगायन की भी प्राचीन परंपरा है। प्रत्येक समाज में मनुष्य ने अपने या समाज के मनोरंजन के लिए लोकगीत, लोकनाट्य, लोकगाथाएं आदि साधन बनाए हैं। इनका मनुष्य अकेले या किसी विशेष उत्सव, त्योहार आदि अवसरों पर प्रयोग करते हैं। ऋग्वेदों में जो संवादसूक्त है, वह एक प्रकार से लोकगायन ही है। लोकगायन की परंपरा मौखिक है।

अक्सर लोकगायन को अनपढ़ और पिछड़े समाज के मनोरंजन का साधन समझने की भूल आधुनिक समाज द्वारा की जाती है, लेकिन गौर से देखने पर हम पाते हैं कि लोकगायन किसी पिछड़े समाज का नहीं, अपितु अपने आप में पढ़े-लिखे सभ्य समाज की समझदारी और अहंकार रहित पांडित्य की तस्वीर है। प्राचीन साहित्य में हर बात का उत्तर खोज पाना संभव नहीं होता, लेकिन लोकगीतों, लोकगाथाओं के माध्यम से समाज ने जाने-अनजाने कई भूली-बिसरी यादों को जीवित रखा होता है। किसी समय आधुनिकता से वशीभूत  कुछ समाज जहां लोकगायन को केवल गांव का मनोरंजन समझ कर इन कृतियों से मुंह फेरने में शान समझता था, लेकिन आज इसके विपरीत वही समाज किसी ऐतिहासिक खोज में प्रश्नों के उत्तर खोजने हों, तब लोक की ओर देखते हुए कड़ी से कड़ी जोड़ने का प्रयास करता है। राम-कृष्ण की कथाएं जितनी महाभारत-रामायण में हैं, उससे ज्यादा उनका जिक्र लोकगायन में आता है। आज भी महिलाएं किसी बच्चे के जन्म पर लोकगीत गाती हैं तो कृष्ण के साथ जोड़ते हुए आम समाज को कृष्ण के जन्म से रूबरू करवाती हैं।

 कई लोकगीतों में श्री कृष्ण का वर्णन मिलता है। उनके जन्म से जुड़ी कई कथाओं का वर्णन लोकगीतों के माध्यम से हमें प्राप्त होता है। अकबर ज्वालाजी के मंदिर में आया या नहीं, इस बात पर कई लोगों में मतभेद हो सकता है, लेकिन आज भी लोकगायन में हम सुन पाते हैं कि ः ‘नंगी नंगी पैरी माता अकबर आया, सोने दा छत्र चढ़ाया।’ यह इस बात की पुष्टि करता है कि अकबर कभी न कभी हिमाचल आया होगा। ज्यादा दूर न जाते हुए अगर हम वजीर राम सिंह पठानिया जैसे शूरवीर की ही बात करें तो उन्हें आज भी लोगों की स्मृतियों में जीवित रखने का बहुत बड़ा योगदान लोकगायन का है। ऋतु गीत से लेकर विवाह के लोकगीतों का अध्ययन करने पर हमें भूतकाल की संस्कृति, आम समाज को जानने, लोगों के तत्कालीन भावों को समझने में आसानी होती है। सुबह या ‘तड़के’ में गाने वाला एक लोकगीत ः ‘हे मेरी राधिके, उट्ठी ने भिततां गुहाड, उट्ठण वेलां हो रईयां।’ या ‘ढोलरू’ के साथ चैत्र मास का आगमन, इस तरह के लोकगीतों में समय, ऋतु, मौसम, मास आदि के बदलते रूप को आनंद के साथ लोग मिल कर साझा करते थे। सिरमौर की ‘हारें’ और बिलासपुर, मंडी व कांगड़ा के ‘झेड़ों, बारो’ में वीर राजाओं व वीर पुरुषों की गाथाओं का गायन किया जाता है। ऐंचलियों में शिबीणी, शिव-विवाह, रमैणी, राम-विवाह आदि के प्रसंगों का वर्णन, नुआल़ा जो विशेष रूप से गद्दी समुदाय में प्रचलित है, उसमें भगवान शिव की लीलाओं का वर्णन होता है। पग-पग पर साहित्य की डोरी को थामे ये लोक संस्कृति के ध्वजवाहक ही तो हैं। इन सब को साहित्य न कहें तो क्या नाम दें?

 अगर यह साहित्य का रूप नहीं, तो क्या है? अलग-अलग दिशा से देखने पर इनका रूप भिन्न लग सकता है, लेकिन अंत में यह भी साहित्य का ही एक प्रकार है, जिसका अपना एक रंग नहीं, अनेक रंग हैं, जिनको देखने, जानने की समझ अपेक्षित है। आज डिजिटल दौर में हर चीज़ को संरक्षित करना, सारे समाज तक पहुंचाना आसान है। उससे पहले तक यह जिम्मा किताबों द्वारा ज्यादा संभाला जाता था, लेकिन आज भी जन-जन तक समाज की कई उपलब्धियां जो कालांतर में किताबों में से लुप्त हो जाती हैं, समाज को विस्मृत हो जाती हैं, उन्हें लोकगायन वाचिक परंपरा में संभाल कर रख लेता है। दादी की पोटली में जिस प्रकार हर मर्ज की दवा रहती है, उसी प्रकार समाज ने भी किसी न किसी तरह से अपने हृदयों में इस बेशकीमती साहित्य को संजो कर रखा है। इतने बड़े खजाने को बिना समझे व्यर्थ कह देना शायद खीर को बिना खाए कड़वा कह देने जैसी बात होगी। लोक और साहित्य का उद्भव एक साथ होता है जो गंगा-जमुना की भांति एक साथ सागर में विलीन होते हैं। प्राचीन समय में जब मनोरंजन के साधनों का अभाव था, तब अति प्राचीन काल में लोकगीतों के साथ ही लोक नाट्य का भी उद्भव हुआ होगा।

 बिलासपुर में होने वाले ‘धाज्जा’ का उद्देश्य मनोरंजन ही होता है, लेकिन उसके साथ-साथ इसमें समाज के  ठेकेदारों, साहूकारों, बाबुओं आदि का व्यंग्यात्मक ढंग से चित्रण भी किया जाता है। कांगड़ा का भगत, मंडी का बांठड़ा, शिमला का करियाला आदि एक जैसे ही होते हैं, लेकिन कभी-कभी समय और क्षेत्र के अनुसार इनमें कुछ परिवर्तन भी कर लिए जाते हैं। रोहड़ू और जुब्बल क्षेत्र में प्रसिद्ध ‘बुडा सीह’ में उस क्षेत्र के प्रसिद्ध राणा की शौर्य गाथा को दिखाया जाता है। सिरमौर का ठोडा नृत्य एक प्रकार का युद्ध नृत्य है। तलवार के साथ किया जाने वाला कुल्लू का खड़यातर नृत्य वीररस से भरा हुआ होता है। केवल मनोरंजन की दृष्टि से ये रत्न आम लग सकते हैं, किंतु इनमें साहित्य का भंडार छिपा होता है। किसी शास्त्रीय नियमों की विशेष परवाह न करते हुए सदियों से लोकगायन चल रहा है। लोकगायन ही लोक संस्कृति को सजीव बनाए रखता है और नई पीढ़ी को संप्रेषित करता है। यहीं से परंपराओं का जन्म होता है। प्राचीन से लेकर आधुनिक युग के सामाजिक व्यवहार के चित्रों को समाज द्वारा लोकगायन के माध्यम से जिंदा रखा गया है।

पुस्तक समीक्षा

जीवंत लघुकथाओं का संग्रह

हिंदी साहित्य की कहानी, कविता, उपन्यास, लघुकथा, नाटक, निबंध, आलोचना, यात्रा वृत्तांत, संस्मरण, बाल साहित्य आदि विधाओं में लघुकथा भी वर्तमान समय में पाठकों का समुचित ध्यान आकृष्ट करती प्रतीत हो रही है। लघु आकार में होने के बावजूद लघुकथा अपनी विधागत साहित्यिक परिपूर्ण दृष्टि से हिंदी साहित्य जगत में पर्दापण कर चुकी है। पूर्णकालिक लघुकथाकार न होते हुए भी विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं  में आए दिन प्रकाशित हो रही लघुकथाओं से हिमाचल के रचनाकारों ने न केवल अपनी समुचित उपस्थिति दर्ज कराई है, अपितु कई लघुकथाओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद करके अपनी लेखनी का परचम लहराने का प्रयास जारी रखा है। समीक्षित कृति ‘मेरे हिस्से की धूप’ ऐसे ही अनेक पुरस्कारों से सुशोभित कहानीकार, हिमाचल प्रदेश के सोलन जनपद के नालागढ़ निवासी अदित कंसल का प्रथम लघुकथा संग्रह है जिसमें 61 प्रसिद्ध लघुकथाओं का संकलन है। लेखक की लघुकथाएं विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में काफी अरसे से प्रकाशित हो रही हैं। अपने पूजनीय माता-पिता को समर्पित इस कृति की भूमिका प्रसिद्ध साहित्यकार एवं पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी कमलेश भारतीय ने लिखी है जिसमें उन्होंने लेखक को विष्णु प्रभाकार का नाती होने व उनसे लेखकीय गुर सीखने की बात कही है।

 कृति नामकरण इसी संग्रह की अंतिम लघुकथा ‘मेरे हिस्से की धूप’ से करना बिल्कुल सही प्रतीत होता है। अधिकतर लघुकथाओं के पात्र, घटनाएं, समयकाल काल्पनिक नहीं, जीवंत लगते हैं। रचनाओं में गंभीरता, सूक्ष्मता, यथार्थपरकता के गुण विद्यमान हैं। इस संग्रह में कर्त्तव्य बोध, रिश्तों की तारतम्यता, आंतरिक तार्किक दूरदर्शी सोच, खीझ, संवादहीनता, हताशा, कुंठा, परिवर्तनशील समय, संस्कारों का पतन, पूर्व नियोजित अवधारणा, विरोधाभास पर लेखनी चलाई गई है। सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, राजनीतिक बिंदुओं को भी स्पर्श करने का प्रयास किया गया है। अन्य लघुकथाओं सहित घमंड, बदलते समीकरण नामक सात-आठ लाइनों की लघुकथाओं में भी संप्रेषणीयता, वैचारिक परिपक्वता व रोचकता देखते ही बनती है। लेखक का प्रथम प्रयास प्रशंसनीय है। संग्रह का चित्रांकन व मुद्रण सुरुचिपूर्ण व पाठ्यवस्तु त्रुटिरहित है। अस्वाभाविकता, अतिरेक, अतिरंजना व अधिक विस्तार से बचने का समुचित प्रयास किया गया है। लघुकथा व शार्ट स्टोरी के अंतर को बखूबी समझते हुए लेखनी चलाना इस लघुकथा संग्रह की सफलता की कहानी है। लेखकीय श्रम, रूप सज्जा के दृष्टिगत मूल्य एक सौ पच्चीस रुपए उचित प्रतीत होता है।

-रवि कुमार सांख्यान, बिलासपुर

पंछी के माध्यम से भावों की अभिव्यक्ति

‘पंछी उड़ते नहीं अकेले’ काव्य संग्रह के लेखक बिलासपुर निवासी जय कुमार हैं। इस काव्य संग्रह में 167 रचनाएं हैं। जिनमें लेखक ने जीवन के विभिन्न रंगों को सहजता से कविता के रूप में ढालने का भरपूर प्रयास किया है। इनमें कुछ रचनाएं मधुवन-मधुवन फूल खिले, पता मेरी गली का, रंग भर दिया, नींद नहीं आई रात भर, कलियों ने दर्द उभारे हैं, दीपक रोज जलाना तुम, चांद निकल आया आंगन में, चंपा की डाली, पंछी उड़ते नहीं अकेले, घिर आए बादल यादों के, पंछी छोड़ गया है गांव, कोयल कुहुक गई अंगना रे, सरसों का पीला रंग, भोर होगी फिर सुनहरी, बुझा हो मन, पर तुम नहीं आए, जीवन आसान बना लूंगा, रोको मन को, रिमझिम बरसे नेह, घाव अपनों के दिए हैं, सैनिक की पत्नी को पाती, देखा है मैंने पर्वत को अंगड़ाई लेते, मनन तड़पता है, मंजिल का भेद निराला है, अब जाग उठो सब श्रमवासी, तीन शब्द चित्र, आंगन में तोता, मन की शांति आदि में लेखक ने फूलों की महक, पक्षियों की चहचहाट और यादों के झरोखों से लेकर मन के भावों को एक सूत्र में पिरोने का प्रयास किया है। जिसे पढ़कर पाठकों को जिंदगी के वो लम्हें जरूर याद आएंगे जो कभी धूप और छांव की तरह उन्होंने व्यतीत किए होंगे।

 इस पुस्तक में लेखक ने प्रकृति की हरियाली को बखूबी से दर्शाया है। मेघों के बरसने से एक विरहा के मन का दर्द और जीवन के आवश्यक अनुभवों को लेखक ने सुंदर भाव से प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक का मूल्य 250 रुपए है और इसमें 168 पन्ने हैं। आशा है कि यह पुस्तक पाठकों को जरूर पसंद आएगी। सैनिक की पत्नी को पाती, यह वह कविता है जिसके माध्यम से एक सैनिक की पत्नी के मनोभावों को व्यक्त किया गया है। अन्य कविताएं भी रसास्वादन में सफल रही हैं। लेखक को कविता संग्रह प्रकाशित करने के लिए बधाई है।

– लता शर्मा


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