टूटे पुलों की विरासत

By: सुरेश सेठ Dec 3rd, 2020 12:06 am

सुरेश सेठ

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अजरुन निहत्था हो तो क्या, वह अपने अचूक निशाने से मछली की आंख बींध सकता है। हमने चक्रव्यूह तोड़ते हुए अभिमन्यु को महारथियों को घेर कर मार दिए जाने की कहानी सुनी है। उसने अपनी मां के पेट में रहते हुए पिता से चक्रव्यूह में घुसने की कला तो जानी थी, लेकिन इससे पहले कि वह उसे तोड़ कर कैसे निकलना है जान पाता, मां को नींद आ गई। तब अभिमन्यु को महारथियों ने घेर लिया, वह खेत रहा। आजकल अजरुन के धणुष की प्रत्यंचा पर आदर्शो का माझा नहीं, सिफारिश और भाई-भतीजावाद का तेवर है, कोरे भाषणों की नाटकीयता है। लक्ष्य बेधने के लिए केवल नारे उछलते हैं। ऐसे माहौल में मंदी के अंधेरे गहराते जा रहे हैं, भला इसमें अपना लक्ष्य बेधने के लिए अजरुन को मछली की आंख कैसे नज़र आ जाती? आजकल नेकी और बदी के महाभारत नहीं सजते। महारथियों के सिर पर वंशवाद के ताज सज गए हैं। उनके हाथों में सेवा से पहले मेवा पाने का ब्रतास्त्र है। ऐसे महारथियों को घेरने के लिए आज के अजरुनों के पास न तो इन पूंजीपतियों के लौह कपाटों से घिरे चक्रव्यूहों में घुसने और न ही तोड़ कर निकल जाने की विद्या है।

आज का अजरुन तो इस चतुर विद्या में सफलता के महामंत्र के पास भी नहीं फटकता। वह भला अपने बेटे को उसकी मां के गर्भ में रहते-रहते चक्रव्यूह तोड़ने की अधूरी विद्या ही कैसे सिखा दे? निहत्था अजरुन अपने महाभारत के मैदानों को हवाई मीनारों  में तब्दील होते देख रहा है। इनके गुप्त द्वारों को खोलने की कोई विद्या उनके किसी गुरु ने उन्हें नहीं सिखाई। उसका बेटा जब तक विद्यालयों में जा अपनी पैतृक विद्या सीख पाता, वहां दी जा रही शिक्षा पुरातन पंथी घोषित की जा चुकी थी। वहां किसी काबिल नई शिक्षा नीति के बनने का इंतजार अवश्य हो रहा था, लेकिन उसे बनाने वाले विद्वान खुद ही इतने नाकाबिल थे कि अपनी खींचतान में कोई शिक्षा नीति तो क्या पेश करते, उससे पहले भाषा के माध्यम पर ही उलझ पड़े। अब आलम यह है कि पौन सदी की इस आज़ादी में अपने लिए कोई नई कमीज़ तो वे सिल न सके, उधार की कमीज़ को ही अपना बता उस पर इतराते रहे हैं, एक-दूसरे पर पिल पड़े हैं। होता है तमाशा दिन-रात मेरे आगे के अंदाज़ में ये स्कूल और कालेज इतने बरस तक उन्हें ऐसे सफेद कालर वाले बाबू बना कर उनके जीवन सफ़र में भेजते रहे कि जिनके पास अकेला गुण जी हजूरी या ठकुरसुहाती का था।

अब जब नए तरीके से लड़ाई लड़ने की बारी आई, तो आज के अजरुन निहत्थे थे और नई पीढ़ी के अभिमन्यू चक्रव्यूह में घुसने का अधूरा ज्ञान भी नहीं रखते थे। दो कदम चलने के लिए भी उन्हें विदेशी महारथियों के बहुराष्ट्रीय कम्पनियों जैसे रथों की चाहत थी। बैसाखियां मिल गई हैं क्योंकि उनके देश में सहारा मांगने वालों का आंगन बहुत बड़ा था। ऐसे आंगन के कौन न नकारे? चार सदी पहले ईस्ट इंडिया कम्पनी के बंजारों ने यहां के दीवालिया बादशाहों के सामने कार्निश बजाई थी, अब सरकारी उपक्रमों में विनिवेश के भस्मासुर के सहारे देश की मंडियों के आयातित सरताज उभर आए हैं। ये लोग किसी देश या बस्ती को गुलाम नहीं बनाते, बस अपनी बाज़ार संस्कृति की बेडि़यां पहना देते हैं। अब बताइए आज का अजरुन कहां शरसन्धान करने जाए? नई पीढ़ी के अभिमन्यू किससे चक्रव्यूह में घुसने का गुण सीखें।


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