परंपरागत खेती अब बीते ज़माने की बात

By: सूत्रधार— जितेंद्र कंवर, सूरत पुंडीर ,अनिल पटियाल, सौरभ शर्मा, मोहर सिंह पुजारी, प्रतिमा चौहान Dec 30th, 2020 12:08 am

हिमाचल प्रदेश का प्रमुख व्यवसाय खेती है। यह राज्य की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह 69 प्रतिशत कामकाजी आबादी को सीधा रोजगार मुहैया करवाती है। कृषि और उससे संबंधित क्षेत्र से होने वाली आय प्रदेश के कुल घरेलू उत्पाद का 22.1 प्रतिशत है। अहम सवाल यह है कि परंपरागत खेती के लिए मशहूर हिमाचल में क्या अब भी खेती के वही मायने हैं। तिलहन-दलहन-बाजरे की जगह क्या किसी और ने ले ली है। वर्तमान में किसान क्यों परंपरागत खेती से मुंह मोड़ने लगे हैं। अब क्या खेती सिर्फ कमाई का जरिया बनकर रह गई है। तीन दशक में कितनी बदली हिमाचल की खेती और इसके तौर-तरीके… इन सवालों के जवाब के साथ पेश है दखल भाग-2

हिमाचल में कुल भौगोलिक क्षेत्र 55.673 लाख हेक्टेयर में से नौ लाख 59 हजार 223 हेक्टेयर भूमि के स्वामी 9.14 लाख किसान हैं। मंझोले और छोटे किसानो के पास कुल भूमि का 86.4 प्रतिशत भाग है। राज्य में कृषि भूमि केवल 10.4 प्रतिशत है। लगभग 80 प्रतिशत क्षेत्र वर्षा-सिंचित है और किसान इंद्र देवता पर निर्भर रहते हैं। हिमाचल में 1951-52 में चावल महज 28 हजार टन होते थे, जो 2017-18 में 1745 हजार मीट्रिक टन हो गया है। धान में यह आंकड़ा इस अवधि के दौरान 67 हजार मीट्रिक टन था, जो अब 644 हजार मीट्रिक टन है। इसी तरह गेहूं 61 से 670 हो गया है। सब्जी की पैदावार 1951 में 25 हजार मीट्रिक टन थी, वह अब 1691 हजार मीट्रिक टन हो गया है।

प्राकृतिक खेती से जुड़े 96 हजार

प्रदेश के 96 हजार किसान प्राकृतिक खेती के साथ जुड़े हुए हैं। इसमें किसान व बागबान दोनों वर्गों के किसान शामिल है। अहम यह है कि 96 हजार प्राकृतिक  खेती करने वाले किसानों में से 92 हजार 316 किसानों को ट्रेनिंग भी दी गई है। विभाग के आंकड़ों के अनुसार हिमाचल में 52.08.12 हेक्टेयर भूमि में प्राकृतिक रूप से फल सब्जियां व अन्य खाद्य वस्तुएं उगाई जा रही हैं।

हिमाचल में घटती जा रही कृषि भूमि

हिमाचल प्रदेश में धीरे-धीरे कृषि भूमि घटती जा रही है। वर्तमान में राज्य में नौ लाख 59 हजार 223 हेक्टेयर भूमि पर खेतीबाड़ी हो रही है। हर साल कई हेक्टेयर भूमि खेतीबाड़ी योग्य भी खराब हो रही है। हिमाचल में 55 हजार 754 हेक्टेयर भूमि खेतीबाड़ी योग्य नहीं है। पांच लाख 47 हजार 556 हेक्टेयर भूमि पर बिजाई हो रही है। वहीं, चार लाख 11 हजार 667 हेक्टेयर भूमि पर एक से ज्यादा फसलों की उगाई हो रही है। राज्य में बंजर एवं कृषि के लिए अनुपयोगी भूमि सात लाख 78 हजार 998 हेक्टेयर है। इसके अलावा गैर कृषि कार्यों के लिए आरक्षित भूमि तीन लाख 52 हजार 407 हेक्टेयर है। स्थायी चरागाह एवं अन्य चरगाह भूमि 15 लाख सात हजार 965 हेक्टेयर है। इसके साथ ही विविध कृषि वन फसलों के तहत भूमि 66 हजार 595 हेक्टेयर है। वहीं, कृषि वाली बंजर भूमि एक लाख 21 हजार 714 हेक्टेयर है। हिमाचल में एक से ज्यादा बार बोया गया क्षेत्र नौ लाख 59 हजार 223 हेक्टेयर है।

अभी किसी को भी जीआई टैग नहीं

प्रदेश में बहुत से ऐसे उत्पाद हैं, जिनकी पहचान हिमाचल से ही होती है, लेकिन अभी तक राज्य में किसी भी उत्पाद को यह टैग नहीं दिया गया है। हिमाचल का सेब, चावल, मक्की, चैरी, व कई ऐसे खाद्य उत्पाद हैं, जो केवल हिमाचल में ही उगाए जाते हैं। बावजूद इसके अभी तक राज्य के किसी भी उत्पाद पर जियोग्राफिकल टैग नहीं लगा है। अगर जियोग्राफिकल टैग किसी उत्पाद पर लग जाता है, तो ऐसे में हिमाचल को एक अलग पहचान मिलेगी। भौगोलिक संकेत एक नाम या निशान होता है, जो किसी निश्चित क्षेत्र विशेष के उत्पाद, कृषि, प्राकृतिक और निर्मित उत्पाद (मिठाई, हस्तशिल्प और औद्योगिक सामान) को दिया जाता है।  भौगोलिक संकेत एक नाम या निशान होता है, जो किसी निश्चित क्षेत्र विशेष के उत्पाद, कृषि, प्राकृतिक और निर्मित उत्पाद को दिया जाने वाला एक स्पेशल टैग है। ये स्पेशल क्वाइलिटी और पहचान वाले उत्पाद हैं, जो किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले को दिया जाता है।

 जिस किसी क्षेत्र को यह टैग दिया जाता है, उसके अलावा किसी और को इस नाम को इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं होती है। इस टैग को जियोग्राफिकल इंडिकेशन ऑफ गुड्स एक्ट, 1999 के तहत जियोग्राफिकल इंडिकेशन रजिस्ट्री द्वारा दिया जाता है, जो कि उद्योग संवर्धन और आंतरिक व्यापार विभाग, वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के द्वारा दिया जाता है। पूरे देश में अभी तक 361 प्रोडक्ट पर ही जियोग्राफिकल टैग लगाया गया है।

करसोग के कुल्थ, चंबा की चुख, पांगी की ठांगी कतार में

हिमाचल के किसी भी उत्पाद पर अभी जियोग्राफिकल इंडैक्स टैग नहीं लगा है। हालांकि राज्य के तीन उत्पाद, जिसमें करसोग की कुल्थ दाल, चंबा की चुख, पांगी की ठांगी पर जीआई टैग लगाने की बात चल रही थी, लेकिन अभी तक केवल यह प्रोपोज ही हुआ है। ये तीन उत्पाद सबसे ज्यादा मशहूर हैं, वहीं देश-विदेशों में भी ये दालें बेची जाती हैं। यही वजह है कि राज्य के किसान इन तीन उत्पादों पर जियोग्राफिकल टैग लगाने की मांग कर रहे है।

जंगली जानवरों ने छुड़वाई जिला ऊना की खेती

कृषि प्रधान जिला ऊना में मुख्यतः गेंहू व मक्की की फसल उगाई जाती है। इसके अलावा किसान गन्ना, आलू, अदरक, हल्दी सहित नकदी सब्जियां भी उगाते हैं, लेकिन समय के साथ-साथ व आवारा व जंगली जानवरों के आंतक के चलते किसान अब खेतीबाड़ी से विमुख हो रहे हैं। हालांकि जिला ऊना के एक चौथाई हिस्से पर खेती की जाती है। जिला में शुद्ध बिजाई के तहत 40503 हेक्टेयर क्षेत्र आता है, जबकि 18165 हेक्टेयर वन, 22763 हेक्टेयर बंजर व बिना खेती के क्षेत्र तथा 13427 हेक्टेयर घासनी व चरागाहे आती है। ऊना जिला की 521057 जनसंख्या में से 70 प्रतिशत से अधिक कृषि पर निर्भर है, लेकिन अब इनके लिए खेती के जरिए अपना व परिवार का लालन-पोषण एक कड़ी चुनौती बन गया है। जिला ऊना में बंगाणा, चिंतपूर्णी व हरोली के बीत क्षेत्रों में सर्वाधिक जंगली जानवरों, विशेषकर बंदरों की समस्या है, वहीं यहां सिंचाई के साधन भी सीमित हैं। बंगाणा ब्लॉक के तहत रायपुर, थानाकलां व अन्य गांवों में किसानों ने गेहूं, मक्की की परंपरागत खेती बंद कर दी है। कुछ किसान अंब अदरक व हल्दी की खेती कर रहे हैं, जबकि कई लोगों ने तो कृषि से तौबा करते हुए सरकारी व प्राइवेट क्षेत्रों में नौकरी को अधिमान देना शुरू किया है।

अंब उपमंडल के कई गांवों अकरोट, प्याई, जुवैहड़, चकसराएं, रिपोह-मिसरां, मसलाणा, अंब टिल्ला, लौहारा, चवार, ज्वार, पतैहड़, नैहरियां खालसा, टकारला व अन्य गांवों में किसान खेती से विमुख हुए हैं। ऊना जिला के 80 हजार के करीब परिवारों में से 70 प्रतिशत से अधिक कृषि पर निर्भर करते हैं। जिला में हर साल करीब 30 हजार हेक्टेयर भूमि पर गेहूं, 22 हजार हेक्टेयर पर मक्की, 2500 हेक्टेयर पर धान, 750 हेक्टेयर पर दालें, 1250 हेक्टेयर पर तिलहन, 1500 हेक्टेयर पर सब्जियां और करीब 200 हेक्टेयर पर गन्ने का उत्पादन किया जाता है। इसके अलावा 1600 हेक्टेयर भूमि पर आलू की फसल भी लगा रहे हैं। जिला में बड़े पैमाने पर बागबानी भी की जा रही है। ऊना में किन्नू, आम, नाशपाती इत्यादि फलों का उत्पादन होता है। उपनिदेशक डा.अतुल डोगरा की मानें, तो कृषि विभाग किसानों को हरसंभव मदद मुहैया करवा रहा है। किसानों को सबसिडी पर बीज, खाद सहित अन्य कीटनाशक उपलब्ध करवाए जा रहे हैं।प्रदेश सरकार ने किसानों के उत्थान के लिए विभिन्न स्कीमें चला रखी है। जिला ऊना में मौजूदा समय में किसान गेंहू, मक्की की बिजाई कर रहे हैं।

पहले चना, तिलहन, बाजरा उगाते थे किसान

जिला ऊना में तीन दशक पहले किसान परंपरागत खेती में गेंहू, मक्की, चना, तिलहन व बाजरे की खेती करते थे। हालांकि उस समय फसलें बारिश पर ही निर्भर करती थी, लेकिन अब खेतों में सिंचाई सुविधा भी उपलब्ध है। समय बीतने के साथ-साथ किसान अब केवल गेहूं व मक्की की बिजाई कर रहे हैं। आवारा पशुओं के आंतक के चलते भी कई किसानों ने खेतीबाड़ी से मुंह मोड़ लिया है।

प्राकृतिक खेती अपना रहा बिलासपुर

जिला बिलासपुर में अब किसान रासायानिक खेती से किनारा ही करने लगे हैं। करीब तीन दशक पहले हालांकि रासायानिक खेती का ही बोलबाला था, लेकिन अब अधिकतर किसान रासायानिक खेती को छोड़कर प्राकृतिक खेती अपना रहे हैं। जैसे ही रासायानिक खेती से उत्पादों को नुकसान दिखने लगा, वैसे ही जिला के किसानों ने प्राकृतिक खेती अपनानी शुरू कर दी। हालांकि अभी तक जिला में तीन हजार किसान प्राकृतिक खेती कर रहे हैं। ये किसान 150 हेक्टेयर भूमि पर प्राकृतिक खेती कर रहे हैं। वहीं, इस वर्ष में तीन हजार और किसनों को प्राकृतिक खेती से जोड़ा जाएगा, जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि किसान अब प्राकृतिक खेती अपना रहे हैं। चालू वर्ष में ही 145 हेक्टेयर जमीन पर प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया जाएगा।

 प्राकृतिक खेती को लेकर हर किसान को जागरूक करने के लिए पंचायत स्तर तक इस बार जागरूक किया जाएगा। करीब तीन दशक पहले भी किसान गेहूं, मक्की, धान, दलहन, तिलहन, चने, माह, अरहर दाल, मटर, मसर और रौंगी के अलावा अन्य सब्जी उत्पादों की खेती करते थे, लेकिन इनमें से कई उत्पाद अब गायब हो चुके हैं। जंगली जानवरों और आवारा पशुओं का बढ़ रहा आतंक भी इसमें कारण माना जा रहा है। हालांकि कई किसान ऐसे हैं, जो इन गायब हुए उत्पादों को शौकिया तौर पर ही उगाते हैं, लेकिन वर्तमान में केवल गेंहू, मक्की के अलावा अन्य सब्जी उत्पादों को ही किसान प्राथमिकता दे रहे हैं। अब मौसम के आधार पर फसलों को उगाने बारे में किसानों को प्रशिक्षित किया जा रहा है। रबी की फसल में गेंहू के साथ चना, मटर, मसर व सरसों उगाने तथा खरीफ की फसल के साथ माह, मूंग, रौंगी की खेती की बिजाई करने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जा रहा है।

पहले किसान रासायानिक खेती को प्राथमिकता देते थे, लेकिन अब प्राकृतिक खेती की ओर अग्रसर हो रहे हैं। किसानों को इसके के लिए जागरूक भी किया जा रहा है। गेंहू के साथ चना, मटर, मसर व सरसों उगाने के लिए किसानों को प्रेरित किया जा रहा है। किसानों से अब शून्य लागत खेती भी करवाई जाएगी —डा. देशराज शर्मा, डिप्टी डायरेक्टर, आतमा परियोजना

कुल्लू से लगभग विलुप्त ही हो गया कोदरा

बदलते समय के साथ कुल्लू के किसान भी अब खेती में बदलाव ला रहे हैं। भले ही प्राकृतिक खेती की तरफ किसानों का रुझान बढ़ता जा रहा है, लेकिन इस रुझान को अभी वक्त लगेगा, क्योंकि कुल्लू जिला ने परंपागत अनाजों को खो दिया है। अब कई अनाज ढूंढे नहीं मिल रहे। जिला में परंपरागत फसलों का उत्पादन पिछले कई सालों से घट गया है। जिले में दस साल पहले गेहूं की खेती 24000 हेक्टेयर भूमि पर होती थी, लेकिन अब यह 12000 हेक्टेयर पर सिमट कर रह गई है। वहीं, कोदरा की खेती साढ़े तीन दशक पूर्व 5000 हेक्टेयर भूमि पर हुआ करती थी। 19 पौष्टिक तत्त्वों और प्रचूर मात्रा में कैल्शियम प्रदान करने वाले कोदरा की खेती लगभग विलुप्त हो गई है। यही नहीं, परंपरागत खेती में कोदरा, सियारा, मक्की और गेहूं जैसी फसलों को किसान कम उगा रहे हैं। कृषि-बागबानी के लिए मशहूर जिला कुल्लू के किसानों का रुझान परंपरागत फसलों के बजाय सब्जी उत्पादन की ओर लगातार बढ़ रहा है।

 इसका अंदाजा पिछले दो दशकों में बढ़े सब्जी उत्पादन क्षेत्रफल से लगाया जा सकता है। वर्ष 1990 से लेकर 1995 तक जहां सब्जी उत्पादन क्षेत्रफल मात्र 300 हेक्टेयर था, लेकिन अब सब्जी उत्पादन क्षेत्रफल सात हजार हेक्टेयर तक जा पहुंचा है। लहसुन उत्पादन की भी अच्छी खासी स्थिति मानी जा रह हैं। लहसुन के साथ-साथ टमाटर, फूल गोभी, बंद गोभी, मटर, बैंगन, भिंडी आदि सब्जियों का अच्छा खासा उत्पादन हो रहा है, जिससे किसान अच्छी खासी कमाई भी कर रहे हैं। इन सब्जियों के मंडियों में भी किसानों को अच्छे खासे दाम मिल रहे हैं। इन नकदी फसलों से अच्छी खासी आय होने के कारण किसानों का रुझान इन फसलों की तरफ लगातार बढ़ रहा है।

बहुत काम आईं सरकार की योजनाएं

प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित करने वाले कुल्लू के दौलत भारती का कहना है कि सरकार की नीतियों से उत्पादन बढ़ा। प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना से परंपरागत फसलों को संजीवनी मिल सकती है। प्राकृतिक खेती के तहत किसानों ने छोटे पैमाने पर परंपरागत फसलों की शुरुआत की है। उन्होंने कहा कि प्राकृतिक खेती से जमीन को उर्वरकों और रसायनों से बचाया जा सकता है।

लाहुल में आलू की परंपरा अभी भी कायम

इन दिनों हिमाचल में आलू बीजने का सीज़न ज़ोरों पर है। हर किसी की एक ही डिमांड होती है… और वह है लाहुल का आलू। हर कोई अपनी खेतों में लाहुल के आलू का ही बीज लगाना चाहता है। क्योंकि इस आलू की बात ही अलग है। बात लाहुल-स्पीति की खेती की करें, तो सदियों से चली आ रही आलू की खेती की परंपरा आज भी कायम है। हालांकि लोगों ने अब नकदी सब्जियां भी उगानी शुरू कर दी हैं। आलू के अलावा अब अन्य सब्जियां उगाकर भी लोग अपनी रोजी-रोटी चला रहे हैं। लाहुल-स्पीति में अब ब्रॉकली की भी खेती ऊंचे स्तर पर की जाती है। इसके अलावा हींग की खेती पर भी अब लोग फोकस कर रहे हैं।

सोलन मशरूम सिटी ऑफ इंडिया

सोलन जिला पारंपरिक खेती नहीं, बल्कि अपनी नकदी फसलों के लिए सबसे अधिक जाना जाता है। यहां के किसानों की आय का मुख्य स्रोत नकदी फसलें हैं, जिनमें टमाटर, मटर, शिमला मिर्च, फ्रांसबीन, गोभी मुख्यतः हैं। इसके अलावा अदरक व मशरूम उत्पादन के लिए भी सोलन जिला प्रदेश ही नहीं, बल्कि देश भर में विख्यात है। जिला में पारंपरिक खेती की बात करें, तो अधिकतर भागों में पारंपरिक खेती अभी भी की जाती है, लेकिन मुनाफे को देखते हुए किसानों का रुझान अब नकदी फसलों की ओर ज्यादा हो गया है। सरकारी आंकड़ों की बात करें, तो सोलन जिला की कुल 211 पंचायत में किसान परिवारों की संख्या 53 हजार 456 है, लेकिन इनमें से अधिकतर परिवार अब पारंपरिक खेती को छोड़कर नकदी फसलों को ज्यादा तवज्जो देते हैं।

 आज से 30 वर्ष पूर्व की बात करें, तो जिला के अधिकतर भागों में पारंपरिक खेती ही की जाती थी। इनमें गेहूं, मक्की प्रमुख थे। इसके अलावा जिला के मैदानी क्षेत्रों में चना सहित आलू की भी खेती की जाती थी, लेकिन बदलते समय के साथ-साथ पारंपरिक खेती काफी हद तक सिमट कर रह गई है। इस बदलाव का मुख्य कारण नकदी फसलों से होने वाली आमदनी है, जिससे किसानों की आय में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। यह बदलाव करीब दो दशक पूर्व आरंभ हुआ, जब जिला के पहाड़ी क्षेत्रों के किसानों ने नकदी फसलों टमाटर, मटर, शिमला मिर्च, गोभी, अदरक की पैदावार आरंभ की। इन सभी उत्पादों में जिला का लाल सोना कहलाए जाने वाले टमाटर ने किसानों की तकदीर ही बदलकर रख दी है। अब आलम यह है कि पहाड़ी क्षेत्रों विशेषकर पानी बहुल क्षेत्रों में वर्ष के करीब छह माह तक किसान टमाटर की पौध लगाते हैं।

चंडीगढ़-दिल्ली तक की मंडियों में टमाटर

सोलन सब्जी मंडी के साथ-साथ चंडीगढ़ व दिल्ली तक की मंडियों में यहां पैदा किया जाने वाला टमाटर दस्तक देता है। यहां का मटर व मशरूम भी अपनी खास पहचान रखता है और देश ही नहीं, विदेशों तक पहुंचकर लोगों की भोजन की शोभा बनता है। मशरूम से होने वाली आमदनी देखते हुए भी किसानों ने इसका उत्पादन बहुतायत में शुरू किया है और इसे देखते हुए सोलन शहर को मशरूम सिटी ऑफ इंडिया का तमगा भी मिल चुका है।

दालों व तिलहन की बात करें, तो जिला के मैदानी क्षेत्रों में ही इसकी खेती की जाती रही है और वह भी काफी कम मात्रा में। जिला के नालागढ़ व बद्दी क्षेत्रों में मुख्यतः मूंग व उड़द की खेती की जाती थी और अब भी कुछ एक क्षेत्रों में खेती की जा रही है, लेकिन वह नाममात्र ही है।

पारंपरिक खेती भी नहीं भूले किसान

सिरमौर के सफेद-लाल सोने का देश-विदेश में डंका

सिरमौर नकदी फसलों में हिमाचल प्रदेश में तेजी से आगे बढ़ रहा है। वर्तमान में सिरमौर जिला में लहसुन की पैदावार हिमाचल प्रदेश में नंबर वन पर पहुंच चुकी है, जो जिला सिरमौर के किसानों की आर्थिक स्थिति बदलने में कारगर साबित हो रही है। सिरमौर जिला के रेणुकाजी, पच्छाद व शिलाई क्षेत्र में लहसुन की बंपर फसल ने किसानों को मालामाल कर दिया है। भले ही जिला सिरमौर में पुराने जमाने की पारंपरिक खेती में कुछ दायरा कम हुआ है, परंतु सिरमौर जिला के किसान जिला की सबसे पुरानी पारंपरिक खेती मक्की व गेहूं से अभी भी जुड़े हुए हैं।

सिरमौर में पुराने जमाने से गेहूं, मक्की व धान की फसल उगाई जाती है, परंतु अब किसानों का रुझान नकदी फसलों की ओर अधिक बढ़ गया है। यही कारण है कि जिला सिरमौर इस वक्त हिमाचल प्रदेश में लहसुन के उत्पादन में शीर्ष पर पहुंच चुका है। यही नहीं, किसानों ने अब पारंपरिक फसलों के अलावा टमाटर की फसलों को भी प्राथमिकता देनी शुरू कर दी है और जिला सिरमौर में लाल सोना किसानों की आर्थिक स्थिति को मजबूत कर रहा है। जिला में करीब 3700 हेक्टेयर पर लहसुन उगाया जाता है। वर्तमान में सिरमौर में करीब 57 हजार मीट्रिक टन लहसुन की उत्पादन हो रहा है, जो हिमाचल प्रदेश में सर्वाधिक माना जा रहा है। 2150 हेक्टेयर भूमि पर टमाटर की खेती किसानों द्वारा की जा रही है तथा जिला में 80 हजार मीट्रिक टन टमाटर का उत्पादन हो रहा है। दलहन व तिलहन की खेती अब किसान मुख्य फसल नहीं, बल्कि जरूरतों के हिसाब से करते हैं। किसी जमाने में जिला सिरमौर के अदरक व सौंठ की तूती न केवल देश की मंडियों में बोलती थी, अपितु अर्बन देशों में भी सिरमौर का अदरक व सौंठ निर्यात होता था। अब किसानों ने अदरक के साथ-साथ लहसुन व टमाटर व सब्जियों की तरफ भी अपनी कृषि मोड़ दी है।

सड़न रोग ने छुड़ा दी अदरक की खेती

सिरमौर जिला की रीढ़ मानी जानी मानी अदरक की फसल का उत्पादन सिरमौर जिला में काफी कम हुआ है। किसान अदरक के सड़न रोग से परेशान था। यही कारण है कि अदरक उत्पादन किसानों ने लहसुन व टमाटर को विकल्प के रूप में अपनाया। सिरमौर जिला में अदरक की जो खेती करीब दो हजार हेक्टेयर भूमि पर की जाती थी, उसका दायरा घटकर करीब 1400 हेक्टेयर भूमि पर रह गया है। सिरमौर जिला में अदरक की खेती का जो स्वरूप बदला है, उसके पीछे मुख्य कारण सड़न रोग था। किसानों को लाखों का नुकसान कई वर्षों तक अदरक की खेती के दौरान हुआ। यही कारण रहा कि सिरमौर में अदरक का उत्पादन काफी कम हो गया है।

आधुनिक तकनीक से नहीं आएगी दिक्कत

कृषि उपनिदेशक डा. पवन शर्मा बताते हैं कि जिला में अदरक का उत्पादन करीब 1400 हेक्टेयर भूमि पर किया जा रहा है। किसान यदि अदरक की आधुनिक तकनीक अपनाएंगे, तो सड़न रोग की समस्या नहीं आएगी। इसके लिए विभाग लगातार प्रचार-प्रसार भी कर रहा है। सिरमौर में 3700 हेक्टेयर भूमि पर लहसुन का उत्पादन, जबकि 2150 हेक्टेयर भूमि पर टमाटर का उत्पादन हो रहा है।


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