श्री गोरख महापुराण

By: Jan 23rd, 2021 12:16 am

गतांक से आगे….

भर्थरी की किस्मत में राजयोग था। वह अपने सारे साथियों को इकट्ठा करके खुद राजा बनता और राजाओं की तरह ही दरबार में रौब के साथ रहता। ‘‘ जैसी हो संगति, वैसी उपजे बुद्धि’’ वाली कहावत प्रसिद्ध है। एक दिन लकड़ी के घोड़े पर सवारी करते समय भर्थरी हो-हो करते हुए मुंह के बल गिरे और गिरते ही बेहोश हो गए। उसकी आंखे बंद थी। तब सारे बच्चे भयभीत होकर वहां से भाग गए कि— ‘‘हमारा राजा मर गया। अब यह भूत बनकर घूमेगा और हम सबको परेशान करेगा।’’ उधर भर्थरी बेहोश पड़े थे और पत्थर से टकराने के कारण उनके मुंह से लहु बह रहा था।

यह घटना जब सूर्य देव ने ऊपर से देखी और अपने बेटे को पहचाना तो वह ब्राह्मण का वेश धर कर पृथ्वी पर आए और प्यार-पुचकार कर पुत्र को गोदी में उठा लिया। फिर भागीरथी का जल भर्थरी के मुख में डालकर होश में लाए और अपनी दिव्य दृष्टि कर भर्थरी की सारी तकलीफ दूर की। भर्थरी का सारा शरीर पहले जैसा ही हो गया।

तब सूर्य ने उसे अपनी गोद में उठाकर जयसिंह और रेणुकाबाई के सुपुर्द किया। दोनों पति-पत्नी उस ब्राह्मण से भर्थरी के बारे में पूछताछ करने लगे। उन दोनों ने उन्हें तेजस्वी ब्राह्मण समझ अपने आसन पर बिठाया और बच्चे को उन तक पहुंचाने का लाख-लाख धन्यवाद देकर उनका नाम-धाम पूछा।

सूर्य ने बताया कि मैं इस बालक का पिता हूं। इसलिए इसे आपके पास लेकर आया हूं। मैंने अपने बेटे को आपको अर्पण कर दिया है। इसलिए आप किसी प्रकार की श्ांका मन में मत करो और प्यार से इसका लालन-पोषण करो। इतना सुनकर जयसिंह बोला, आप इसके पिता किस प्रकार हो?

तब ब्राह्मण वेशधारी सूर्य ने बताया कि आपने मुझे पहचाना नहीं। मेरा नाम सूर्य है और सब मुझे सूर्य देवता कहते हैं। जो संसार में उजाला करता है वह मैं ही हूं। फिर उन्होंने जयसिंह और रेणुकाबाई को भर्थरी की कथा विस्तार पूर्वक सुनाई कि किस तरह हिरणी ने इसका लालन-पोषण किया और फिर वह तुम्हारे हाथ लगा। सूर्य देव से सारी बात सुनकर पति-पत्नी को बहुत आनंद आया। उनकी सारी शंकाओं का समाधान हो गया और बालक में पूरा प्रेम, प्यार बढ़ गया। होते-होते भर्थरी की आयु अठारह साल की हो गई। तब उन्होंने काशी जी छोड़कर अपने घर जाने के लिए सोचा कि वहां चलकर कोई सुयोग्य कन्या देखकर बेटे का विवाह रचाएंगे। यह सोचकर अपने गांव को चल पड़े। तब रास्ते में जयसिंह के चोरों ने मार डाला और सारा धन लेकर चंपत हो गए। अपने पति की मृत्यु के दुःख से दुःखी होकर रेणुकाबाई ने भी प्राण त्याग दिए। तब भर्थरी ने दोनों का दाह संस्कार किया और खुद भी शोक सिंधु में गोते लगा दुःख से बेजार होने लगा। उसी रास्ते में कुछ बंजारे व्यापार करने जा रहे थे।

उन्होंने भर्थरी को शोक चिंता में डूबे देखा, तो वह उसके पास आए और उससे दुःखी  होने का कारण पूछा। भर्थरी ने उन बंजारों को अपनी दुःख भरी गाथा रो-रोकर सुनाई। तब बंजारों ने भर्थरी को दिलासा देते हुए कहा, अब रोना-धोना व्यर्थ है। तुम हमारे साथ चलो। हम तुम्हें खाना कपड़ा देंगे और तुम हमारा छोटा-मोटा काम कर लिया करना। भर्थरी राजी होकर बंजारों के साथ चल दिया और कुछ दिनों बाद अपना दुःख भूल गया। वह बंजारें आवंती नगरी आ निकले। श्रीगोरख महापुराण बीसवां भाग प्रारंभ भर्थरी आवंती नगरी के निकट बंजारों के साथ एक गांव में ठहरे। वहां अपना माल ठीक  से जमा कर बंजारे अग्नि सुलगा कर हाथ सेंकने लगे।                                            – क्रमशः


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