पूर्ण राज्यत्व के पचास कदम

By: Jan 25th, 2021 12:05 am

पूर्ण राज्यत्व की आधी सदी के साहसिक मुकाम पर हिमाचल जश्न मना सकता है, लेकिन इस यात्रा के नायकों को स्मरण करने का कर्ज हमेशा रहेगा। पूर्ण राज्यत्व तक पहुंचे राज्य ने बेशक अपने मायने गढ़ लिए, लेकिन मानवीय अपेक्षाओं ने जिस राजनीति को ओढ़ लिया उसके सदके भविष्य का संघर्ष अभी पूरी तरह समझा ही नहीं गया। रियासतों से राज्य और राज्य से पूर्ण राज्यत्व तक पहुंचने का सफर महज राजनीतिक होता तो पर्वतीय हवाओं का रुख कोई शिकायत न करता, लेकिन यहां आज भी प्रदेश के अपने प्रतीक पैदा नहीं हुए। विकास की यात्रा में सियासी संबोधन ऊंचे और गहरे हो सकते हैं, लेकिन पूर्ण राज्यत्व को चित्रित करने की सांस्कृतिक ऊर्जा पैदा नहीं हुई। कई छोर आज भी उभरते हैं और जहां अपेक्षाओं की मूंछें हर बार नया क्षेत्रवाद पैदा कर देती हैं। क्षेत्रवाद हर बार उधार के चक्र में सियासी परंपराओं को पूजता है और ऐन चुनाव से पहले पिछले समीकरणों को ठुकरा देता है। किसान अपना खेत छोड़कर सरकारी नौकरी का पात्र बनना चाहता है, पार्टी कार्यकर्ता सत्ता का लाभार्थी बनने की चाह में ठेकेदार बन जाता है और छात्र पढ़ाई को मुकम्मल करने के बजाय सियासी खुशामद का हथकंडा बन जाता है।

 ऐसे में करीब साठ हजार करोड़ के ऋण का बोझ उठाए प्रदेश की महत्त्वाकांक्षा को समझने के लिए सरकारी भवनों की गिनती की जाए या पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या के अनुपात में शिक्षा का औचित्य पढ़ा जाए। सरकारी नौकरी से हिमाचली युवा का द्वंद्व, राजनीतिक प्रतियोगिता सरीखा होता गया और इसलिए निजी क्षेत्र के रोजगार को अंगीकार ही नहीं किया गया। राजनीति केवल पेंच पैदा करती रही और मुगालते में रोजगार के अवसर रहे, लिहाजा हर युवा के भीतर का नायक गौण होने लगा है। बेशक हिमाचल ने पंजाब की संख्या से कहीं अधिक सरकारी कालेज खोल दिए, लेकिन शिक्षा की खोज में मंजिलें प्रदेश के बाहर ढूंढी जा रही हैं। विकास के परिप्रेक्ष्य में इंजीनियरिंग, मेडिकल कालेजों तथा निजी विश्वविद्यालयों की तादाद को देखें या यह मुआयना करें कि इस ढेर के भीतर हमारी काबिलीयत है क्या। बेशक हिमाचल ने अपने जन्म से विकास का पहाड़ा बुलंद किया और आज हम पंजाब के मुकाबले कई राष्ट्रीय सर्वेक्षणों में आगे हैं। प्रति व्यक्ति आय में आगे होना अचंभित नहीं करता, लेकिन कृषि विकास दर में पंजाब से आगे निकलना विस्मित करता है। यह इसलिए भी क्योंकि न कृषि विश्वविद्यालय के अनुसंधान प्रमाण दे रहे हैं और न ही विभागीय प्रसार से जमीन पर विज्ञान का कोई नया अवतार दिखाई दे रहा है। पर्वतीय आर्थिकी पर गंभीर चिंतन-मंथन या अनुसंधान की जरूरत है, लेकिन तमाम विश्वविद्यालय ऐसे बिंदुओं पर अपने दायित्व का बोध नहीं करवा पाए। हिमाचल का जन्म व अस्तित्व दो स्रोतों से पैदा हुआ।

 पहले पहाड़ी रियासतों के गठजोड़ से समुदाय को आजादी का एहसास और लोकतांत्रिक पहचान मिली। दूसरी बार इसी लक्ष्य का विस्तार करते हुए पंजाब के पर्वतीय क्षेत्रों का मिलन फिर तसदीक कर गया कि हिमाचल आगे चलकर अपने भाषाई सरोकारों के मोती एक साथ पिरो लेगा। हैरानी यही कि वर्षों बाद और पूर्ण राज्यत्व के घुंघरू पहनकर भी हिमाचली भाषा के उद्गम पर सन्नाटा रहा है। पूर्ण राज्यत्व की प्रादेशिक शक्तियों में हिमाचल के अधिकार आज भी उपेक्षित हैं, तो पंजाब पुनर्गठन के बावजूद 7.19 प्रतिशत हिस्सेदारी का विवाद लटका है। हिमाचल के 65 फीसदी हिस्से पर जंगल का कब्जा, तो बहते पानी और उससे उत्पादित बिजली पर कर उगाही कोई रास्ता नहीं। राष्ट्रीय संसाधनों का आबंटन अब बड़े राज्यों की राजनीतिक शक्ति बन गया, इसलिए लोकसभा और राज्यसभा के कुल सात सांसदों के भरोसे यह प्रदेश केवल केंद्र सरकारों की उदारता में बजट तो बना लेता है, लेकिन आत्मनिर्भर होने की दिशा में पंगु साबित हो रहा है। देश के करीब चार दर्जन सांसद पर्वतीय राज्यों से आते हैं। ऐसे में पर्वतीय विकास के मानकों में सुधार तथा वित्तीय पोषण के लिए अलग से मंत्रालय की मांग पर हिमाचल को अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए। अब वक्त आ गया है कि प्रदेश में वन संरक्षण अधिनियम के मायने बदलते हुए हिमाचल की आत्मनिर्भरता और विकास के लिए नए प्रयास शुरू किए जाएं। पहले वन क्षेत्र को घटाकर चालीस फीसदी करना, दूसरे चीड़ से निजात तथा भविष्य के वनों में कॉफी, चाय तथा केनफ जैसे पौधे उगाए जाएं।


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