पूर्ण राज्यत्व से स्वाभिमान तक

By: Jan 26th, 2021 12:05 am

पूरे प्रदेश के लिए हिमाचल के गठन और भौगोलिक-सांस्कृतिक विकास से एक अनूठी कहानी निकलती तथा आज भी प्रदेश की पृष्ठभूमि अलंकृत होती है। बेशक हम नायक पैदा करते रहे हैं और अतीत से आज तक के सफर में स्वाभिमान के क्षण बढ़ा रहे हैं। स्थानीय निकाय चुनाव ही लें तो राजनीतिक चूं-चूं से हटकर कहीं कोई नायक-नायिका सरीखा पात्र नजर आता है। अभी कुछ दिन पहले पंजाब के डीएमसी की मैरिट सूची को अलंकृत करके हिमाचल की बेटी आगे बढ़ गई। श्रेष्ठता और वीरता की कहानियों में हिमाचली नायकत्व आगे बढ़ जाता है, लेकिन क्या समाज अपने आचरण में इन्हें रेखांकित करता है। सामाजिक स्वीकार्यता का दोगलापन राजनीति के दुष्चक्र का परिणाम बनता जा रहा है, बल्कि यह कहें कि सत्ता लाभ और प्रभाव के दायरे में सामाजिक पृष्ठभूमि निरंतर गौण हो रही है। एक बड़ी वजह बनकर प्रगति की किश्तियां बदल रही हैं और हम अपनी निशानियों में राजनीतिक गौरव ढूंढ रहे हैं। ऐसे में सबसे बड़ा नायक प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर बैठा व्यक्ति बन जाता है या परिदृश्य की मजबूरियों ने समर्पण कर दिया है। यह प्रचार तंत्र की सघनता या मीडिया की एप्रोच से जुड़ा विषय हो सकता है कि हिमाचली पाठक के इर्द-गिर्द तमाम संभावनाओं का अक्स सरकार की तरफ ही देखता है। निजी क्षेत्र से जुड़ी आर्थिकी का विश्लेषण न तो किसी अर्थशास्त्री के रूप में सामने आता है और न ही विश्वविद्यालय स्तरीय अध्ययन से पता चलता है कि तरक्की के आयाम, सामाजिक भूमिका में आत्मनिर्भरता की कसौटियां किस स्तर तक पैदा  कर रहे हैं। ऐसे में जब समस्त दायित्व की रखवाली का चित्रण ही सरकार के माध्यम से होता है, तो मुख्यमंत्री का पद पालक बन जाता है। यही वजह है कि वाईएस परमार से जयराम ठाकुर तक के हिमाचल में नीतियां-नियम तो सामने आए, लेकिन प्रदेश ने अपनी तरक्की के सिद्धांतों में समाज की भागीदारी को परिलक्षित नहीं किया। ऐसे में समाज ने अपनी संस्कृति को भी सरकार के दायित्व में देखना शुरू कर दिया और नतीजा यह हुआ कि गांव की छिंज यानी कुश्ती  तक के आयोजन भी सियासत की पगड़ी पहनते हैं। अब समाज का स्वाभिमान सरकार है, न कि सरकार का स्वाभिमान समाज दिखाई देता है। इसमें दो राय नहीं कि स्वर्गीय वाईएस परमार ने पर्वतीय स्वाभिमान के पल और पग तराशे और इस तरह रियासतों से प्रदेश के अस्तित्व को जमीन मिल गई।

 यह स्वाभिमान की तलाश थी जो प्रदेश की आर्थिकी के लिहाज से एशिया की पहली बागबानी-वानिकी विश्वविद्यालय को जन्म देती है। यह पर्वतीय स्वाभिमान की जीत थी जो पंजाब के वर्चस्व से छीन कर वहां की आबादी के एक हिस्से को हिमाचली बना देती है। इसी आर्थिकी पर स्वाभिमान चित्रित  करते शांता कुमार ने विद्युत उत्पादन में निजी निवेश तथा मुफ्त बिजली हासिल करने का नैतिक तथा आर्थिक हक हासिल किया। वीरभद्र सिंह ने विकास के हर पहलू में स्वाभिमान की शर्तें ऊंची कीं, लिहाजा हर गांव की पहुंच तक शिक्षा व चिकित्सा ही नहीं, कालेज स्तर की पढ़ाई और मेडिकल कालेज से जुड़ी स्वास्थ्य सेवाएं भी मिलने लगीं। प्रेम कुमार धूमल ने हिमाचली अधिकारों में न केवल जलसंसाधनों व जंगल की पैरवी की, बल्कि सैन्य सेवाओं में हिमाचली स्वाभिमान की खातिर हिमालय रेजिमेंट के गठन तथा डोगरा रेजिमेंट के मुख्यालय को ऊना शिफ्ट करने की आवाज बुलंद की। पचासवें पूर्ण राज्यत्व तक पहुंचा हिमाचल अपने स्वाभिमान के नए दौर में है। यहां प्रश्न इसलिए भी बड़े हैं, क्योंकि आर्थिक संसाधनों की पैरवी में दो ही रास्ते सामने हैं। पहले आगोश में ऋणों का बढ़ता बोझ और दूसरे समाधान में निजी निवेश की छूट। इन्वेस्टर मीट दरअसल अपने भीतर के परविर्तन का अवलोकन थी, लेकिन हिमाचल के अस्तित्व व पिछली सरकारों द्वारा सीमांकित आदर्शों से बाहर निकलने की चेष्टा भी। ऐसे में हिमाचल के स्वाभिमान को क्या अति सरकारवादी या सार्वजनिक क्षेत्र के रखरखाव में जाया कर सकते हैं या स्वरोजगार के जरिए अर्जित स्वाभिमान को परिमार्जित करने की जरूरत है, ताकि जन्म लेते ही बच्चे राज्य के कर्ज की एक किस्त न बन जाएं। हिमाचल के अस्तित्व में पैदा हुए और धारा 118 से जुड़े स्वाभिमान को राजनीतिक हथकंडा मानें या इसके बाहर पैदा हो रहे यथार्थवादी स्वाभिमान को अंगीकार करें, यह सोचना होगा।


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