ईश्वर के अवतार

By: Jan 16th, 2021 12:20 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

पवित्र हृदय वाले धन्य हैं, क्योंकि वो ईश्वर का दर्शन करेंगे। आध्यात्मिक गुरु के देने से जो ज्ञान आत्मा को प्राप्त होता है, उससे उच्चतर एवं पवित्र वस्तु और कुछ नहीं है। हम ईश्वर को देख नहीं सकते। यदि हम ईश्वर को देखने का प्रयत्न करते हैं, तो हम ईश्वर की एक विकृत और भयानक आकृति बना डालते हैं। एक कथा है कि एक अज्ञानी मनुष्य से भगवान शिव की धातु की मूर्ति बनाने को कहा गया। कई दिनों तक वह कोशिश करता रहा और अंत में उसने एक वानर की मूर्ति बना डाली। इसी प्रकार जब कभी हम भगवान की मूर्ति बनाने का प्रयास करते हैं, तब हम उसका एक विकृत आकार ही बना पाते हैं। क्योंकि जब मनुष्य है, तब तक हम भगवान को मनुष्य से बढ़कर कुछ और समझ ही नहीं सकते। ऐसा समय अवश्य आएगा, जब हम अपनी मावन प्रकृति को पार करके आगे बढ़ जाएंगे और उस समय हम ईश्वर को जैसा वह है, वैसा ही जान सकेंगे। ईसाईयों में सबसे बड़ी कमी इस बात की होती है कि वे ईसा मसीह के अलावा ईश्वर के अन्य अवतारों के प्रति श्रद्धा नहीं रखते हैं।

जैसे ईसा मसीह ईश्वर के अवतार थे, उसी तरह बुद्ध भी ईश्वर के अवतार थे तथा अन्य सैकड़ों अवतार होंगे। ईश्वर को कहीं भी सीमाबद्ध मत करो। मेरा धर्म तुम्हारा धर्म नहीं हो सकता और न ही तुम्हारा धर्म मेरा, लेकिन उद्देश्य एक ही है और हर एक का मार्ग अपनी-अपनी मानसिक प्रवृत्ति के अनुसार अलग-अलग है। ये मार्ग भिन्न-भिन्न है, तो भी सभी मार्ग ठीक होने चाहिए, क्योंकि वो सभी उसी स्थान को पहुंचते हैं। उनमें से एक ही सत्य हो और बाकी सब गलत हों, यह संभव नहीं। अपना मार्ग चुन लेना ही भक्ति की भाषा में ईष्ट कहलाता है। बाह्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करना बहुत अच्छी और बहुत बड़ी बात होती है।

अपने भीतर के मनुष्य को वश में कर लो, मानव मन के रहस्यों को समझ लो और उसके आश्चर्यजनक गुप्त भेदों को अच्छी तरह जान लो। ये बातें धर्म के साथ अच्छे भाव से संबद्ध है। यदि ईश्वर है तो हमें उसे देखना चाहिए। उसकी यदि आत्मा है, तो हमें उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति कर लेनी चाहिए। अन्यथा उन पर विश्वास न करना ही अच्छा है। ढोंगी बनने की अपेक्षा स्पष्ट रूप से नास्तिक बनना ही अच्छा है। सत्य के लिए सब कुछ त्यागा जा सकता है, पर सत्य को किसी भी चीज के लिए छोड़ा नहीं जा सकता। उसकी बलि नहीं दी जा सकती है। सुर तथा असुर ये और कुछ भेद नहीं, भेद केवल निःस्वार्थ तथा स्वार्थ में है। असुर भी उतना जानता है,जितना कि सुर, उसमें बस पवित्रता नहीं होती है, इससे वो असुर बन जाता है। आधुनिक संसार पर यही भावना लागू करो अपवित्र ज्ञान और शक्ति का अतिरेक मनुष्यों को असुर बना देता है। यह शरीर कभी न कभी मरेगा ही, तब इसकी अरोग्यता के लिए पुनः-पुनः प्रार्थना करने से क्या लाभ?


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