‘नेताजी’ बनाम ‘जय श्रीराम’

By: Jan 25th, 2021 12:05 am

मौका नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती का था। उनकी स्मृति, योगदान और स्वतंत्रता संग्राम के पुराने अध्याय और प्रसंग खोले गए। सवाल भी उठाए गए कि नेताजी को ‘राष्ट्रनायक’ का अधूरा सम्मान क्यों दिया जाता रहा है? आज़ाद हिंद फौज के जीवित जांबाजों को ‘स्वतंत्रता सेनानी’ का दर्जा क्यों नहीं दिया जाता रहा है? प्रधानमंत्री मोदी ने भी ऐतिहासिक प्रसंगों को दोहराया, नेताजी की स्मृति में 125 रुपए का सिक्का, डाक टिकट जारी किए, कुछ जीवित योद्धाओं का प्रतीकात्मक सम्मान भी किया गया, लेकिन ऐसी कोई घोषणा नहीं की गई कि आज़ाद हिंद फौज भी ‘स्वतंत्रता सेनानी’ का सम्मान और पेंशन हासिल कर सकें। बेशक 23 जनवरी एक ऐतिहासिक तारीख है, जब सुभाष चंद्र बोस के रूप में एक योद्धा और भारत-भक्त ने जन्म लिया। सुभाष बाबू एकमात्र नेता थे, जिन्होंने 1943 में भारत की आज़ादी की घोषणा की थी और अस्थायी सरकार भी बनाई थी। बेशक 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन का आगाज महात्मा गांधी के आह्वान पर हो चुका था, लेकिन एक नेता के तौर पर सेना का गठन और प्रतीक-स्वरूप स्वतंत्र भारत की प्रथम सरकार के प्रयास वाकई क्रांतिकारी थे।

 ब्रिटिश हुकूमत का कलेजा कंपा देने वाले प्रयास थे, लेकिन महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू समेत कई तत्कालीन कांग्रेस नेताओं द्वारा वैचारिक आलोचना के मद्देनजर सुभाष चंद्र बोस के स्वतंत्रता संघर्ष और विदेश में कारगर रहीं रणनीतियों को कमतर करके आंका गया। नेताजी की 125वीं जयंती के मौके पर, जर्मनी में बसीं, उनकी बेटी अनिता बोस ने भी पुराने अध्यायों को खुरचने की कोशिश की और पीड़ा भी जताई कि नेताजी की भारतीय स्वतंत्रता मान्यता बौनी रही है। नेताजी ने जेलों में यातनाएं झेलीं, अनशन किए, देश-विदेश में घूमकर समर्थन जुटाया। यहां तक कि अपनी आईसीएस की शाही सरकारी नौकरी को भी ठुकरा दिया, तो आखिर किसके लिए इतना सब कुछ कुर्बान किया? जाहिर है कि देश की आज़ादी और हम सब के लिए यह सब कुछ किया, लेकिन सवाल उठने स्वाभाविक हैं कि उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से क्यों नहीं नवाजा जा सका? हालांकि 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन से अनुशंसा की थी कि नेताजी को मरणोपरांत ‘भारत-रत्न’ से सम्मानित किया जाए। नेताजी की जयंती पर ही 23 जनवरी, 1992 को राष्ट्रपति भवन से प्रेस विज्ञप्ति जारी हुई कि सुभाष चंद्र बोस को सर्वोच्च सम्मान दिया जाएगा, लेकिन उस निर्णय के खिलाफ  कोलकाता उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल की गई। अंततः वह निर्णय खटाई में पड़ गया। नेताजी के नाम का ‘भारत-रत्न’ सम्मान कहां है, क्योंकि राष्ट्रपति की घोषणा के बाद उसे वापस नहीं लिया जा सकता? वह या तो गृह मंत्रालय में होगा अथवा स्मारक-संग्रहालय में सुरक्षित होगा, लेकिन आधिकारिक तौर पर नेताजी ‘भारत-रत्न’ नहीं माने जा सकते। बाद में नेताजी के परिजनों  ने सम्मान स्वीकार करने से ही इंकार कर दिया, क्योंकि बहुत देर हो चुकी थी और कइयों को वह सम्मान दिया जा चुका था। सवाल है कि प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल के दौरान 2016 में एक बार फिर ‘भारत-रत्न’ का प्रसंग छिड़ा, तो उसे अंजाम तक क्यों नहीं पहुंचाया गया और नेताजी को ‘भारत-रत्न’ की सूची में स्थान क्यों नहीं दिया गया?

 बहरहाल मुद्दा सिर्फ  एक भौतिक सम्मान का नहीं है, बल्कि देश की पीढ़ी-दर-पीढ़ी मानसिक, वैचारिक और राष्ट्रीय मान्यता का है। यदि नेताजी की 125वीं जयंती भी राजनीतिक टकराव और वितृष्णा का शिकार हुई है, तो यह नेताजी का ही परोक्ष अपमान है। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भाषण देने मंच पर खड़ी हुईं और ‘जय श्रीराम’ के नारे गूंजने लगे, तो सहज होकर ममता को नेताजी की स्मृति में अपनी बात कहनी चाहिए थी। प्रधानमंत्री के सामने मांग रखनी चाहिए थी। प्रधानमंत्री बगल में ही मंच पर मौजूद थे। कार्यक्रम केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने आयोजित किया था, लेकिन मुख्यमंत्री बिन बोले ही नारों के विरोध में चली गईं और सीट पर जाकर बैठ गईं। आखिर अपमान किसका हुआ? ‘जय श्रीराम’ का नारा अपमानजनक कैसे हो सकता है? वह भाजपा की बपौती भी नहीं है। श्रीराम हमारी संस्कृति की आत्मा हैं, हमारे आराध्य हैं, मर्यादा की मूरत हैं, ममता भी बुनियादी तौर पर हिंदू हैं। सवाल सांप्रदायिक भी नहीं है, लेकिन उस समारोह के बाद नेताजी पर विमर्श होने के बजाय बंगाल के चुनाव और भाजपा बनाम तृणमूल की चर्चा छिड़ गई है। जिस ‘विक्टोरिया मेमोरियल’ में नेताजी की जयंती मनाई गई, उसका नामकरण बदलने की पहल भी नहीं हो सकी है। नेताजी भारत के हैं और रहेंगे, बेशक इतिहास कुछ भी लिखता रहे।


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