कानून पर रोक संभव नहीं!

By: Jan 23rd, 2021 12:05 am

कृषि के तीनों विवादास्पद कानूनों को डेढ़ साल के लिए स्थगित करने का सरकारी प्रस्ताव भी किसानों ने खारिज कर दिया। साझा समिति का गठन भी उन्हें कबूल नहीं है। किसानों ने अपनी अडि़यल मांग फिर दोहराई है कि कानून निरस्त करने से कम कुछ भी उन्हें स्वीकार नहीं। सभी फसलों पर लाभकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को लेकर सरकार यथाशीघ्र कानून बनाए। जाहिर है कि किसान आंदोलन लंबा खिंच सकता है। दो माह तो बीत चुके हैं। गतिरोध अब तनावपूर्ण लगता है। अब किसान हुंकार भरने लगे हैं कि वे वैशाखी त्योहार तक भी आंदोलन पर बैठे रहने को तैयार हैं। कुछ आवाज़ें तो 2024 तक की सुनाई दे रही हैं। हजारों किसान दिल्ली की चार सीमाओं पर गोलबंद हैं और उनकी जिद टूटने के आसार नहीं लगते। असंख्य टै्रक्टर लेकर किसान पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और ओडिशा तक से राजधानी की तरफ  कूच कर चुके हैं। कई प्रशासनिक अड़चनें झेल रहे हैं, लेकिन जुनून बरकरार है। हालांकि 22 जनवरी, शुक्रवार को भी भारत सरकार और किसान संगठनों के बीच संवाद का 11वां दौर सम्पन्न हुआ। जब दोनों पक्ष अपनी-अपनी जगह अड़े और डटे हैं, तो निष्कर्ष कैसे हासिल किया जा सकता है? सरकार के कानून स्थगन प्रस्ताव पर कई किसान संगठन उदार और लचीले भी दिखाई दिए। उनका मानना था कि कानून स्थगित हो जाएंगे, तो साफ  मायने हैं कि ऐसे कानून अस्तित्व में ही नहीं हैं।

 डेढ़ साल का समय कम नहीं होता। उस दौरान निरंतर संवाद से सहमति का रास्ता मिल सकता है। इस संदर्भ में किसानों की मैराथन बैठकें हुईं। एक ख़बर यह भी है कि 15 संगठन सरकार के प्रस्ताव के पक्ष में थे, लेकिन सभी संगठनों और आम सभा का बहुमत था कि प्रस्ताव खारिज कर देना चाहिए, क्योंकि एक बार आंदोलन खत्म होने के बाद सरकार अपने रंग दिखा सकती है। इस सरकार पर भरोसा नहीं किया जा सकता। दरअसल यह अवधारणा गलत और पूर्वाग्रही है। यह सरकार भी निर्वाचित है और देश के लोगों की अपनी सरकार है। आंदोलित किसान किसी ब्रिटिश सरकार के चेहरों से बातचीत नहीं कर रहे हैं। आखिर टकराव और जिद से समाधान क्या निकलेगा? वैसे सर्वोच्च न्यायालय ने इन कानूनों के अमल पर रोक फिलहाल लगा रखी है और एक समिति का गठन भी किया है। समिति किसानों के सभी पक्षकारों से बात करेगी और दो माह के बाद अपनी अनुशंसाएं सर्वोच्च अदालत को देगी। आंदोलित किसानों ने समिति का बहिष्कार भी कर रखा है। उन्हें न तो शीर्ष अदालत पर भरोसा है और न ही समिति को तटस्थ मानते हैं। बहरहाल किसी भी कानून पर रोक लगाने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 245 के तहत सिर्फ सर्वोच्च अदालत को ही है। अदालत समिति की रपट मिलने के बाद कृषि कानूनों के अमल पर रोक हटा सकती है, लेकिन भारत सरकार ने 18 माह के स्थगन का जो प्रस्ताव किसानों को दिया था, वह उसके अधिकार-क्षेत्र में ही नहीं है। एक विधेयक संसद में पारित होकर और राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद कानून बन जाता है, तो सरकार उसे रोक, निलंबित या ठंडे बस्ते में नहीं डाल सकती।

कानून को लागू करने का अधिकार सरकार को है, लेकिन एक बार गजट में अधिसूचना जारी होने के बाद सरकार कानून पर रोक नहीं लगा सकती। अलबत्ता सर्वोच्च अदालत से अनुरोध जरूर कर सकती है कि वह कानूनों पर रोक जारी रखे। अंतिम निर्णय अदालत को ही लेना है। लोकसभा के प्रख्यात महासचिव रहे डा. सुभाष कश्यप का मानना है कि बिल वापस लिए जाते रहे हैं। कानूनों को लागू करने में सरकारें देरी करती रही हैं। अधिसूचना जारी करने में विलम्ब किया जाता रहा है। कानून निरस्त भी किए गए हैं, लेकिन एक बार संसदीय और विधायी प्रक्रिया पूरी होने के बाद कानूनों को स्थगित करने अथवा ठंडे बस्ते में डालने का संदर्भ आज तक सामने नहीं आया है। शायद किसानों ने इस कोण से विचार नहीं किया होगा। वैसे सरकार कानून बनने से पहले बिलों को संसदीय स्थायी समिति या प्रवर समिति को विचारार्थ भेजती रही है। असंख्य बिलों को भेजा गया होगा। सरकार ने इन विवादास्पद कानूनों के संदर्भ में ऐसा क्यों नहीं किया? ये सवाल किसानों ने भी पूछे हैं और राजनीतिक विपक्षियों ने भी उठाए हैं। अब भी यदि कानूनों को निरस्त किया जाना है, तो सरकार को संसद में ही जाना पड़ेगा।


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