एक जंग तेरी, एक जंग मेरी

By: Jan 14th, 2021 12:05 am

सुरेश सेठ

sethsuresh25U@gmail.com

पौन सदी बीत गई। तब रात को बारह बजे लाल किले से एक आवाज़ गूंजी थी। मेरे देशवासियो, नया दिन शुरू हो गया। इस दिन की नई सवेर में भारत आंखें खोलते हुए अपनी गरीबी, बेकारी और पिछड़ेपन के अंधेरे को विदा करेगा। सबके लिए एक नए सूरज का उदय होगा। दासता का अंधेरा फिर कभी लौट कर न आए, आइए सब मिलकर ऐसा वचन करें। भाषण हो गया। देखते ही देखते आज़ादी के इतने साल बीत गए। हर स्वाधीनता दिवस पर फिर झंडा फहराता है। फिर एक भाषण होता है। ओज़ और तेज़ से भरा हुआ। यह भाषण वचनों और सपनों की तश्तरी पर सजा कर पेश किया जाता है। वर्ष बीत जाता है, फिर एक नया भाषण होता है। एक और फूल तश्तरी, कुछ और सपनों और वचनों के सजे ताशमहल। मत पूछिए कि पिछली तश्तरी और उस पर सजे सपनों और वचनों के फूलों का क्या हुआ?

 क्या हिमाकत है साहब। यहां मुर्दा सपनों और अधूरे वचनों का इतना बड़ा भंडार गृह है कि कुछ लोगों को इसमें जमा होता एक और यह ताशमहल खंडहर लगने लगता है। आप क्यों चिहुंके। भौं चढ़ा कर पूछा। अरे भई, यह ताशमहल क्या है? ताजमहल तो सुना है। जवाब साफ है हुजूर। बादशाह या आज के उसके गद्दीधारी बनाएं तो ताज़महल। जब तक उस जगह गरीब पहुंचता है तो उसका बन जाता है ताशमहल। अब एक जंग उनकी है और एक जंग हम जैसे करोड़ों लोगों की। उनकी जंग में भाषण की नौटंकी, जुमलों की बरसात है, वायदों का सैलाब है। आम आदमी के लिए मृगमरीचिका बिछाने की प्रतियोगिता है। यह प्रतियोगिता तब शुरू होती है जब पांच साल के बाद चुनावों की घोषणा होती है। लोकतंत्र के नाम पर वंशवाद की परंपरा शुरू हो चुकी है। जैसे कोई आदमखोर शेर एक बार आदमी का खून मुंह को लग जाने के बाद फिर जानवर मार कर खाना पसंद नहीं करता। इसी तरह एक नेता कुर्सी मिल जाने के बाद फिर समाज सेवा तो क्या, जनता की समस्याओं की पहचान तक करनी पसंद नहीं करता।

 किराए की भीड़ जुटाई रैलियों में नेता का स्वर रुआंसा हो जाता है कि जैसे जनता के दुख दर्द, इनकी भूख, बेकारी और बीमारी से उनका सीना फट रहा है और अपने अंतःपुर में वह नेतागिरी का यही मूलमंत्र दोहराता है जिसमें पंजाबी की लोक उक्ति मुखर होती रहती है कि ‘रोंदी यारा नूं, लै लै नां भरावां दे।’ अर्थात् याद तो अपने प्रेमी आ रहे हैं, लेकिन रोते हुए जन परिवार को भरमाने के लिए वह अपने भाइयों के बिछड़ जाने का गम बखान कर रही है। यही हाल कुर्सी धारियों का है। उनकी न जाने कितनी समस्याएं अनसुलझी पड़ी हैं। हर समय उनके टुच्चे प्रतियोगी भीतरघात करते हुए उनके नीचे से कुर्सी खिसकाने की फिराक में लगे हैं, उन्हें तड़ीपार करना है। बेटा जवान हो गया। भाई से लेकर भतीजा तक किसी काम का नहीं। अब इन सब को भी किसी न किसी मलाईदार कुर्सी पर जमाना है। आप इसे भाई-भतीजावाद कहते हैं तो कहते रहें। हमें तो यही सिखाया गया है कि बेटे दान धर्म करना है तो अपने घर से शुरू करो। बेटा भी आपकी कृपा से खाने-कमाने लग गया है। कोई भी धंधा कर ले कोई कानून का रखवाला, कोई टैक्स उगाहने वाला छापामार उसकी हवा की ओर भी देख नहीं सकता। देखते ही देखते हमारी खपरैल टूटी झोंपड़ी भव्य अट्टालिका में तबदील हो गई। रजवाड़ों का जमाना होता तो हम इसे भव्य प्रासाद बना देते।


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