भीड़ भरे देश का मौन सन्नाटा

By: Jan 21st, 2021 12:06 am

सुरेश सेठ

sethsuresh25U@gmail.com

एक दिन जिस तरह एक चेहरा विहीन वायरस के भय से सब कुछ बंद करके इस भीड़ भरे देश को एक मौन सन्नाटे में धकेल दिया गया, उसी तरह अब इस सन्नाटे को तोड़ने की आवाज़ हो रही है। अंधेरा तब भी था, अभी तो शायद कुछ और गहरा हो गया। इस अंधेरे में पत्थर फेंक अंधेरा तोड़ने का आह्वान हो रहा है। ‘खोल दो, खोल दो’ माहौल एक नई चिल्लाहट से भर गया। सआदत हसन मण्टो की अप्रतिम कहानी ‘खोल दो’ की याद आने लगी। कहां से आया यह संहारक और संक्रामक वायरस। देखते ही देखते इसने सारी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया। सम्पन्नता सन्न रह गई। बहुमंजि़ली इमारतों के शीर्ष भय से झुक गए। संक्रमण का एक बवाल मृत्यु का पैगाम ले पूरी दुनिया में लहराने लगा। दफ्तरों से लेकर प्रयोगशालाओं तक, मिलों से लेकर खेत-खलिहानों तक मनहूस मुर्दनी एक डरावनी चुप्पी बन कर पसर गई। धनी मानी इलाकों में भी भूखों के झुंड जि़ंदगी जीने की तलाश में जुटने लगे।

 विज्ञान शर्मिदा हो गया। उसके पास औषधि की तलाश की विज्ञप्तियां थीं, औषधि नहीं थी। मौत से जूझने के इश्तिहार थे, लेकिन उसके बाद संग्राम के नाम पर लाशों के ढेर थे, कि जिनके कफन-दफन की भी कोई व्यवस्था न थी। भारत इंद्रधनुषी सपनों के मायाजाल में जीता है। रोशनी की तलाश में उसे पिछली पौन सदी से अंधेरे को रोशनी मानने की आदत हो गई है। विकास और प्रगति के नाम पर उसे उसके आंकड़े जीने की आदत हो गई है। पूर्ण बंदी के हथियार से अपनी खिड़कियां और दरवाज़े बंद करके खुश होने का आग्रह किया गया कि आपने आसुरी शक्तियों के पांव रोक लिए। आओ इन्हें भगाने के लिए थालियां बजाएं और इस ध्वनि से इसके भगौड़ा हो जाने की घोषणा करके विजय यात्रा निकालें। मौत का अंधेरा घना होता जा रहा था। मारक संक्रमण के सिपहसालार विकास के साथ दुष्कर्म करने लगे, देश के हर राज्य में। इस अंधेरे को भगाने के लिए आओ दीये जलाएं, कहा गया।

 लेकिन दीयों की रोशनी में धूमधड़क्का तो नहीं होता न। लेकिन सब कुछ बेअसर। मौन निश्चल होती किसी अंधेरे बिस्तर पर पड़ी देश की अर्थ-व्यवस्था की तरह। पूरे माहौल में बीमारी से अधिक भुखमरी का क्रंदन फैल गया। लुटे-पिटे बेसहारा लोग हर अगले दिन को और भी आदमखोर हो जाता देखते रहे, छुट गए हाथ के हंसिये हथौड़े। छिन गईं सिर की छतें। मंजि़ल की तलाश में निकले थे, अब प्राप्त मंजि़लें भी जैसे अजनबी हो गईं। लाखों की भीड़ अपनी जड़ों से उखड़ गई। उसे कहां जाना है, किसी को खबर नहीं। बस, नंगे पांव, कंधों पर परिवार लादे, पैदल पथ की पहचान न करते हुए राह के छालों को गले लगाते नज़र आने लगे। यह मेहनत की पराकाष्ठा नहीं, एक बार फिर से रोज़ी-रोटी के लिए हाथ फैलाने की नौबत थी। अंधेरे में भटकते हुए यह कारवां दिशाहीन हो गए। बाहुबली हो जाने वाली अर्थ-व्यवस्था इस अभागी लड़की की तरह दीन-हीन बनी कि जिसकी जि़ंदगी की अंधेरी बंद खिड़कियों और कमरों को देख कर किसी स्वनाम-घन्य डाक्टर ने कभी इसके लिए कहा था, ‘खोल दो।’ लेकिन एक बदहाल अर्थ-व्यवस्था एक नुची पिटी लड़की तो नहीं होती, जो कुछ और सुने और कुछ और कर दे। खिड़कियां को खुलनी ही थीं, खुल जाएंगी, रास्ते अवरुद्ध थे, इन्हें एक दिन तो खुलना ही था, खुल जाएंगी। लेकिन इन लस्त-पस्त कारवांओं को कैसे तलाश कर फिर वापस लाओगे, जो इस गहरे होते अंधेरे से बनवास लेकर रोशनी की आस की ओर बढ़ गए थे। उस ओर जहां एक और अंधेरा उनका इंतज़ार कर रहा था।


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