किसी अजूबे से कम नहीं हैं रामायण के पात्र

By: Jan 23rd, 2021 12:20 am

जैसे ही मंदराचल पर्वत को समुद्र में उतारा गया, वह अपने भार के बल से सीधा सागर की गहराइयों में डूब गया और अपना घमंड प्रदर्शित किया। तब असुरों में बाणासुर इतना शक्तिशाली था कि उसने मंदराचल पर्वत को अकेले ही अपनी एक हजार भुजाओं में उठा लिया और सागर से बाहर ले आया। इससे मंदराचल का अभिमान नष्ट हो गया। देव और दानवों के पराक्रम से खुश हो और ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर, भगवान श्री नारायण ने कच्छप अवतार लिया और पर्वत को अपनी पीठ पर रखा…

-गतांक से आगे…

दानवों को सम्मिलित करने के कारण हैं, एक तो इतना बड़ा काम अकेले और गुप्त तरीके से कर नहीं सकोगे, क्योंकि दानवों को पता चल जाएगा और दूसरा, इसमें श्रम बहुत लगेगा। ब्रह्मा जी की बात पर तब युक्तिपूर्वक देवताओं ने दानवों को सागर मंथन मिलकर करने की बात के लिए राजी किया और दानवों को सागर से बहुत से रत्न निकलने की बात कही, लेकिन अमृत की बात नहीं बतलाई। दानव सहमत हो गए और फिर उन्होंने कहा, भाई पहले ही इस बात को तय कर लो कि पहला रत्न निकला तो कौन लेगा, दूसरा किसका होगा, ताकि बाद में वाद-विवाद न हो। देवता थोड़़े घबराए कि कहीं पहली बार में अमृत निकल गया और दानवों के हाथ लगा गया तो? लेकिन फिर भगवान को मन ही मन नमस्कार कर उन्होंने विश्वास किया कि भगवान उनका कल्याण अवश्य करेंगे। और तय हो गया कि पहला रत्न निकलेगा, वह दानवों को, दूसरा देवताओं को और फिर इसी प्रकार से क्रम चलता रहेगा। मंथन के लिए रस्सी का काम करने के लिए देवताओं ने सर्पों के राजा वासुकी से प्रार्थना की और उसे भी रत्नों में भाग देने की बात कही गई। वासुकी नहीं माना। उसने कहा कि रत्न लेकर वह क्या करेगा?

फिर देवताओं ने अलग से उसे समझाया और अमृत में हिस्सा देने की बात कही, तब वह तैयार हुआ। सुमेरु पर्वत से प्रार्थना की गई। उसको मथनी बनने के लिए मनाया गया। सब तैयारी पूर्ण होने के बाद तय किए मापदंडों पर नियत दिन में सागर मंथन हुआ। लेकिन जैसे ही मंदराचल पर्वत को समुद्र में उतारा गया, वह अपने भार के बल से सीधा सागर की गहराइयों में डूब गया और अपना घमंड प्रदर्शित किया। तब असुरों में बाणासुर इतना शक्तिशाली था कि उसने मंदराचल पर्वत को अकेले ही अपनी एक हजार भुजाओं में उठा लिया और सागर से बाहर ले आया। इससे मंदराचल का अभिमान नष्ट हो गया। देव और दानवों के पराक्रम से खुश हो और ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर, भगवान श्री नारायण ने कच्छप अवतार लिया और पर्वत को अपनी पीठ पर रखा। सागर मंथन शुरू हुआ। सागर मंथन और देव-दानवों का पराक्रम देखने स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सप्त ऋषि आदि अपने-अपने स्थान पर बैठ गए। सागर मंथन शुरू होने के बहुत दिनों के बाद सबसे पहले हलाहल विष निकला, जिसके जहर से देव, दानव और तीनों लोकों के प्राणी, वनस्पति आदि मूर्छित होने लगे। तब देवताओं ने भगवान से प्रार्थना की। श्री विष्णु ने कहा कि इससे रुद्र ही बचा सकते हैं। तब भगवान रुद्र ने वह जहर पी लिया, लेकिन गले से नीचे नहीं उतरने दिया। हलाहल विष से उनका कंठ नीला हो गया, जिसके बाद से ही वे देवाधिदेव महादेव कहलाए और गला नीला पड़ जाने के कारण नीलकंठ नाम से जाने और पूजे गए। पुनः मंथन शुरू हुआ। भगवान शंकर के मस्तक पर विष के प्रभाव से गर्मी होने लगी।

तब मंथन के समय ही चंद्रमा ने अपने एक अंश से सागर में प्रवेश किया और साथ में शीतलता लिए हुए बाल रूप में प्रकट होकर महादेव की सेवा में उपस्थित हुआ। भगवान शिव उसके इस भक्ति-भाव पर बहुत प्रसन्न हुए और उसे हमेशा के लिए अपने मस्तक पर बाल चंद्र के रूप में शीतलता प्रदान करने के लिए सुशोभित कर दिया। फिर रत्न रूप में कामधेनु गाय निकली, जो दानवों के भाग की थी। इसे उन्होंने बिना गुण विचारे सोचा कि गाय का हम क्या करेंगे और उस गाय को सप्तऋषियों को दान में दे दिया। अब बारी थी देवताओं की। लेकिन रत्न में प्रकट हुई महालक्ष्मी। देवताओं और दानवों ने उनकी स्तुति की और सागर ने अपने एक अंश से प्रकट होकर महालक्ष्मी जी को भगवान विष्णु को कन्यादान किया और वह श्री विष्णु के वाम भाग में विराजमान हो गईं।


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