लोकसाहित्य के शोधगत अनुशीलन का औचित्य

By: Mar 28th, 2021 12:35 am

मो.- 9418130860

अतिथि संपादक : डा. गौतम शर्मा व्यथित

विमर्श के बिंदु

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -25

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी 25वीं किस्त…

डा. चंद्रकांत सिंह, मो.-9805792455

किसी भी देश की वास्तविक उपलब्धि वहां की संस्कृति है। कोई भी देश स्थल-खंड मात्र नहीं होता, अपितु साहित्य, कला, विज्ञान  एवं दर्शन का जीवंत रूप होता है। साहित्य किसी भी राष्ट्र की ज्ञान-चेतना का संवाहक पुल है जिसके ज़रिए देश की संस्कृति प्रतिबिंबित होती है। लोक, संस्कृति का अथाह स्रोत है जिसमें गहरे धंसकर ही संस्कृति को जीवन मिलता है। जब तक वट-वृक्ष की तरह विराट लोक उपेक्षित होगा, तब तक संस्कृति में सच्ची खिलावट नहीं आ सकती। लोकसाहित्य के विविध रूपों लोकगीत, लोकगाथा, लोकनाट्य, लोकवार्ता आदि में लोक की सुंदर छटा देखी जा सकती है। लोक के विविध रूपों का जब तक अध्ययन नहीं होगा, तब तक उसके मर्म तक नहीं पहुंचा जा सकता है। लोक के अध्ययन, अध्यापन, अनुशीलन से ही संस्कृति की जड़ें गहरी होती हैं। एक तरह से कह लें कि संस्कृति देश की आत्मा है जिसका ताना-बाना लोक रूपी शरीर से बनता है। भारत के संदर्भ में कहें तो यहां विविधता में एकता का जो सुंदर रूप है, उसकी सही आख्या-व्याख्या के बिना भारतीय चेतना को नहीं जाना जा सकता। इसलिए विद्यालयों, विश्वविद्यालयों में लोक-संस्कृति के व्यावहारिक पाठ की शिक्षा ज़रूरी है। इसी शिक्षा से युवकों में राष्ट्र के प्रति जुड़ाव पैदा होगा जो उन्हें दूसरों से अलग करेगा। लोक की शिक्षा व्यक्ति को विनयी बनाती है जिसे पढ़कर कोई व्यक्ति अपने लिए नहीं जीता, बल्कि ज्ञान, आचरण एवं शील द्वारा समुदाय एवं राष्ट्र के लिए जीता है। लोक का ज्ञान हमें शिक्षित ही नहीं करता, बल्कि दीक्षित भी करता है। जब तक हमें अपने आसपास का ज्ञान नहीं होगा, जब तक हम अपनी गौरवशाली परंपरा से परिचित न होंगे, हमारी शिक्षा का सही एवं सार्थक उपयोग नहीं है। उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम, भारतीय लोक का अपूर्व विस्तार है।

भारतीय लोक की विपुलता, विविधता की जानकारी ज़रूरी है, तभी भारतीय-बोध को जाना जा सकता है। देश की संप्रभुता, एकता, अक्षुण्णता के लिए लोक का अध्ययन अपरिहार्य है। सही अर्थों में इसी से साहित्य, इतिहास एवं संस्कृति को नई पहचान मिलेगी। लोकसाहित्य की अविछिन्न धारा सदानीरा नदी की भांति प्रवाहित होती है। वाचिक एवं लिखित दोनों ही रूपों में लोक को देखा-परखा जा सकता है। लोक भाषाओं की ध्वनि-व्यवस्था, पद, प्रत्यय आदि की बात करें तो उनका भी सही ढंग से विवेचन-विश्लेषण अपेक्षित है और यह अत्यंत दुष्कर कार्य है जिससे कई बार शोधक बचते हैं। कई बार शोध के नाम पर भाव, विचार एवं संवेदना के बौने रूप दिखते हैं जिससे शोध बाधित होता है। जब गोताखोरों की भांति लोक के भीतर उतरने का हौसला विकसित होगा, तब निश्चय ही साहित्य एवं समाज को नवीन दिशा मिलेगी। अन्यथा शोध के नाम पर जो होगा, वह उथला और एकांगी होगा। लोक के गर्भ में प्रवेश कर मुक्ताएं निकालने के लिए श्रम आवश्यक है। शोधक की अभिरुचि, लगन और अध्ययनशीलता से इस क्षेत्र में नवीन संभावनाओं का द्वार खुल सकता है। लोक-सामग्रियों की सही टीप एवं संग्रह के बाद उसके संपादन एवं प्रकाशन की महती जिम्मेदारी भी उठानी होगी। इसके लिए श्रम, लगन एवं धैर्य का होना आवश्यक है। जब तक लोक की गुम हो चुकी कडि़यों की खोज, उनका संग्रह एवं प्रकाशन कार्य बाधित होगा, लोक की सही तस्वीर खड़ा कर पाना मुश्किल है। एक अर्थों में कहें तो लोक अमूर्त और व्यापक है जिसका विस्तार अथाह है, किंतु उसे मूर्तिमान कर सबके पठन योग्य बनाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य  है।

शोध के स्तर पर कई बार शोधक की दृष्टि परिधि पर चक्कर काटने की रहती है जिससे कई बार महत्त्वपूर्ण तथ्य हाथ नहीं लगते। तथ्यों के सही मंथन के बिना तथ्य से सत्य तक पहुंचने की यात्रा भी बाधित होती है। शोधक को योजनाबद्ध ढंग से लोक का अध्ययन करना चाहिए, तभी उसके अंतरंग पक्ष उद्घाटित हो सकेंगे। साहित्य, शास्त्र एवं इतिहास में बंटा हुआ लोक सदा से जनमानस को आकृष्ट करता आया है। आवश्यकता इसके अध्ययन, अध्यापन एवं अनुशीलन की है। कई बार शोधक एवं शोध-निर्देशक की अभिरुचियों, मान्यताओं आदि में टकराहट देखते बनती है जिससे शोध-कार्य प्रभावित होता है। जब यह मान्यताओं की दूरी समाप्त होगी, तभी शोध की गुणवत्ता में निखार आएगा। लोक के अध्ययन एवं अनुशीलन के लिए जिज्ञासु, कर्मठ शोधार्थियों की आवश्यकता है जिनके भीतर सीखने की प्रवृत्ति हो। तभी लोक के दाय को संरक्षित किया जा सकता  है अन्यथा जो भी प्रयास होंगे, वे अटकलपच्चू ही साबित होंगे।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App