छिलके उतर रहे हैं

By: Mar 1st, 2021 12:05 am

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक

अचानक अखबार से आए फोन के कारण मैं प्याज के दाम की तरह उछला। संपादक को भरोसा था कि मेरे जैसे लोग अब केवल हास्य ही तो पैदा कर सकते हैं, इसलिए अनुरोध था कि कुछ ऐसा लिखूं कि व्यंग्य हो जाए। वैसे मेरा अनुभव यही था, फिर जो लिखा भी था, उसे बिना पढ़े भी घूरते हुए सीनियर साहित्यकार हंस देते हैं। ऐसा लगने लगा था कि जो गुजर गए वही लिख पाए, वरना लेखक होना ही अब हास्यास्पद है। मैंने संपादक महोदय को कहा, ‘पीछे एक-दो किताबों की समीक्षा की थी, कहें तो भिजवा दूं। इससे बड़ा व्यंग्य मैं और क्या लिखूं।’ संपादक ठहरे थे ठेठ साहित्य प्रेमी सो कहने लगे, ‘देश हर रोज खुद से व्यंग्य कर रहा है। सरकार की कोई फाइल पढ़कर लिख दें या इतना भी नहीं तो हमारी अखबार की सामग्री देखने मात्र से पता चल जाएगा कि व्यंग्य किधर जा रहा है।’

इससे बड़ा प्रोत्साहन कोई संपादक क्या दे सकता, लिहाजा मैं अब मीडिया को सिर्फ व्यंग्य मानने लगा हूं। हर दिन मुझे प्रत्येक खबर व्यंग्य सुनाती है। आश्चर्य यह कि अब मैं कोई गंभीर बात सुनना ही नहीं चाहता, ताकि देश से कहीं दूर व्यंग्य न चला जाए। एक पत्रकार मित्र ने सलाह दी कि इस वक्त किसान आंदोलन के भीतर सारे देश का व्यंग्य ही तो असरदार है, वरना सर्दी के मौसम किसे फुर्सत थी कि खुले आसमान के नीचे अपनी बात करे। कुछ लोग मानने लगे हैं कि राकेश टिकैत आंदोलन के नाम पर व्यंग्य कर रहे हैं। केंद्र सरकार के अधिकांश मंत्रियों को विश्वास है कि उनके कार्यों से व्यंग्य की कमी घट रही है, बल्कि नीतियों और कार्यक्रमों में व्यंग्य के लिए रिक्त स्थान छोड़ा जा रहा है। पहले लोग हर कही बात को गंभीरता से लेते थे, इसलिए मजाक नहीं समझ पाते थे। अब मजाक को भी यह समझ नहीं आ रहा कि उसके साथ भी मजाक हो सकता है। ऐसे में विपक्ष अपने भीतर के मजाक को न समझे भी यह समझ सकता है कि उसके कारण व्यंग्य चरितार्थ होने लगा है। मोदी जी ने मजाक में कहा था कि बाहर से ब्लैक मनी आएगी, तो हर भारतीय को पंद्रह लाख मिलेंगे, लेकिन व्यंग्य यह था कि नोटबंदी के बाद घर में रखे भी निकल गए। देश को इस वक्त का व्यंग्य समझ आ जाए, तो सरकार को देखते ही हर कोई मुस्करा पाएगा, वरना यह मौका विपक्ष को मिल जाएगा।

 व्यंग्य भी चाहता है कि वह कभी न कभी कांग्रेस के साथ भी खड़ा हो, लेकिन भाजपा के प्रवक्ता ऐसा होने नहीं देते। बहरहाल, संपादक के आग्रह को टाल नहीं सका और अपने भीतर से व्यंग्य खोजने लगा। मैंने हर कुछ लिखा, क्योंकि संपादक छापने का वादा कर रहा था। अंततः संपादक पर ही लिख डाला। ‘आज के संपादक को समझ लें, तो सत्ता पक्ष समझ आ जाता है। कई बार तो सत्ता भी खुद को समझने के लिए खबरिया चैनल या अखबार की खबर देखती है। उम्रदराज संपादक आजकल खबरों में व्यंग्य पैदा कर रहे हैं। इसलिए बढ़ती महंगाई के प्रमुख कारणों में जनता दोषी निकलती है। लोकतंत्र की कमजोरियों में विपक्ष कितना कसूरवार है, इस जांच में संपादक ही व्यंग्यकार है। अब तेल की धार में पेट्रोल बहता है, इसलिए संपादक भी धारदार हो रहे हैं।’ मेरा व्यंग्य लंबा होता गया और अंत में पूछ बैठा कि मन में जिंदा रहना व्यंग्य है या जिंदा होते हुए मौत का पता न चले तो इस पर भी लिख पाना व्यंग्य है।


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