दो किताबें, हजार फजीहतें

By: Mar 3rd, 2021 12:02 am

अशोक गौतम

ashokgautam001@Ugmail.com

कबीर के साथ अपनी पहचान चौथी-पांचवीं से है। मास्साब ने पीट-पीट कर तब कबीर से मेरी पहचान करवाई थी। उन्होंने पीटते-पीटते कहा था कि जो कबीर से दोस्ती नहीं करोगे तो समाज में आना बेकार। कल उन्हीं कबीर साहब का फोन आया, ‘और बंधु क्या कर रहे हो?’‘कुछ नहीं! जबसे जोड़-तोड़ कर वैचारिक प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का मेंबर हुआ हूं, तबसे समाज में साधिकार वैचारिक प्रदूषण फैला रहा हूं’। कबीर से बात कर रहा था, सो उनसे न चाहते हुए भी सच कहना ही पड़ा, ‘यार! मेरा एक छोटा सा काम था।’ ‘मरने के बाद भी यहां के काम शेष बच जाते हैं क्या कबीर? ‘कहो, क्या काम है?’ ‘यार! वो मैंने अपनी साखी की दो प्रतियां तुम्हारे साहित्य उत्थान विभाग में लेखक को लेखकीय प्रोत्साहन देने वाली धांसू योजना के अंतर्गत दो-तीन साल पहले दी थीं।

 बीसियों फोन कर दिए विभाग में, पर एक तो कोई फोन नहीं उठाता और जो उठा ही दे तो, इधर उधर कर देता है। इकतीस मार्च भी आ रहा है। तुम उनके विभाग में आओ तो पता करना उनका क्या बना?’ कबीर ने कहा तो मैंने उनकी तरह मुंहफट होते उनसे कहा, ‘देखो कबीर! मैं सब कुछ कर सकता हूं। तुम चाहो तो उन दो प्रतियों की गूगल पर पेमेंट भी कर देता हूं, पर प्लीज मुझे वहां जाने को न कहो। साहित्यिक लंगड़े लूलों के बीच धन्ना के कहने पर पहले भी वहां गया था, औरों के लिए फजीहत करवाने की हिम्मत अब मुझमें नहीं।’ मैंने उनसे हाथ जोड़े विनती की तो वे बोले, ‘यार! पता तो कर आना प्लीज मेरे लिए!’ ‘अच्छा चलो! दो चार दिन बाद शहर जाऊंगा। वहां तुम्हारी किताबों के बारे में भी पता कर लूंगा। पर वहां से किताबों की पेमेंट आना भूल जाओ कबीर!’ ‘पर फिर भी यार…सुनत सुनत बकवास के सुजान होत जड़मति…’। …और मैं उस दिन उनके ऑफिस जा पहुंचा। उस वक्त दो किताबों की पेमेंट करने वाले फोन में अति व्यस्त थे।

 हालांकि उन्होंने अपनी पीठ के पीछे लिखा था, यहां फोन करना वर्जित है। ऑफिशियल या पर्सनल, वही जाने। पर मैंने इग्नोर कर दिया। क्योंकि मैं अब तक यह भली भांति जान गया हूं कि ऑफिसों में जो लिखा होता है, वह केवल दिखाने को लिखा होता है, अमल में लाने को नहीं। बीस मिनट तक फोन करने के बाद वे मुझे घूरते बोले, ‘शायद मेरी वजह से अनकंफर्ट हो गए होंगे, सेवा बातइए, हमें क्यों डिस्टर्ब किया?’‘असल में कबीर का फोन आया था कि उन्होंने आपके कार्यालय में लेखकीय प्रोत्साहन हेतु अपनी किताब की दो कापियां जमा करवाई थीं। कह रहे थे तीन साल हो गए। अभी तक पैसे नहीं आए।’ ‘पर तीन साल से किताबें खरीदने को बजट नहीं आया।’ ‘तीन साल से किताबें खरीदने को बजट नहीं आया?’ ‘नहीं आया, तो नहीं आया। क्या कर सकते हैं? जब आएगा तब पे कर देंगे। विभाग बंद तो नहीं हुआ जा रहा। कबीर से कहो, और इंतजार करें।’ ‘वे कह रहे थे जिनके पास वे किताबें छोड़ गए थे, वे रिटायर भी हो गए, पर किताबों की पेमेंट नहीं हुई साहब’। ‘तो क्या हुआ! हम भी रिटायर हो जाएंगे। तब दूसरे आ जाएंगे। वे पेमेंट कर देंगे। वे नहीं करेंगे, तो अगले कर देंगे। पर इसका मतलब ये तो नहीं कि उनकी किताबों की पेमेंट नहीं होगी। सरकारी पैसा है, बंदा मर जाए तो मर जाए, पर पैसा नहीं मरता। …और देखिए, वे क्या करते थे, क्या नहीं, इससे हमें कोई लेना देना नहीं। पर एक बात बताइए, आप अपने कबीर की किताबों की पेमेंट करवाने आए हैं या….हम अपने बारे में सब कुछ सुन सकते हैं, पर अपने विभाग के बारे में सच कतई नहीं सुन सकते। चलो उठिए, जाइए यहां से। जाइए, जाइए… हमें अभी और फोन करना है।’


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