फिर सन्नाटों की कैद में

By: Apr 16th, 2021 12:05 am

कब तक धूल भरे बादल से बारिश की उम्मीद करते, उनके रोजनामचे में शिकायत मौसम के गायब होने की है। यह स्थिति कोरोना वन से टू तक बिखरी व्यवस्था की है और जहां रोते-बिलखते मंजर के आंसू पौंछने का एहसास कराने की व्यथा भी है। सामने दिखाई दे रहा है कि सारे देश के बिगड़ते हालात हिमाचल में दस्तक दे चुके हैं, लेकिन हमारी करवटों के पैमाने अभी ढके हुए हैं। प्रदेश अपने भीतर की सक्रियता में पहले पंचायतों में सियासी झंडे खड़े करता रहा और अब ताज की बुलंदी में नगर निगमों में सत्ता की हिफाजत का रंग चढ़ा है। आदेश तो कड़े होते जाएंगे और बंदिशें भी कबूल होंगी, लेकिन जो पिछले साल से रौंदे गए उन्हें कौन गले लगाएगा। हिमाचल की इन्हीं गलियों में अपने सन्नाटों को तोड़ते कलाकार अगर फरियादी बन कर घूम रहे हैं, तो यह बेरोजगारी का शोर है।

 कलाकारों की व्याख्या में हमारा सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष गवाही देता है और यह स्पष्ट है कि कोरोना काल की तमाम जिल्लतों का ठीकरा इस वर्ग के अनिश्चित भविष्य पर फूटा है। आश्चर्य यह कि हिमाचल का कला, भाषा, संस्कृति विभाग और अकादमी को खुद को ऑनलाइन परफार्मेंस में यह देखने की फुर्सत नहीं कि प्रदेश के भूखे कला-जगत की तकलीफ क्या है। अपनी ऑनलाइन चर्चाओं का दायरा बड़ा करते हुए,संपर्क साधना का बेहतरीन नमूना कुछ अधिकारी पेश कर सकते हैं, लेकिन तमाम कलाओं का संरक्षण तभी होगा अगर कलाकार के पेट की आग बुझेगी। ये लोग कब तक बैठकें करके सरकार के कान में कहने की कोशिश करेंगे या शिष्ट मंडलों के जरिए सत्ता से भर-पेट जीने की अरदास करेंगे। पालमपुर और धर्मशाला में मुख्यमंत्री से मिले कलाकारों के जत्थे जो वास्तविकता रख रहे थे, क्या उससे अनभिज्ञ रह कर भाषा, कला एवं संस्कृति अकादमी की ऑनलाइन श्रृंखला की प्रासंगिकता बची रहेगी। आश्चर्य यह कि कोविड काल में हिमाचल के सुर ढीले नहीं हुए, बल्कि सुर साधना के परिवेश को चोट लगी है। ऐसे में कला व संस्कृति महकमे के औचित्य से यह तो गुजारिश रही कि वह इस दौर की त्रासदी में फंसे हिमाचल के कलाकारों का कम से कम हाल चाल ही पूछ लेता। जाहिर है कलाओं के संरक्षण में हिमाचल के अनेक बिंदु हैं, फिर भी लोक-गीत संगीत जैसी विधाओं में जो लोग अपनी जिंदगी लगा रहे हैं, उन्हें यह पूछने का हक है कि कोविड काल में उनके लिए सरकार क्या कर रही। हिमाचल की गायन परंपराएं ही नहीं, बल्कि वाद्ययंत्रों से जुड़े समाज का एक पहलू हमेशा से जिंदगी का एहसास कराता है। ऐसे में कला को इवेंट बना कर छोड़ दें या यह सोचें कि शादी या सांस्कृतिक समारोहों में बैंड-बाजों के अलावा पारंपरिक वाद्ययंत्रों का प्रदर्शन करते कलाकारों को प्रदेश की थाती मानते हुए किस हद तक प्रश्रय दें। विडंबना यह है कि हिमाचल का कलात्मक पक्ष भाषा विभाग के संज्ञा में ग्रसित है।

 ऐसे में कला एवं संस्कृति के उद्देश्य को अलग करते हुए अकादमी बनानी होगी जिसका नेतृत्व कोई कला साधक करे, वरना भाषा अकादमी के नखरों का नूर, श्रोतों व दर्शक रहित मंचन के सिवाय और कर भी क्या सकता है। प्रदेश का बहुसंख्यक समाज जिस संस्कृति, लोक गीत-संगीत, परंपराओं व कलात्मकता का निर्वहन करता है, उसके परिप्रेक्ष्य में कलाकारों को यथोचित सम्मान व प्रश्रय मिलना चाहिए। कोविड काल अब नई परिस्थितियों का ऐसा जखीरा पैदा कर रहा है,जहां सदमे में पहुंच चुके पर्यटन व परिवहन क्षेत्र के प्रति फिर से चिंतन करना होगा। राजनीतिक आसमानों से फिर से पूछना पड़ेगा कि इनके नीचे राहगीर की दुनिया का खालीपन भी यही है कि रास्तों के कांटे क्यों देखे नहीं जा रहे। प्रदेश अपनी हुकूमत के हर्ष में यह कैसे भूल जाए कि जिन नगरों को उसने महानगर बना दिया, वहां के हर कोने में कोविड का प्रहार छिपा है। बेशक चार महापौर बनाने के बाद सियासी बोली व टोली ऊंची नजर आए, लेकिन  नीचे जमीन पर आर्थिकी के सितारे हताश और निराश होकर गिरे हैं। वक्त हर मोड पर राजनीति को देख कर भले ही आगे बढ़ जाए, लेकिन जो फासले कोविड काल में पैदा हो चुके हैं, उनका दर्द हम सबके साथ चल रहा है। सरकार केवल सार्वजनिक क्षेत्र की चोंच में कर्ज की खुराक भर कर इतिश्री नहीं कर सकती, बल्कि बेसहारा हो रहे हिमाचल के उस दर्द को भी मरहम की जरूरत है, जो पिछले एक साल से अपनी चीख को दबाए बैठा है।


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