कोरोना से चुनावी साझेदारी

By: Apr 20th, 2021 12:05 am

भाजपा के वरिष्ठ नेता शांता कुमार वही कह रहे हैं, जो देश के अधिकांश नागरिक कह रहे हैं, फिर भी सियासत के चूल्हे ठंडे नहीं हो रहे। शांता कुमार ने आस्था और राजनीतिक भीड़ के साथ-साथ सामाजिक महफिलों पर प्रश्न उठाते हुए ऐसी तमाम गतिविधियों पर अंकुश लगाने की मांग की है। यह मांग प्रदेश और देश में भाजपा सरकारों से ही है। विडंबना यह रही कि दोनों सरकारों की व्यस्तता में चुनावी श्रृंखला को बरकरार रखने की जद्दोजहद में आम जनता भी मतदाता से ऊपर दिखाई नहीं देती। कोविड खतरे के सामने चुनावी जीत का परचम हर बार अपने रंग में रंगने के उतावलेपन में सरकारें यह कौन सा संघर्ष कर रही हैं कि जीवन के रंग फीके नजर आ रहे हैं। पश्चिम बंगाल में चुनाव का दूसरा छोर हर चरण में लंबा हो रहा है और नेताओं का जलसा भी कम जोशीला नहीं। रैलियों की प्रतिस्पर्धा में कौन किसे हरा रहा है या रोड शो के फ्रेम में कौन बेहतर हो रहा है, इससे हट कर देखें तो पिछले साल के मुकाबले देश की स्थिति कोरोना से  मुकाबला करने में कहीं पिछड़ गई है। हर दिन के आंकड़ों में कितने भारत चीखते हैं, यह सुनने के बावजूद अगर केंद्रीय सरकार केवल दो मई के इंतजार में चुनावी संगीत सुनना चाहती है, तो यह भौंडा प्रदर्शन ही होगा। कुछ इसी तरह हिमाचल के परिदृश्य में हमने पिछला दौर चुनाव की शरण में डाल दिया।

 स्थानीय निकाय चुनावों में लगभग पूरा प्रदेश चला है। घर से मतदान केंद्र तक पहुंचे समाज को बेशक चुनाव परिणाम मिल गए या प्रदेश में जश्न मनाती सियासत ने अपने लिए चिकनी चुपड़ी बातें चुन लीं, लेकिन जिन घरों में जिंदगी के दीप बुझ रहे हैं उनकी फेहरिस्त में लोेकतांत्रिक जीत के कितने मायने बचे होेंगे, यह भी तो जान लें। यहां शांता कुमार भी अपनी अंगुली से चस्पां मतदान की सियाही से ही सवाल पूछ रहे हैं और यही हाल हम सभी मतदाताओं का भी है। पश्चिम बंगाल में तीव्रता से बढ़ते कोरोना के मरीजों के हाथों में भी मतदान की सियाही तब कम कुपित नहीं होगी, जब राजनीतिक सत्ता के लिए कोई न कोई व्यक्ति कोरोना के कारण मौत का शिकार बनेगा। इस दौरान देश के सामने लज्जा के दो बड़े सवाल पैदा हो रहे हैं। पश्चिम बंगाल के आठ चरणों के चुनाव में राजनीतिक श्लाघा का पक्ष और विपक्ष दोनों ही दोषी हैं और ऐसे में मतदान की अपील भी कम घातक नहीं है। दूसरे पवित्र गंगा की दुहाई में आस्था का वीभत्स स्वरूप और क्या होगा। ये दोनों ही कम शर्मनाक मंजर नहीं और इसी के साथ हिमाचल की हालिया शेखियां भी कम लज्जाजनक नहीं, जब छोटे-बड़े हर मंच पर तू तू-मैं मैं की सियासत में दोनों ही दल खुद को मापते रहे हैं। देश को चुनाव के जरिए चलाने की वर्तमान होड़ में सत्ता का यह दौर भयावह है। देश की सूचनाओं में कोरोना का कहर अगर मीडिया के लिए भी एक छोटी सी जगह है, तो देश की बड़ी जगह को बर्बाद होने से कौन रोक सकता है। कोरोना काल ने देश की फितरत में सत्ता और सत्ता की फितरत में समाज को देखा है।

 इस दौरान भारत की भूख और भूखे भारतीयों की तादाद का अंदाजा न महाकुंभ और न ही चुनावी रैलियों का जोश लगा रहा है। पलायन के महाकुंभ में जो मजदूर कोरोना चरण एक में रहे, वही अब अपनी नाउम्मीदी से फटे पांव घर लौट रहे हैं। जिनकी नौकरियां छीनी गईं या मासिक पगार की कतरब्यौंत हो गई, उनके नाम पर तो राजनीति को एक भी मुद्दा नहीं सूझा। ओ दीदी, ओ दीदी के नारों में प. बंगाल चुनाव के सबूत राजनीतिक दरियादिली का मंजर भले ही चमका दें, लेकिन कोरोना से यह कैसी साझेदार जो देश की प्राथमिकता को महज चुनाव बना रही है। ऐसे में महाकुंभ की आस्था भी कहीं राजनेताओं से ही प्रोत्साहित तो नहीं। बिना मास्क और बिना दो गज दूरी के जो चुनावी रैलियां हो रही हैं, उनके लिए देश के सिद्धांत हैं क्या। शांता कुमार ने फिर साहस करके अपनी ही सरकारों को आड़े हाथ लिया है। विडंबना यह कि अब शांता कुमार सरीखे नेताओं को उनका अपना संगठन सुनना नहीं चाहता और यह भी कि चुनाव आयोग मात्र सत्ता की रसीद बन गया है। देश की प्राथमिकताओं में लोगों ने रोजगार, परिवार और व्यापार खोया। बच्चों ने अपने भविष्य के सपने गिरवी रख दिए और असमंजस के बीच समाज हर दिन सरकारों के आदेश पर कभी नाइट कर्फ्यू, कभी वीकेंड लॉकडाउन या तमाम बंदिशों के बीच खुद को एक प्रदर्शनी के मानिंद सजा रहा है, लेकिन दूसरी ओर चुनावों को सिर पर चढ़ाकर नेताओं का अति निर्लज्ज व्यवहार हमारे लिए फिर से कोरोना विस्फोट लिख रहा है।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App