पतिमुक्त पंचायतों से महिला सशक्तिकरण

महिला प्रत्याशी के विजय होने पर लोग उस महिला को कम, उसके पति, पुत्र, पिता, ससुर को अधिक मुबारकबाद देते हैं। चौराहों पर चर्चा होती है कि फलां की घरवाली जीत गई। आखिर कब हम महिला के अस्तित्व, सामर्थ्य, अस्मिता व गरिमा को सम्मान देंगे? स्पष्ट है कि जब महिला जीत कर या मनोनीत होकर आई है तो उसे पूर्ण रूप से कार्यभार संभालने दो। फैसले लेने दो। महिला को आत्मनिर्भर बनना चाहिए। चुनौतियों को स्वीकार करना चाहिए…

संविधान निर्माता डा. भीमराव अंबेडकर ने कहा था, ‘किसी भी कौम का विकास उस कौम की महिलाओं के विकास से मापा जाता है।’ भारत में आजादी की लड़ाई के बाद संविधान विशेषज्ञों ने महिलाओं के पिछड़ेपन को ध्यान में रखते हुए उनकी सहभागिता पर बल दिया तथा संविधान में बराबरी का दर्जा दिया। हमारा संविधान न केवल महिला-पुरुष समानता का पक्षधर है, अपितु महिला सशक्तिकरण का एक सुनियोजित मार्गदर्शन भी प्रस्तुत करता है। यूनेस्को की वैश्विक शिक्षा निगरानी रिपोर्ट में स्पष्ट किया गया है कि महिलाओं एवं लड़कियों को स्कूली किताबों में कम प्रतिनिधित्व दिया गया है। यदि शामिल भी किया गया है तो उन्हें पारंपरिक भूमिकाओं में दर्शाया गया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक किताबों में महिला पात्रों की फोटो पुरुषों की तुलना में कम  होती हैं। वहीं महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम आंका जाता है, जबकि धरातली सत्य यह है कि आज महिलाएं प्रशासनिक, चिकित्सा, मिलिट्री, शिक्षण, अंतरिक्ष, सुरक्षा, वित्तीय प्रबंधन, उद्योग, यानी सभी जगह अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही हैं। बेटियां मां-बाप की अर्थी को कंधा और मुखाग्नि दे रही हैं। हिमाचल प्रदेश में हाल ही में पंचायत चुनाव संपन्न हुए हैं।

नई पंचायतों ने कार्य करना प्रारंभ कर दिया है। महिला सशक्तिकरण को बल प्रदान करने हेतु पंचायतों में पचास प्रतिशत आरक्षण क्रियान्वित है। इस बार प्रदेश में कुल 3615 ग्रामीण पंचायतों के प्रधानों में से 1828 पद महिलाओं के लिए आरक्षित थे। यानी कम से कम 1828 पंचायतों की बागडोर महिलाओं के हाथ में है। यदि चुनाव की बात करें तो अधिकतर राजनीतिक पारिवारिक पृष्ठभूमि वाली महिलाएं ही प्रत्याशी होती हैं। अच्छा खासा रसूख, ऊंचा राजनीतिक कद व प्रभावशाली परिवार महिला सीट आरक्षित होने पर झट अपने घर की महिला को मैदान में उतार देता है। उस महिला की पहचान केवल इतनी होती है कि वह फलां की पत्नी है, फलां की बहू है, फलां की बेटी है। समाचार पत्रों की सुर्खियों में भी महिला प्रत्याशी का परिचय पुरुष प्रधान हेडिंग से रंगरेज होता है। चुनावों के बैनर महिला सशक्तिकरण को ठेंगा दिखाते हुए प्रतीत होते हैं। वोट अपील में महिला प्रत्याशी के नाम के साथ उसके महत्त्वाकांक्षी पति, प्रभावशाली ससुर, पिता का फोटो छपा होता है। यानी ग्रामीण राजनीति आज भी पुरुष आधारित, पुरुष संचालित व पुरुष प्रधान है। चुनावों में उतरने वाली महिलाओं की पहचान, अस्तित्व व आधार उनका पति, पिता, ससुर व रसूखदार परिवार है। अब अगला पहलू देखिए। चुनाव जीतने के पश्चात शपथ ग्रहण, सिंहासन ग्रहण करते ही पति की बांछें खिल जाती हैं। अब वह इतने अधिकार प्रयोग करना चाहता है जितने कि शायद खुद जीतने पर भी न कर पाता। ऐसे किस्से अक्सर पढ़ने, सुनने व चर्चा में मिलते हैं कि मीटिंग, अफसरों से मुलाकात, पंचायत के कार्य, बजट वर्गीकरण, सत्यापन, निरीक्षण व मोहर का उपयोग पति कर रहे हैं। यानी मोहर पति की जेब में, पत्नी मात्र मोहरा। फैसले, आकलन, समीक्षा पति ही कर रहे हैं। महिला केवल नाम तक सीमित है। चुनाव जीतने के बाद वह फिर बच्चों, रसोई, घर के कामकाज व पारिवारिक जिम्मेदारियों में सिमट जाती है। स्वयं कोई फैसला नहीं ले पाती। यदि किसी तरह पंचायत की बैठक में विद्यमान भी है तो फैसले उसका प्रिय पति, रिश्तेदार व सगे संबंधी ले रहे हैं। महिला सशक्तिकरण हस्ताक्षर तक ही सिमट रहा है। सरकार व पंचायती राज विभाग इसका कड़ा संज्ञान लेता है। पंचायती राज विभाग के पत्र संख्या पीसीएच-एचए-15.7.95, दिनांक 4-5-2006 में पंचायत के कार्यों में, निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के पति व अन्य पुरुष रिश्तेदारों के हस्तक्षेप को रोकने बारे दिशा निर्देश जारी किए गए हैं। अमरीका  की उप राष्ट्रपति कमला हैरिस ने संयुक्त राष्ट्र में अपने पहले संबोधन में कहा है कि लोकतंत्र का स्तर महिलाओं के सशक्तिकरण पर निर्भर है। निर्णय लेने की प्रक्रिया से उन्हें बाहर रखना इस ओर इशारा करता है कि ‘लोकतंत्र में खामी’ है। महिला के पति, परिवार, समाज व व्यवस्था को महिला के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना होगा।

महिला प्रत्याशी के विजय होने पर लोग उस महिला को कम, उसके पति, पुत्र, पिता, ससुर को अधिक मुबारकबाद देते हैं। चौराहों पर चर्चा होती है कि फलां की घरवाली जीत गई। आखिर कब हम महिला के अस्तित्व, सामर्थ्य, अस्मिता व गरिमा को सम्मान देंगे? स्पष्ट है कि जब महिला जीत कर या मनोनीत होकर आई है तो उसे पूर्ण रूप से कार्यभार संभालने दो। फैसले लेने दो। महिला को आत्मनिर्भर बनना चाहिए। चुनौतियों को स्वीकार करना चाहिए। महिला को पंचायत के सभी कार्य गांववासियों, अन्य प्रतिनिधियों व सरकारी कर्मचारियों के सहयोग से करने चाहिए। महिला जब स्वयं सत्ता संभालेगी, फैसले लेगी, विकास करेगी, लोगों की समस्याओं का निराकरण करेगी, तभी सही अर्थ में महिला सशक्तिकरण होगा तथा ग्रामीण लोकतंत्र मजबूत व सुदृढ़ होगा। इक्कीसवीं शताब्दी में हमें सामाजिक परिवर्तन करना होगा। महिला प्रधान को पहचान उसकी प्रतिभा से देनी होगी, न कि पति से। महिला-पुरुष के बीच की खाई को पाटना होगा। अभी कुछ दिनों पूर्व काजा पंचायत की प्रधान सोनम डोलमा ने महिला ग्राम सभा में मॉडल पंचायत बनाने के लिए व आने वाली पीढ़ी के भविष्य निर्माण हेतु जुआ व ताश पर प्रतिबंध लगाया है तथा पकड़े जाने पर 40 हज़ार रुपए के जुर्माने का प्रावधान किया है। यह वाकई प्रशंसनीय है तथा पूरे प्रदेश की पंचायतों के लिए नजीर है। जब महिला स्वयं फैसले लेगी, तभी महिला-पुरुष का फासला मिटेगा। समाज सशक्त होगा। आखिर गरीबमुक्त, भ्रष्टाचारमुक्त व पतिमुक्त पंचायतें ही विकास की इबारत लिख पाएंगी और सही मायने में हम महिला सशक्तिकरण की ओर अग्रसर हो सकेंगे।


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