स्वास्थ्य ढांचा बेनकाब!

By: Apr 16th, 2021 12:05 am

पहला दृश्य झारखंड की राजधानी रांची के सदर अस्पताल का है। पिता के शव के पास एक बेटी चीत्कार कर रही थी- ‘कोई डॉक्टर नहीं आया…बार-बार चीखती रही, तब भी कोई नहीं आया…पार्किंग में ही मेरे पापा की मौत हो गई। मंत्री जी! क्या आप मेरे पिता को लौटा सकते हैं? आपको सिर्फ  वोट चाहिए, बेशक जनता मरती रहे।’ संयोगवश स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता अस्पताल में ही आए हुए थे। चीत्कार के सामने वह खामोश खड़े रहे। क्या बोलते…? दूसरा दृश्य बिहार की राजधानी पटना के एक अस्पताल का है। स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे मुआयना करने अस्पताल आए हुए थे। उसी दौरान एक पत्नी चीख-चीख कर, ज़मीन पर बैठी, गुहार कर रही थी- ‘मेरे पति को बचा लो…वह घंटों से एंबुलेंस में ही तड़प रहे हैं। कोई नहीं आया है देखने…!’ अंततः उस महिला के पति की मौत हो गई। महिला और उसके बेटे का रुदन इतना मर्माहत था कि कलेजा चीर कर रख दिया था! एक बेटी और एक पत्नी की चीखें सत्ता  और व्यवस्था ने नहीं सुनी होंगी, क्योंकि वे तो बहरी होती हैं। हालांकि आंखों से तमाम विद्रूप और कुरूप  सच दिखाई दिए होंगे! गुजरात में एक बेटे ने अपना मजबूर दर्द यूं बयान किया-‘अस्पताल में बेड और इलाज नहीं दे सकते, तो मेरे पिता को मौत का इंजेक्शन ही दे दो। कम से कम उनका तड़पना तो बंद होगा।’ अहमदाबाद में राज्य के सबसे बड़े अस्पताल के बाहर एंबुलेंस की एक कतार लगी है। उनमें कोरोना के गंभीर मरीज हैं। वे हांफ रहे हैं, क्योंकि ऑक्सीजन कम हो गई है।

 वेंटिलेटर बाहर नहीं लगाए जा सकते, लिहाजा सांस उखड़ रही है। एंबुलेंस में ही कुछ को ऑक्सीजन देने या दूसरी स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने की कोशिश की जा रही थी। सड़क पर ही इलाज…अस्पताल में बिस्तर खाली नहीं है, लिहाजा कुर्सी पर बिठा कर ही इलाज किया जा रहा है। एक और वीभत्स दृश्य का उल्लेख करना चाहेंगे, जिससे स्पष्ट होगा कि हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था कितनी संवेदनहीन और अधूरी है! दृश्य यह था कि एक शव को कूड़े की थैली में लपेट-बंद कर श्मशानघाट भेजा जा रहा था। कचरे की गाड़ी में शव लादे जा रहे थे। एक साथ 35  शवों का कथित अंतिम संस्कार किया जा रहा था। अब तो यह सवाल भी उठता है कि क्या हमारी व्यवस्था में अंतिम संस्कार का मानवीय सम्मान भी हासिल होगा या नहीं? खुद लखनऊ के जिलाधिकारी का बयान सार्वजनिक हुआ है कि लोग सड़कों पर मर रहे हैं। हम क्या कर सकते हैं? क्या सरकार और प्रशासन की जवाबदेही इतनी-सी रह गई है? फोर्टिस अस्पताल के निदेशक डा. कौशल कांत मिश्र ने खुलासा किया है कि देश भर के अस्पतालों में कुल बिस्तर 20 लाख के करीब हैं। उनमें से करीब 5 लाख आईसीयू बेड हैं। क्या देश की करीब 139 करोड़ की आबादी के लिए बिस्तरों की यह संख्या पर्याप्त है? नतीजतन आम आदमी बीमारी और महामारी में तड़प-तड़प कर मर रहा है। देश के नेताओं, अमीर लोगों और वीआईपी जमात को कोई परेशानी नहीं है, क्योंकि उनके लिए बिस्तर खाली और आरक्षित (अघोषित तौर पर) रखे जाते हैं। ये तमाम दृश्य टीवी चैनलों पर दिखाए गए। इनकी सूची बहुत लंबी और अंतहीन हो सकती है।

 इसे तो दरिंदगी की हद ही कहेंगे कि मध्यप्रदेश के शिवपुरी के जिला अस्पताल में एक वार्ड ब्वॉय ने एक मरीज का ऑक्सीजन सपोर्ट ही हटा दिया। नतीजतन मरीज की मृत्यु हो गई। डॉक्टर कुछ भी दलीलें देकर अपने सहायक कर्मचारी को बचा सकते हैं, लेकिन यह जांच का मुद्दा है। बहरहाल इन दृश्यों के जरिए एक ही सवाल उठता है कि पिछला लॉकडाउन तो 68 दिन का था। उस कोरोना-काल  में जब सरकार स्वास्थ्य ढांचे को दुरुस्त कर रही थी, तमाम तैयारियां की जा रही थीं, तो अब संक्रमण की नई लहर के जबरदस्त प्रहार के दौरान व्यवस्था चरमरा क्यों गई है? ऐसी टिप्पणियां प्रमुख डॉक्टरों की हैं, जो व्यवस्था के अधूरेपन के सवाल उठाकर देश को सचेत कर रहे हैं। राजधानी दिल्ली में भी स्थितियां हाथों के बाहर हो चुकी हैं। कई अस्पतालों में 200-300 की प्रतीक्षा-सूची है। अस्पताल टेलीफोन नहीं उठा रहे हैं। कोई भी सूचना पूरी नहीं है और संक्रमण पिछली लहर से दोगुना हो चुका है। देश भर में संक्रमित मरीजों का आंकड़ा 2 लाख को पार कर चुका है। वरिष्ठ डॉक्टर मान रहे हैं कि यह संख्या 3 लाख रोज़ाना से भी बढ़ सकती है। क्या वह नौबत भी आने वाली है कि आम आदमी को लावारिस की तरह मरने को छोड़ दिया जाए?


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