हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

By: Apr 4th, 2021 12:06 am

अतिथि संपादक : डा. गौतम शर्मा व्यथित

विमर्श के बिंदु

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -26

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

डा. गौतम शर्मा व्यथित, मो.-9418130860

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी 26वीं किस्त…

लोक का लोक परंपराओं से घनिष्ठ संबंध है। इसकी परिभाषा भी लोकसाहित्यविदों ने इस प्रकार दी है- जो अपनी परंपरा में जीता है, वही लोक है। न यह अनपढ़ है, न अनभिज्ञ, वर्तमान को समझता है, भविष्य की आशाएं पालता है। गांव, शहर, महानगर, जहां भी रहता, जीवनयापन करता, वहां अपनी परंपराओं को जीवंत रखता है। आप स्वयं जानते हैं हर नगर के किसी कोने में कोई ऐसी बस्ती, झुग्गी-झोंपड़ी, खोली अवश्य मिलती-दिखती है, जो वर्ष भीतर आने वाले पर्व-त्यौहारों और मौसम के बदलने के साथ ढोल की थाप से गमक उठती है, किसी पुरखी गायन से महक उठती है। हम सहसा कह उठते हैं, आज बस्ती में कोई पर्व है। हिमाचल का ‘लोक’ जिलों के भूगोल के अनुरूप जनजातीय तथा समतलीय दो भागों में बंटा है।

हर क्षेत्र में हर मौसम स्थानक परंपराओं के रूप में अनेक रंग, रस, नृत्य, गायन, देवरथ यात्राएं, मेले, छिंजें, पर्व-त्यौहार लेकर लोकमानस के मनोभावों को अनेक व्याख्या देते रूपायित करते अपनी पहचान को बनाए रखने का अनायास प्रयास करते हैं। इन्हीं परंपराओं को धारण करता, पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है जनपदीय लोकमानस। इन्हीं की पृष्ठभूमि या आधार भूमि हैं यहां के लोकगीत, गाथाएं, कथाएं, लोकनाट्य, कहावतें, मुहावरे आदि। हिमाचली इतिहास लोक परंपराओं से कितना संबंधित है या लोक परंपराओं का यहां के इतिहास से क्या संबंध है, यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रश्न है जिस पर चर्चा की ही नहीं, बल्कि शोध की भी आवश्यकता है। यहां शब्द सीमा को दृष्टि में रखते यह कहना सही होगा कि किसी भी देश, जनपद का इतिहास वहां की परंपराओं में खंगाला जा सकता है।

निःसंदेह यह कार्य परिश्रम और समयसाध्य है। इसीलिए ऐसे विषय लोकसाहित्य में अभी तक शोध का विषय या चिंतन बिंदु नहीं बन रहे। इसके लिए शोध छात्र व शोध मार्गदर्शक दोनों को यहां के इतिहास और परंपराओं का पूरा ज्ञान या समझ अपेक्षित है। इतिहास और लोक परंपराएं, ये विषय भी श्रमसाध्य हैं। विशद अध्ययन व परामर्श की जरूरत के साथ सही निर्देशन की अपेक्षा भी रखते हैं अन्यथा ‘सात अंधों और हाथी की कहानी’ ही चरितार्थ होती है। मैंने जो हिमाचल घूमा, पढ़ा, सुना और देखा, उसके आधार पर यह कह सकता हूं कि हिमाचली इतिहास को जानना लोकसाहित्य, लोक संस्कृति और लोक परंपराओं को जाने, पढ़े, समझे बिना संभव नहीं। किन्नौर, लाहुल-स्पीति, चंबा-पांगी, सिरमौर, कहलूर, कांगड़ा, मंडी क्या, हर क्षेत्र की लोक परंपरा और लोक कथाओं, लोक गाथाओं, यहां तक प्रकीर्ण साहित्य में भी इतिहास की घटनाएं झांकती, संवाद करती हैं।

इस दिशा में नेरी (हमीरपुर) स्थित शोध संस्थान के प्रयास जारी हैं, सराहनीय हैं। मैं वर्तमान की उस परंपरा का उल्लेख करना चाहता हूं जो जन्मदिवस पर केक काटने व मोमबत्ती जलाने-बुझाने की आम घरों में घर कर गई है। इसी परंपरा पर गंभीरता से सोचें तो आपको भारत में आई किसी इतिहास की घटनाओं, उसकी संस्कृति, भाषा-वेषभूषा के अनेक कथा बिंदु सहजता से मिलेंगे। हम विवाह संस्कार के समय अपनी वैदिक-लौकिक परंपराओं के अनेक रूप-विधान देखते हैं, बड़े चाव से उनमें अपनी भागीदारी निभाते रहे हैं, परंतु दशकों पूर्व आया मैरिज पैलेस का कान्सैप्ट और ब्यूटी पार्लर की परंपरा हमारी उन पूर्व कालीन परंपराओं को नए ढांचे-सांचे में देखने, अनुपालित करने में अपने भीतर आधुनिक होने के सबूत देने में तत्पर है।

हम न चाहते हुए भी उस ओर उन्मुख हो रहे हैं। ये सब समय के इतिहास के प्रभाव हैं जो हमारी परंपराओं में प्रतिबिंबित हो रहे हैं, पूर्व काल में हुए हैं। सत्ता या राजा इतिहास रचते हैं, जिसमें उनकी एषणाएं, महत्त्वाकांक्षाएं, परिवर्तन झलकते हैं। तदानुरूप उभरता है समाज का स्वरूप और विकसित होती हैं परंपराएं। शायद तभी ब्रिटिशर्ज ने भारत में अपनी सत्ता को फैलाने, सुदृढ़ बनाने हेतु यहां की ‘फोकलोर’ लोकवार्ता के संग्रह, प्रकाशन और अध्ययन पर जोर दिया। ‘इफ यू वांट टू रूल, अंडरस्टैंड दि फोक एंड फोक लाइफ’। अतः परंपराओं का इतिहास से ताल्लुक है, इसमें दो मत नहीं। हमारे पहनावे, खानपान, भाषा, रहन-सहन संबंधी परंपराओं में इतिहास संवाद करता है। आवश्यकता है गहन अध्ययन की।


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