चंबयाली लोकसाहित्य में रामायण का ऐतिहासिक महत्व    

By: Apr 11th, 2021 12:05 am

चंचल सरोलवी

मो.-9418453314

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी 27वीं किस्त…

चंबा लोकसाहित्य की अनेक विधाओं में लोक गाथा गायन की भी समृद्ध परंपरा प्रचलित है। इन विधाओं में ऐंचल़ी व मुसाधा का विशेष स्थान है! ऐंचल़ी और मुसाधा लोक गाथा गायन की शैली में अंतर पाया जाता है। ऐंचल़ी में तो केवल गाथा का गायन होता है, परंतु मुसाधा में गाथा गायन का प्रसंग गाने के उपरांत बीच-बीच में स्थानीय भाषा में उसकी व्याख्या कथा के रूप में की जाती है। ऐंचल़ी गायन में चार लोक गायक कलाकार होते हैं, जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘बंदे’ या ‘ऐंचलेडे’ कहते हैं। मुसाधा गायन में मात्र दो कलाकार होते हैं। पुरुष कलाकार को ‘घुराई’ और स्त्री कलाकार को ‘घुरैण’ कहते हैं। मुसाधा लोक कलाकार शायद विश्व में पहला लोक कलाकार है जो एक साथ दो वाद्य यंत्रों को बजाते हुए गाता है।

 एक हाथ में वाद्ययंत्र खंजरी से ताल बजाता है और दूसरे हाथ से गले में लटका वाद्य यंत्र रुबा ना (तार वाद्य) से संगीत देते हुए गाता है। घुरैण (स्त्री कलाकार) हाथों में कंसी बजाते हुए गाने में साथ देती है। ऐंचल़ी लोक गाथा और मुसाधा लोक गाथा नुआल़ा उत्सव में गाई जाती हैं। नुआल़ा यानी भगवान शिव के निमित्त पूजा है, जिसे विशेष पारंपरिक लोकाचार विधि से किया जाता है। चार लोक गायक अपने लोक वाद्य यंत्रों के साथ गाते हैं। पहले दो लोक कलाकार अपने ढोलक और नगाड़ा की ताल पर पहली कड़ी गाते हैं तो दूसरे दो व्यक्ति (लोक कलाकार) जिनमें एक के पास घड़ा (कुंभ) पर उलटी कांसे की थाली रखी होती है, उसे लगभग एक फुट लंबी बारीक लकड़ी की छड़ी से बजाते हुए प्रथम गाई हुई कड़ी को दोहराते हैं। मुसाधा लोक गायन का आयोजन नई फसल होने पर लोक गायक घर-घर जाकर अपना गायन सुना कर भी नई फसल बधाई के रूप में प्राप्त करते हैं। एक प्रसंग यहां उदृधत है जिसमें महर्षि विश्वामित्र राजा दशरथ को समझाते हुए कहता है कि जो तेरे सात कुल (वंश) जलमग्न हुए हैं, उनके उद्धार के लिए तुम कौशल्या से विवाह कर लो। राम का अवतार होगा, तेरे वंशजों को स्वर्ग प्राप्ति होगी, राक्षसों का संहार होगा, तेरे पाप भी समाप्त हो जाएंगे। प्रस्तुत है लोक गाथा का मूल अंश : ‘सत्त कुल तेरे जला विच डुब्बे हो, ते सेईयो कुल तरण तेरे स्वर्गा !! 1!! सत्त कुल तेरे…ते विस्वामित्र लगा वो समझाणा  हो, ते सुणे दस्सरथा तू गल मेरी हो!! 2!! ते विस्वामित्र…ते गढ़लंका वसदा कोई राजा हो, ता अठकौंसल राजा वो लोढा हो!! 3!! ता तिस राजे दे घरे कोई कन्या हो, तिस कन्या दा नां कुसल्लेया हो!! 4!! ता तिस कन्या जो राजा तू वियाल्ला हो, ता तां हूणे घरे राम अवतारा हो!! 5!! तां तेरे सत्त कुल वो तरी जाणे हो, ते तेरी जुद्देया था होणा उजाला हो!! 6!! ते तेरी देही दे पाप घटी जाणे हो, ते राजा असूर संघार होई जाणे हो!! 7!!’ मुसाधा : प्रस्तुत लोक गाथा मुसाधा में पंचवटी का संक्षिप्त वृत्तांत है। एक दिन पंचवटी के जंगल में राम और लक्ष्मण सीता संग शिकार खेलने के लिए गए हुए थे।

 विश्राम करने के लिए एक वृक्ष के छांव तले बैठ गए। उस वृक्ष पर बहुत सी चिडि़यों के बच्चों ने शोर मचाया हुआ था। लक्ष्मण बहुत क्रोधित हुए और अपने धनुष बाण से उन्हें मारने लगे। राम ने लक्ष्मण को समझाया कि यह जंगल के पंछी हैं। यह बोलते ही रहते हैं। इन्हें मत मारो, इन्होंने हमारा क्या बिगाड़ा है। अतः तुम शांत हो जाओ और आराम करो। परंतु लक्ष्मण नहीं माना और अपने धनुष बाण से चिडि़यों के बच्चों सहित घोंसला नीचे जमीन पर गिरा दिया। बच्चे सब मर गए। प्रस्तुत लोक गाथा का थोड़ा सा मूल अंश : ‘इक्क ता रामा कैसे वरतोरे, राम जाणे हो, महाराज जाते हो जी…2, राम लछमण ते सीता अनार, राम जाते हो, महाराज जाते हो जी…2, पंचवटी मझ डेरे थिए लगोरे, राम जाणे महाराज जाणे हो जी…2’। व्याख्या : कथा के रूप में स्थानीय भाषा में…जी साहब जी था इक्क दिन कदेया वरतोरा जी, भगुआन राम लछमण ते सीता माता ने पंजवटी मझ डेरा लाई थिए वठोरे ते चोदाह साले था वणवास दिए गुजारणा लगोरे फिर अग्गे कै हुन्दा सुणा महाराज जी! गाथा पदों में इतिहास : ऐंचल़ी लोक गाथा के सात पदों में राजा दशरथ के सात वंशों के जलमग्न होने तथा विश्वामित्र द्वारा उनके उद्धार के लिए कौशल्या से विवाह करने का प्रस्ताव ऐतिहासिक है। विष्णु के सप्तम अवतार की पृष्ठभूमि गाथा के इन सात पदों में निबद्ध है। रामायण के इस ऐतिहासिक आख्यान को गाथाकार ने अपनी बोली में निबद्ध किया है। ऐंचल़ी गायन वस्तुतः श्रुति परंपरा से चला करता है। यह गायन एक विशिष्ट परंपरा में चला करता है। रामायण के कथानक और उपाख्यान पृथक-पृथक रूप से इस गायन परंपरा में प्रस्तुत किए जाते हैं। मुसाधा गायन में पहले गाथा प्रस्तुत की जाती है, तत्पश्चात उसके कथानक को कथा शैली में प्रस्तुत किया जाता है।

मुसाधा के पदों और कथा प्रसंगों में भी रामायण के राम, लक्ष्मण, सीता, दशरथ और अन्य ऐतिहासिक चरित्र निबद्ध हैं। ऐंचल़ी गाथाकार और मुसाधा गाथाकार रामायण के कथानकों, आख्यानों और युगयुगीन कालक्रमिक ऐतिहासिक संदर्भों को मधुर शैली में आज भी प्रस्तुत करते हैं। यही ऐंचल़ी और मुसाधा गाथाओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। परंतु धीरे-धीरे विशुद्ध परंपरा विलुप्त होती जा रही है। इसका संरक्षण और संवर्धन करना अत्यंत आवश्यक है। मेरे पास रामायण, महाभारत, शिव पुराण, गूग्गा गाथा, नाग लीला, राजा भरथरी इत्यादि कई गाथाओं का संग्रह पिछले 40 बरसों से संग्रहित करता आ रहा हूं। परंतु आर्थिक तंगी के कारण प्रकाशित करने में असमर्थ हूं।

विमर्श के बिंदु : हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -27

अतिथि संपादक : डा. गौतम शर्मा व्यथित

मो.- 9418130860

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

‘ढोलरू’ लोकसाहित्य में रस भाव एवं संगीत सौंदर्य

प्रो. सुरेश शर्मा

मो.-9418026385

ललित कलाओं से विभिन्न प्रकार के रस एवं भावों की उत्पत्ति होती है। संगीत, नाटक, नृत्य तथा अनेक प्रकार की कलाओं  से मनुष्य की आंतरिक भावनाओं का प्रकटीकरण होता है। यह स्थायी भाव न केवल प्रस्तोता के अंदर, बल्कि श्रोता या दर्शकों की भावनाओं में भी निहित होते हैं, लेकिन इनका प्रकटीकरण तब तक नहीं होता जब तक व्यक्ति के अंतः करण सुप्तावस्था में उपस्थित इन भावनाओं को कोई जगा न दे। कलाकार श्रोताओं तथा दर्शकों के अंतरंग भावों को अपनी कला से आंदोलित करता है। फलतः विभिन्न कलाओं, नृत्य, गायन, वादन, नाट्य, चित्रकला, नक्काशी, हस्तकला, शिल्पकला तथा अन्य कलाओं के माध्यम से उन्हें प्रकट कर दूसरों को भी भाव-विभोर कर देता है। साहित्य लेखन भी अभिव्यक्ति, भाव एवं रस उत्पत्ति का एक मुख्य स्रोत है। पाठक विभिन्न प्रकार के उपन्यास, कविता, नाटक, कहानियां, कथाएं, गाथाएं तथा लोकगीतों को पढ़कर भावुक हो जाते हैं।

 इन सभी प्रकार की सृजनात्मक कृतियों से श्रोता, पाठक तथा दर्शक  के मनोभाव उद्वेलित होकर प्रकट होने लगते हैं। ये कलाएं मनुष्य के अंदर प्यार, नफरत, गुस्सा, शंका, भावुकता, डर, मोह, उत्साह, हैरानी आदि भाव पैदा करती हैं। नाट्य शास्त्र के अनुसार उपरोक्त भाव भोजन में विभिन्न मसालों की तरह होते हैं जिनसे रस पैदा होता है, जिन्हें श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत तथा शांत रस कहते हैं। लोकसाहित्य, लोकगाथाओं, लोकगीतों, लोककथाओं तथा लोकनाट्यों से इन रसों की निष्पत्ति होती है। हिमाचल प्रदेश में हर वर्ष चैत्र माह में हिंदू नव वर्ष पर गाए जाने वाले ‘ढोलरू गीतों’ तथा परंपरागत लोकगाथाओं में विभिन्न भावों तथा रसों की उत्पत्ति होती है। यह विभिन्न गाथाएं जीवन के अनेक अच्छे-बुरे प्रकरणों, सुख-दुःख के अनुभव पर आधारित हैं। ढोलरू गीतों के विभिन्न प्रकारों को सुनकर श्रोता में हास्य, व्यंग्य, प्रेम, मोह, नफरत, आक्रोश, भय, ग्लानि आदि भाव पैदा होकर उनमें विभिन्न रसों का रसास्वादन करते हैं। ढोलरू गाथाओं में ‘पहला ना’ या ‘पहला फुल्ल’ जैसे गीत से परमपिता परमात्मा, गुरु तथा माता-पिता को हमेशा याद करते हुए सांसारिक मूल्यों तथा लोक में विभिन्न शुभ संस्कारों से भक्ति तथा शांत रस की उत्पत्ति होती है। ‘नैणपाल दई’ गाथा में विवाह संस्कार में कुल ब्राह्मण को बुलाकर धरती मां, कुओं-बावडि़यों, वृक्ष-लताओं, लड़की के मामा, पांच पांडवों, नारायण-परमेश्वर, कुल नाग देवता, नौ लाख तारों, सूर्य तथा चंद्रमा को क्रमशः एवं विधिवत विवाह संस्कार में निमंत्रण देने की प्रक्रिया हमारी लोक संस्कृति में प्रतिबिंबित होती है। ‘मरुआ ढोलरू’ लोकगीत में जीवन रूपी हरी-भरी डाली को दूसरों की निर्भरता के लिए दुकानदार, कुम्हार, लोहार, व्यवसायियों के साथ-साथ जीवन-शैली एवं व्यवहार के दर्शन होते हैं। ‘झूरी लोकगीत’ में नायक प्रेमिका को ललचाता हुआ जूते, घाघरा, कुर्ती-सलवार, बेसर तथा दुपट्टा देने के साथ उसके लिए ऊंचा बंगला बनवाने का प्रलोभन देकर भी  नायिका को अपने बस में नहीं कर पाता। इस प्रसंग में एकतरफा प्रेम भाव से श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति होती है।

‘राजा बैंसर’ लोक गाथा में राजपाट के सारे आकर्षण को छोड़कर दुनिया के जंजालों से विरक्त होता हुआ राजा अपनी मां से मुट्ठी भर भिक्षा प्राप्त कर संन्यास धारण करने की बात करता है। सांसारिक व्यक्ति के द्वारा मोक्ष प्राप्त करने के उद्देश्य से विरक्ति भाव से शांत रस की अनुभूति होती है। बिजलो, दरूबड़ी, छरहमरी, नीली घोड़ी, धोबण आदि लोक कथाओं में नारी को चित्रित कर उसकी वेदनाओं, भाव-भंगिमाओं, प्रेम, नफरत, फब्तियां, व्यंग्य, आक्रोश, यातना, शंका, डर तथा प्रताड़ना आदि का भाव पैदा होता है जो कि करुण, श्रृंगार, अद्भुत तथा शांत रस को उत्पन्न करता है। ढोलरू लोकगाथाओं में रुहला दी कुल्ह, कल़ोहे दी बां, में  राजा तथा घर में सास या ससुर को स्वप्न होने पर क्षेत्र में पानी की समस्या हल होने के लिए घर की बहू के बलिदान की गाथा से करुण, भयानक, विभक्त, अद्भुत तथा शांत रस से सुनने वालों का गला भर जाता है तथा आंखें नम हो जाती हैं। इसी प्रकार गद्दण कने राजा, बिल्लिया तोते दा ब्याह तथा रल़ीय दा मेला आदि लोक गाथा में प्रणय, व्यंग्य, नफरत, छेड़छाड़, सौंदर्य वर्णन, जोर जबरदस्ती, आक्रोश, डर, लोभ, संयोग, वियोग, विरह के भाव पैदा होकर हास्य, श्रृंगार आदि रसों की निष्पत्ति होती है। ढोलरू गाथाओं में एक आम व्यक्ति लोहार, कुम्हार, किसान, सुनार, सास-बहू, ननंद, भावज, देवर-देवरानी, जेठ-जेठानी, जीजा-साली, मामा, चाचा-चाची, माता-पिता, प्रेमी-प्रेमिका के साथ अत्याचार, संस्कार, दुःख, संयोग, वियोग, नफरत, छल-कपट आदि के साथ-साथ राजा-रानी, ब्राह्मण आदि पात्रों तथा देवी-देवताओं, जल, आकाश, अग्नि, पृथ्वी, कुलदेवी-देवता, संस्कार, रीति-रिवाज के विषय मिलते हैं। संदर्भ पुस्तक ढोलरू लोकगायन परंपरा, डा. गौतम शर्मा ‘व्यथित’।

साहित्यिक चर्चा

जिससे रंगीन है जि़ंदगी, सोच का वो लहू है ग़ज़ल

जगदीश बाली

मो.-9418009808

ग़ज़ल सुनने का शौक है। अक्सर सुनते सुनते खो सा जाता हूं। ग़ज़ल कभी कायल बनाती है और कभी घायल कर देती है। अभी-अभी एक ग़ज़ल सुन रहा था- तुमने बदले हमसे गिन गिन के लिए…। सुनते-सुनते इसी में रम गया। जब अपने में आया तो ख्यालों में एक सवाल उभर आया, ‘ये गजल भी क्या नायाब चीज़ है।’ अनायास ही लबों से निकल आया, ‘गजल शय क्या है जान लीजिए, मय का प्याला है मान लीजिए।’ इस पर मत जाइए कि ये मेरा शेर बना या नहीं बना है। शेर बना न बना अलग मुद्दा है। मैंने तो यहां ग़ज़ल की बाबत एक ख्याल जाहिर किया है क्योंकि आदमी के ज़ेहन में ख्यालों का उभरना एक पैदाइशी फितरत है। ग़ालिब साहब ने सही कहा है, ‘है आदमी बजाए खुद एक मशहर-ए-ख्याल।’ इस ख्याल का इजहार अपने हिसाब आदमी कैसे भी कर सकता है। लोग अपने ख्यालों को शब्दों की सूरत अता कर कागज़ पर उतार लेते हैं। इजहार-ए-ख्याल की इस सूरत को ही साहित्य या अदब कहते हैं। साहित्य या अदब की अपनी-अपनी विधाएं हैं।

 उर्दू अदब की इस्तमाहत की अगर बात की जाए तो ग़ज़ल एक अहम मुकाम रखती है। ग़ज़ल में कशिश ऐसी है कि हर कोई इसकी ओर खींचा चला जाता है, फिर वो चाहे पढ़ने वाला हो, सुनने वाला हो या फिर लिखने या कहने वाला। हिंदी भाषा में भी ग़ज़ल अपना स्थान रखती है। महनीय कवि दुष्यंत कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को एक ऊंचे मुकाम पर पहुंचाया। हालांकि हिंदी में ग़ज़ल का समतुल्य छंद है और हिंदी छंद की अपनी अहमियत है, परंतु फिर भी बहुत से लेखक उर्दू ग़ज़ल की तर्ज़ पर ही हिंदी में गज़ल लिख रहे हैं। मुख्य अंतर वज़्न करते समय मात्राओं का है। अब तो ग़ज़ल नेपाली, गुजराती, अवधी, मैथिली, भोजपुरी भाषाओं में भी लिखी और कही जा रही है। हिमाचल प्रदेश में भी कई लोग पहाड़ी बोलियों में गज़लें प्रस्तुत कर रहे हैं। हालांकि गजल कहने या लिखने का शउर हर लेखक के पास नहीं, परंतु फिर भी बहुत से काव्यकार ग़ज़ल लिख रहे हैं या लिखना चाहते हैं। वज़्न पर ज़्यादा ध्यान न देते हुए वे रदीफ़  और काफिया का इस्तेमाल करते हुए अपने ख्यालों का इजहार करते हैं और इसे वे ग़ज़ल मान लेते हैं या कह देते हैं। यह ग़ज़ल की मकबूलियत और कशिश की बानगी है। हालांकि ग़ज़ल अरूज़ का अत्यंत लोकप्रिय व दिलकश अंदाज़-ए-बयां है, परंतु यह चर्चा व उलझन का सबब भी रही है। उर्दू के एक आलोचक ने इसे ‘नंग-ए-शायरी’ कहा है। एक आलोचक ने इसे ‘क़ाबिले गर्दन ज़दनी’ कहा है। मतलब ग़ज़ल को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहिए। ग़ज़ल के कई तनकीदकार ‘ग़ालिब’ साहब के इस शेर का जि़क्र भी करते हैं, ‘बक़द्रे शौक़ नहीं ज़र्फे तंगना-ए-ग़ज़ल, कुछ और चाहिए वसुअत मेरे बयां के लिए।’ अर्थात मेरे जेहन की उत्कट भावनाओं को व्यक्त करने के लिए ग़ज़ल एक तंग माध्यम है।

 मुझे अपनी बात कहने के लिए किसी और विस्तृत माध्यम की आवश्यकता है। परंतु ये कहना अनुचित नहीं होगा कि गालिब के इस शेर को ग़ज़ल पर तंज नहीं कहा जा सकता। वे इस शेर के माध्यम से ये कहना चाह रहे हैं कि उनके उत्कट ख्यालों को काव्य या अरूज़ की कोई विधा काफी नहीं है। ये शेर दर्शाता है कि गालिब की अप्रतिम व अजीम अदबी प्रतिभा को कोई साहित्यिक विधा नहीं बांध सकती। लिहाजा उनके इस शेर को ग़ज़ल की मुज़्ज़मत नहीं कहा जा सकता। ये बात भी काबिल-ए-गौर है कि गज़लों के माध्यम से ही गालिब को शौहरत व आला मुकाम हासिल है। तंज-ओ-तनकीद कितनी भी कर लो, इसके बावजूद ग़ज़ल की लोकप्रियता को ग्रहण नहीं लगा। उर्दू अदब के सुप्रसिद्ध आलोचक रशीद अहमद सिद्दीक़ी ने ग़ज़ल को ‘आबरू-ए-शायरी’ कहा है। बशीर बद्र ग़ज़ल को ‘सल्लतनत’ कहते हुए कहते हैं, ‘मुझे खुदा ने ग़ज़ल का दयार बक्शा है, मै ये सल्तनत मोहब्बत के नाम करता हूं।’ हिमाचल प्रदेश के नामी शायर मरहूम मनोहर ‘सागर’ पालमपुरी साहब कहते हैं, ‘जिससे रंगीन है जि़ंदगी, सोच का वो लहू है ग़ज़ल।’ ज़ाहिर है ग़ज़ल की मिठास व कशिश को नकारा नहीं जा सकता। मैं गज़ल और छंद को एक-दूसरे से बेहतर या खराब घोषित नहीं कर रहा। दोनों काव्य की अनुपम विधाएं हैं और अपनी-अपनी भाषाओं में अहम स्थान रखते हैं।

पुस्तक समीक्षा

मेरा तो पैगाम मोहब्बत है…

‘मेरा तो पैगाम मोहब्बत है जहां तक पहुंचे’…ये पंक्तियां हैं सुपरिचित एवं चर्चित लघुकथाकार ‘मैं नहीं  जानता’ लघुकथा के समर्थ शब्द शिल्पी मेरे दोस्त कमलेश भारतीय की, चुनिंदा ऐसी लघुकथाओं के सुंदर गुलदस्ते में, जिसे लघुकथा शतक भी कहा जा सकता है। एक लंबे अरसे से लघुकथा को आंदोलन के रूप में चलाते हुए उसके स्थापना के समय तक के गवाह के रूप में मैं भी जुड़ा रहा। यह सौभाग्य और कर्मठता मानी जानी चाहिए कमलेश भारतीय की कि सन् 1970 से आज तक कई लघुकथा संकलन हिंदी साहित्य को देकर इस लघुकथा विधा को अन्य नामी लघुकथाकारों के साथ गतिमान करते आए हैं। कथाकार ने लघुकथाओं को लघुकथा के आवश्यक लक्षणों पर कस कर रोजमर्रा की घटनाओं को सफल लघुकथाओं में अवतरित करने में अपनी कला से चमत्कृत किया है। पाठक इन लघुकथाओं के कथानकों, पात्रों और उनके बदलते मुखौटों से रूबरू होते रहते हैं। अनेक लघुकथाओं का मार्मिक प्रभाव आपके मन-मस्तिष्क से उतारे भी उतरता नहीं। लेखक ने अपनी लघुकथा की लंबी कथायात्रा के अनेक रहस्य भी अपनी भूमिका में जाहिर किए हैं, वैसे ही जैसे वे लघुकथा के कलेवर में जगजाहिर करते हैं।

लघुकथा साहित्य इतिहास के  यात्री के रूप में चलते रहने में लेखक का विश्वास है, न कि कोई मसीहा या मठाधीश कहलाने का कोई मोह पाले हुए। मैं कुछ लघुकथाओं के नाम गिना कर यह प्रमाणित नहीं करना चाहता कि ये बेहद बढि़या हैं और कुछ भर्ती की। हां, मैंने इन बहुत सी लघुकथाओं को अन्य इन्हीं के संकलनों में पढ़ा ज़रूर है। मैं समझता हूं कि लेखक की कुछ ऐसी रचनाएं जरूर होती हैं जो उसे बार-बार पसंद ही नहीं आतीं, अपितु वह उसका श्रेष्ठ होता है। लघुकथा साहित्य में कमलेश भारतीय की इस अनुपम कृति का भी पाठक वर्ग में स्वागत किया जाएगा, ऐसा विश्वास है। हंस प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित यह पुस्तक सुंदर स्वरूप में मुद्रित है जिसकी कीमत मात्र 195 रुपए है।

-डा. प्रत्यूष गुलेरी, धर्मशाला


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