इरावती के तट पर नहा कर आई कविता

By: Apr 4th, 2021 12:05 am

जैसे फलक पर कविता खुद चल कर आई हो, बिना किसी सिफारिश के घूंघट हटाने का फैसला लिए हुए। इरावती की तरह, नदी में नाव की तरह। एक साथ पचहत्तर कवि, एक अनूठे संगम पर और सारे देश की कविताएं वहीं कहीं इरावती के तट पर नहा रही हैं। इरावती के भीतर पहली बार कई नदियां उफान पर हैं। कुछ पर्वतीय पत्थरों से टकराने जैसी, कुछ उछलती-कूदतीं, कुछ पाने के बहाव सरीखी, कुछ गहरे पानी के भीतर और कुछ अपनी मस्ती में परिवेश को छूती हुईं कविताएं अपना संसार रच रही हैं।

इरावती का अंक हमेशा की तरह पाठक की कसौटी पर अपने नए अवतार में, कवियों को जन्म देने की घोषणा के साथ पेश है। यह दीगर है कि कोई भी कवि किसी जिल्द में पैदा नहीं होता, लेकिन आक्रोश का आतिथ्य पेश करते अतिथि संपादक अपनी इस घोषणा से परिपूर्ण और आश्वस्त दिखाई देते हैं। शायद कुछ बूढ़े, परिपक्व व नामचीन कवि अतिथि संपादक गणेश गनी की दहाड़ से सहम जाएं, लेकिन इरावती का यह अंक कमल की डंडियों से फूल चुराने की चेष्टा से भरा हुआ है। कविता के इरावती संसार में पंद्रह हिमाचली लेखकों के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, गोवा व केरल तक के कवि-कवयित्रियों को पढ़ने में आनंद की अनुभूति के साथ-साथ विषयों की तहों में उगते समुद्र, नदियां, मानचित्र, इतिहास, शहर, ऋतुएं, फुटपाथ तो हैं, साथ में दाल-रोटी के प्रश्न, नारी विमर्श की संवेदना और समाज के अतिक्रमण भी रेखांकित होते हैं। गणेश गनी के लिए चयन प्रक्रिया काफी मजबूत पक्ष लिए अपनी पेशकश में श्रीधर करुणानिधि, प्रशांत विप्लवी, मुदस्सिर अहमद भट्ट, पवन चौहान, रुद्राक्ष शर्मा, विवेक भारद्वाज, विधान, नवनीत शर्मा, पूर्वा शर्मा, प्रदीप सैनी, मनोज चौहान, पल्लवी मुखर्जी, संदीप तिवारी, संजय कुमार सिंह, विनीता परमार, ऋतु त्यागी, स्निग्ध ज्योत्सना, राकेश शर्मा, आलम आजाद व कुमार ललित जैसे कवियों के प्रयास को सार्थक बना देती है। ‘दो पर कटे उस उड़ान के भी, जो उड़ रही थी हवा को काबू किए हवा’ में पूर्वा शर्मा या ‘बेहद मामूली कामों में लगे हुए बेहद मामूली लोग, जो अपने बेहद मामूली हाथों से दुनिया को किसी गेंद की तरह रोज बनाते थे’ में प्रदीप सैनी जैसे युवा कवियों के भीतर कविता का मकसद अपनी मिट्टी जोड़ रहा है, तो परिपक्वता के साथ मनोज चौहान, ‘विदा तो होना ही है, हमें भी एक दिन- इसी सार्वभौमिक सत्य के साथ। मिली थी सांसें, हम भी आएंगे एक दिन- स्मृतियों में किसी की’ तथा पवन चौहान फरमाते हैं, ‘कई दिनों तक सोई रही नींद, जेठ की दोपहरी के तपते पत्थरों पर भी- बिना किसी जलन, किसी चुभन से बेखबर। एक शून्यकाल में तैरती रही- भीमती रही पसीने की तपती बूंदों से।’

आलम आजाद की कविता का वज़न देखिए, ‘कहते हैं मामूली-सी एक सांस का वज़न भी, एक पहाड़ से भारी होता है- एक चीख जो अटकी रहती है गले में, कभी-कभी बाहर आती भी है।’ लोक गीत के मर्म में नवनीत शर्मा और न्यायाधीश के कर्म में कविता को न्याय दिलाते अनिल पुष्कर अपने भीतर तक पिघलते हैं। कविता के भीतर कवि का नित नया जन्म और जन्म के सवालों पर विचारों की आंधियां का एक गहरा पल जब ऋतु त्यागी चुनती हैं, तो समाज की जटिलता हमारे वजूद पर कुछ यूं रेंगती है, ‘करवटें पीठ पर… अपनी अंगुलियों से बनाती रही नक्शे। दर-दर भटकते रहे अधलिखे खत, दरवाजे के पीछे की सिसकियों ने लगा ली थी चिटकनी।’ अपने दर्द के पन्नों की हाजिरी में इरावती के संपादक, राजेंद्र राजन उस एहसास की बूंदों से समुद्र के भीतर डुबकी लगा रहे हैं, जो उनके भीतर की हर आहट की तरह है। वह अतिथि संपादक के रूप में गणेश गनी का परिचय भी कराते हैं। कवियों के समूह को संबोधित करती इरावती रफ्तार पकड़ती है, लेकिन अपनी आरंभिक टिप्पणी के जोश में अतिथि संपादक प्रकाशन की मर्यादाओं और साहित्यिक शिष्टाचार से बाहर अगर किसी को ‘अरे दुष्टो’, ‘बदमाशो’ या ‘दलालो’ कह रहे हैं, तो सारा अंक अहंकारी जरूर हो जाता है। कम से कम इरावती से ही बहना सीख लेते, जो हर दिन जन्म लेकर भी न गाद से और न ही अपने प्रलाप से किसी को कुछ कहती है।

                                                     -निर्मल असो


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