मीडिया चोंच पर कानून

By: Apr 19th, 2021 12:06 am

अंततः माननीय उच्च न्यायालय ने वे निर्देश दिए हैं, जिनसे आमतौर पर हिमाचल की सरकारें बचकर निकल जाती रही हैं। यह बदलते मीडिया की औकात से जुड़ा प्रश्न हो सकता है और यह भी कि शिमला की गलबहियों में पलते पत्रकारों के बीच कितनी कलगियां नकली हैं, इसकी भी पूछताछ हो सकती है। अदालत तक पहुंचे एक पत्रकार का एतराज अगर कानूनी जिरह की प्रासंगिकता में सवाल पूछ रहा है, तो वक्त की चादर पर जम चुकी मीडिया की मिट्टी का हाल देखा जा सकता है। हाई कोर्ट ने पत्रकारों की मान्यता पर न केवल अंगुली उठाई है, बल्कि सरकार से 2016 के नियमों के हवाले से यह समीक्षा करने को कहा है ताकि पता चले कि कितने राज्य स्तरीय मान्यता से पुरस्कृत पत्रकार दरअसल बिना अखबार या पत्रिकाओं के ही सरकार की वसंत चुरा रहे हैं। न्यायमूर्ति तरलोक सिंह चौहान ने मान्यता नियमों में पारदर्शिता लाने के लिए आवश्यक निर्देश देते हुए जो टिप्पणियां की हैं, वे एक तरह से मीडिया की वास्तविकता का चित्रण हैं। खासतौर पर बिना किसी प्रसार के अखबारों के प्रतिनिधि अगर राज्य स्तरीय मान्यता का गुलकंद खा रहे हैं, तो इस परिपाटी की पूंछ हलाल होनी चाहिए।

 सरकार की संपत्तियों पर आशियाना हासिल करने वाले ऐसे पत्रकार चिन्हित क्यों न हों जिनके अपने घर या विशेष आबंटन से प्राप्त भूमि पर वे फ्लैट के मालिक बने हों। इसका सीधा अर्थ यह भी है कि सत्ता की गलबहियों में आराम फरमा रही पत्रकारिता की मौज-मस्ती का यह नूर अब बदरंग हो चुका है। इतना ही नहीं, आज के परिप्रेक्ष्य में राज्य स्तरीय मान्यता का झंडा शिमला में ही क्यों देखा जाए, जबकि हिमाचल के प्रमुख प्रकाशन राजधानी के बाहर अपना मुख्यालय स्थापित कर चुके हैं। दरअसल मान्यता का हक प्रकाशन की औकात तथा उसके राज्य के प्रति सरोकारों को देखते हुए मिलना चाहिए। यह इसलिए कि आज अगर हिमाचल में अपना मीडिया नजर आ रहा है, तो यह स्थानीय प्रयास से खड़े हुए समाचार पत्रों और अब डिजिटल तरीकों को अपनाने से ही संभव हुआ, वरना अतीत में जालंधर, चंडीगढ़ और कुछ हद तक दिल्ली के अखबारों में हिमाचल के समाचार सागर में बूंदों की तरह ढूंढने पड़ते थे। हिमाचली मीडिया ने न केवल खुद को पारंगत किया, बल्कि प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करीब दो हजार लोगों को रोजगार भी दिलाया है। ऐसे में मीडिया उपयोगिता के संदर्भों में मान्यता के कलश किस तरह तथा किस हद तक भरने चाहिएं, इसके ऊपर अदालत का फरमान लाजिमी तौर पर सक्रिय पत्रकारों की मदद कर रहा है, जबकि सरकारी संसाधनों व सुविधाओं को चाट रहे चाटुकार तथा अनुपस्थित मीडिया की बाहें मरोड़ रहा है। अगर सरकार हिमाचल से प्रकाशित या हिमाचल में प्रसारित समाचार पत्रों को सीधे मान्यता देते हुए यह तय करे कि आवासीय सुविधा केवल अखबार के नाम हो, तो यह बखेड़ा ही खत्म हो जाएगा। अखबारों के प्रकाशन अपने अधिकार क्षेत्र से यह तय कर पाएंगे कि उन्हें राज्य स्तरीय मान्यता का उपयोग शिमला या राजधानी से बाहर करना है। इसी के साथ सरकार को यह भी तय करना होगा कि समाचार पत्रों के अलावा लघु पत्र-पत्रिकाओं तथा डिजिटल मीडिया को कैसे रेखांकित किया जाए।

 यह विचित्र नियम है कि शिमला के किसी साप्ताहिक पत्र की मान्यता को राज्य स्तरीय माना जाए और उससे कहीं शिद्दत व प्रसार दिखाती मंडी से प्रकाशित पत्रिका की अलग तरह से व्याख्या हो। मीडिया प्रदर्शन के सबसे व्यस्त, शिक्षित, अनुभवी तथा पारंगत सदस्य अपने-अपने डेस्क के जरिए दिखाई देते हैं, अतः मान्यता के भविष्य में इनके अधिकारों का अवलोकन भी होना चाहिए। कुछ इसी तरह विधानसभा के शीतकालीन सत्र के तपोवन आयोजन में राजधानी के मीडिया पर सुविधाओं का अपव्यय न केवल रुकना चाहिए, बल्कि विधानसभा की ओर से यही सुविधा धर्मशाला के मीडिया को मिलनी चाहिए। माननीय अदालत ने एक पत्रकार के परिप्रेक्ष्य में जो खाका खींचा है, उसका विवेचन बताएगा कि राज्य स्तरीय मान्यता के पेड़ से कितने फल चुराए जा रहे हैं और इससे राज्य के संसाधन कहां तक जाया हो रहे हैं। सरकार चाहे तो मीडिया जरूरतों को समझते हुए मध्य प्रदेश की तर्ज पर शिमला, धर्मशाला व मंडी में प्रेस एनक्लेव बनाकर अखबारों को अपने कार्यालय खोलने में मदद कर सकती है। प्रेस क्लब भवनों को मीडिया के अलावा प्रबुद्ध वर्ग के लिए विकसित कर सकती है तथा अमान्य या अस्थायी पत्रकारों की वित्तीय मदद के लिए सरकारी विज्ञापन पर सेस लगा सकती यानी सरकार मीडिया को विज्ञापन जारी करते हुए कम से कम दो प्रतिशत राशि पत्रकारों के रिलीफ फंड के लिए अपने पास रख सकती है। बहरहाल हाई कोर्ट के निर्देश सरकार को एक अवसर दे रहे हैं और इस तरह मीडिया के पक्ष में एक सार्थक नीति बन सकती है ताकि इसे रोजगार सृजन के रूप में मान्यता मिल सके।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App