मुर्दा फूलों की हकीकत

By: Apr 15th, 2021 12:05 am

सुरेश सेठ

sethsuresh25U@gmail.com

‘भूख और प्यास की मारी हुई इस दुनिया में इश्क की एक हकीकत नहीं, कुछ और भी है।’ अपने चाक दामन और दागदार उजाले में जिस शायर ने हमें यह सुनाया, बेशक वह साहिर लुधियानवी नहीं थे। आजकल मुर्दा इश्क की छांव में कोई उजाला दाग़दार नहीं होता। बल्कि अब तो लगता है ज़माने की बदलती हवाओं ने कुछ शब्दों को मौत दे दी। जैसे राह चलती दुप्पट्टों की नकाब में लिपटी नायिकाओं को देख कर प्रेम रस मरा अब करुणा रस जागता है। ऐसी डरी हुई लड़कियों से भला कोई इश्क करने के बाद में सोच भी कैसे सकता है? डर लगे तो गाना गा, एक पुरानी हिन्दी फिल्म गाती थी, लेकिन आज के गाने उफ तौबा! कभी रैप सांग सुना है, जैसे कोई फ्रंटियर मेल धड़धड़ाती हुई आपके सामने से गुज़र गई हो। भाई फ्रंटियर मेल तो पुराना प्रतीक हो गया। आज कल तो बुलेट ट्रेन का ज़माना है, सेमी बुलेट ट्रेन तो भारत में चलने भी लगी। अभी ऐसी ही एक ट्रेन दिल्ली से बनारस के लिए चली थी। आठ घंटे में अपने गंतव्य तक पहुंचने का लक्ष्य था। आते-जाते दो बार बिगड़ी।

 फिर अगले दिन स्टार्ट लेने में ही दो घंटे की देर लगाई। अपने राम भी ऐसे ही फिसड्डी हैं। गाना गाते हुए रैप सांग कैसे हो गाए। यहां तो गले का यह हाल है कि तीन कनस्तर पीट-पीट कर गला फाड़ कर चिल्लाना, यार मेरे मत बुरा मान यह गाना है न बजाना है। फिर ऐसे गले से दुप्पट्टे को नकाब बना डरती-कांपती लड़कियों से इश्क का इज़हार कैसे किया जा सकता है? इनके साथ तो हम प्लेटानिक इश्क भी फरमा नहीं सकते कि बस मीठी-मीठी फिलास्फराना बातों से इन्हें मुग्ध कर लो। ऐसी बातें करने के लिए बाग-बगीचा चाहिए। हरी घास पर क्षण भर ठिठकने की फुर्सत हो। आकाश में उठी घटाएं घिर कर आएं और गुलाब के फूलों पर तितलियां मंडराने से परहेज़ न करें। लेकिन आजकल दिल्ली-यमुना एक्सप्रैस सड़क हो गई जि़न्दगी में फुर्सत किसके पास है? बाग-बगीचे भू-माफिया की भेंट हो गए। हरी घास को पर्यावरण प्रदूषण ने निगल लिया। उठी घटाएं कह कर इन तड़ातड़ बरसने वाले बादलों को शर्मिन्दा करें। आजकल यह कभी समय पर नहीं आते।

 अयाचित मेहमान की तरह बोमौसम आते हैं। कोयल की कुहक, पपीहे की ‘पी कहां’ इनका स्वागत नहीं कर पाती। इनके इंतजार में थक कर किसी और देश सिधार गईं। अब बे-मौसम आए मेहमान की अगवानी में मोर कैसे नाचे? ये बादल तो रास्ते भूले पथिकों की तरह आते हैं, गुस्से से भरे हुए। अपने साथ हवा के झोंके नहीं, सुहावने बयार नहीं लाते, बाढ़ की चेतावनी लाते हैं। इस चेतावनी के सामने दांदुर मोर और पपीहों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है। सीवरेज प्रणाली फेल हो कर शहर की सड़कों के छप्पड़ हो जाने का नज़ारा पेश करती है। शायद महोदय का चाक दामन, नायिका की नकाब सी चुनरी बाढ़ के इस पागल प्रवाह में बह जाता है। भूख और प्यास मिटाने का क्या ठिकाना करें? नदियां जब नहरें बन जाएंगी तो नौका वाले राहत कर्मी आएंगे। घिसे हुए बिस्कुट, पानी मिला दूध पीडि़तों को कुछ इस अंदाज़ में पेश करेंगे कि प्रचलित तथ्य सत्य हो जाएगा, ‘अन्धा बांटे रेवडि़यां, मुड़-मुड़ अपनो को दे।’ ऐसे हालात में प्रचलित कथन तो कई और भी सुनाई देने लगते हैं। जैसे मौका अधिकारियों का बार-बार यह दुहराना कि स्थिति नियंत्रण में है। या कि नेता जी द्वारा आपदाग्रस्त लोगों का मुआइना करने के लिए हवाई उड़ान भरना और हमदर्दी भरी नाटकीयता से कहना, ‘बेचारे मेरे लोग बड़े कष्ट में हैं।’ नाटकीयता जितनी अधिक होगी, उतनी ही विपदा ग्रस्तों के लिए राहत और अनुदान की घोषणा भी अधिक होगी। वैसे अनुदान की राशि इस बात पर भी निर्भर करती है कि उनका अगला चुनाव कितनी दूर है।


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