आंकड़ों का मुर्दाघर

By: May 13th, 2021 12:05 am

वह पूरी उम्र एक चेहरे, एक नाम और एक पहचान की तलाश में रहे, लेकिन एक आंकड़ा बनकर रह गए। चचा गालिब ने इनकी हालत देखकर कब्र में करवट बदली होगी। आखिरी दिनों में उनकी दृष्टि चली गई थी। आखिरी दिनों तक वह अपने शागिर्दों को संदेश से परहेज नहीं करते थे। जाते-जाते भी कह गए ‘चंद तस्वीरें बुतां चंद हसीनों के खतूत बाद मरने के मेरे घर से यह सामां निकला।’ आज जिंदा रहते तो उनकी दृष्टि को दुर्भाग्य की तरह उन्हें छोड़ कर जाने की ज़रूरत न पड़ती। आजकल आदमी गांव से उखड़ शहर में चला आया। मरती हुई फसलें और बढ़ते कर्जे का बोझ उसकी आंखों से जीने के सपने छीन रहा है, रस्सी का फंदा उसे अपनी जि़ंदगी छोड़ने के लिए मजबूर कर रहा है। न जाने कितने धरती पुत्र फसल मंडियों के बाहर उगे दरख्तों पर फंदा लेकर मर गए। लेकिन उनकी त्रासदी आंकड़ों की तलाश में नज़रअंदाज़ हो गई। पिछले दस साल से ऐसे कर जाने वालों का कोई आंकड़ा रजिस्टर नहीं बना।

 बड़े-बड़े लोग आंकड़े पसंद नहीं करते। वे उन्हें नकार कर कह देते हैं, लोग बदहज़मी से मर रहे हैं। इनके हाज़मे दुरुस्त करो। आंकड़े दुरुस्त करने की बात कोई नहीं कहता। आंकड़े दुरुस्त हो गए तो सूखे खेत खलिहान, नंगी निचाट सड़कों पर बहत्तर वर्ष की आज़ादी की सौगात के रूप में आम आदमी को मिली तंगदस्ती की पीड़ा मर कर जीने की यंत्रणा, वीराने आंखों में सपने टूटने की परेशानी, आकाश में उमड़ती घटाओं, बाग में खिलते फूलों, आकाश में प्रेमिका के चेहरे से चमकते चांद पर हावी हो जाएगी। तब उसे देखकर आप यह भी न कह सकेंगे, आओ, थोड़ा सा रुमानी हो जाएं। देश में हमारी जि़ंदगी पर हावी होते भुखमरी के सूचकांक ने हसीनों के खतूतों को दम तोड़ने पर मजबूर कर दिया। किन बुत्तों की तस्वीर ढूंढने जाएं। इस देश की लड़कियों ने दुष्कर्म के डर से अपने चेहरे आंखों तक दुपट्टे से ढक लिए। राजा राम मोहन राय से लेकर स्वामी दयानंद तक औरतों के समानाधिकार और सशक्तिकरण की तलाश में पर्दा प्रथा की बेडि़यों के विरुद्ध लड़ते रहे। लेकिन देखते ही देखते यह लड़ाई एक भाषण बन गई और संसद में औरतों को आरक्षण की छतरी देने का प्रस्ताव एक दर्जन दफा स्थगित हो गया। आदमीयत खो गई, चांद के सिक्कों की खनखनाहट में दरिंदगी कारोबार बन गई।

 इसके लिए खड़े किए गए चौकीदार चुनाव रैलियां बन गए। इस बदलते हुए सच से डरी हुई लड़कियां अपने चेहरे छिपा कर देश की सड़कों पर पर्दा प्रथा का चलता-फिरता इश्तिहार नज़र आती हैं। इन इश्तिहारों को हटा कर देखो। दुपट्टे की नकाबों के पीछे आपको जि़ंदगी की मार के शिकार वे भूतपूर्व हंसी चेहरे नज़र आएंगे, जो जवां होने से पहले ही बूढ़े हो गए। जब पालनों में जीने के लिए तत्पर होती लड़कियां भी अमानुषों के दुष्कर्मो का शिकार होने लगें, तो इस सच के आंकड़े न गिनना। इनकी नकाब नोच लोगे तो तुम्हा चचा गालिब की तस्वीरें बुतां चलती-फिरती लाशों में तबदील होती नज़र आएंगी। इस विडंबना को सह न पाने के कारण कुछ औरतें जलती हुई मोमबत्तियां बन सड़कों पर आक्रोश का प्रतीक बन मौन जुलूस बना सड़कों पर निकल आए, तो उनका आंकड़ा अवश्य गिन लेना। इसे एक फीका प्रदर्शन कहकर नकार न देना। गिनना अपनी-अपनी दहलीज में घिरी, तुम्हारी बेशर्म आंखों की लक्ष्मण रेखाओं में कैद इस देश की आधी दुनिया को जो पौन सदी से चमकीली आज़ादी के नारों से बहलाई जाती रही, लेकिन अपनी जि़ंदगी में आज भी मध्य युग के अंधेरों में जीती हुई अपने दुपट्टों के पर्दों में अंधेरे झेलती है।

संपर्क :

सुरेश सेठ

sethsuresh25U@gmail.com


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