आवश्यक है हिमाचली लोकसाहित्य श्रुत परंपरा का दस्तावेजीकरण

By: Jun 27th, 2021 12:06 am

अतिथि संपादक : डा. गौतम शर्मा व्यथित

विमर्श के बिंदु

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -36

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी 36वीं किस्त…

डा. गौतम शर्मा ‘व्यथित’, मो.-9418130860

जहां इतिहास भ्रामक होता है, वहां लोकसाहित्य उस जनपद के इतिहास को जानने में सहायक होता है। विद्वानों का मत है कि अनेक जनपदों के इतिहास लेखन में, तत्संबंधी जानकारियां पाने में स्थानक लोक गीत, लोक गाथाएं व कहावतें भी सहायक हुई हैं। हिमाचल प्रदेश प्रकृति और देवताओं की सुरम्य चिताकर्षक धरती है। यहां के जनजातीय तथा समतलीय क्षेत्रों में अनेक प्राकृतिक झीलें, नदियां, ताल-तलैयां गिरिश्रृंग, भूखंड वन संपदा का वैभव देखते ही बनता है। यहां के प्राचीन मंदिर, गढ़-किले, राजप्रासाद, जनमार्ग राजमार्ग, चौगान, चौवाट, चौहटड़े, देवी-देहरे, देहरियां, कोई न कोई अतीत की रहस्यमयी कहानी सुनाते हैं जिन्हें हम लोक कथा, लोक गाथा, लोक गीत, कहावतें, परवैण, क्या कुछ नहीं कहते। हर क्षेत्र में इनके लिए अलग-अलग संज्ञाएं मिलती हैं। परंतु इनका अर्थ एक है। कथानक विभिन्नता इनकी विशेषता है।

हिमाचल में सामरिक अभियान भी निरंतर अनेक दिशाओं से हुए हैं। लाहुल-किन्नौर धरती को रियासती सेनाओं के अतिरिक्त चीनी-तिब्बती आक्रांता पदाक्रांत करते रहे, जिसके सबूत वहां के धर्म, संस्कृति, भाषा, वेशभूषा, खानपान आदि में परंपरित हो गए हैं। समतलीय क्षेत्रों में तो जो भी दिल्ली के सिंहासन पर बैठा, यहां के अनेक क्षेत्रों में अपने पांव जमाने के प्रयास में लूटमार करता रहा। सीमांती आक्रांताओं के अतिरिक्त रियासतों के पारस्परिक मनमुटाव, राज्य सीमा विस्तार लालसा तथा महत्त्वाकांक्षा अनेक सामरिक अभियानों को साकार करती रहीं। इन सबका विवरण यहां प्रचलित लोक गायन रूपों हारों, हारुल, बारों, झेड़ों आदि में मिलता है। हर रियासत में हुए ऐसे युद्धों का बखान हर जनपद के लोक गायन में परंपरित है। इस गायन परंपरा के विशेष गायक वर्ग रहे हैं, विशेष अनाम रचयिता थे। सिरमौर, कहलूर, मंडी, कांगड़ा, चंबा आदि क्षेत्रों में परंपरित विविधनामी लोक गाथाओं का श्रवण-अध्ययन आश्चर्यपूर्ण है। चाहे भाट परंपरा हो या कोई और जाति विशेष, ये रचनाएं उसी वर्ग विशेष की देन हैं जिनमें युग साहित्य-युग इतिहास का बोध होता है।

ऐसे ही उदाहरण लाहुल और किन्नौर में प्रचलित ‘हुरे’ लोक गायन में मिलते हैं। लोक गायन घटना प्रधान या स्थितिजन्य है। लोकसाहित्य का महत्त्व इसी में है कि वह कालदर्शी है, चाक्षुष और श्रव्य अनुभव-आधारित है। जो जैसा देखा, सुना वैसा रच दिया। बड़ी विचित्र कहें या व्यवस्थित पद्धति थी कि, कहां, कब गीत, गीति, गाथा, हार, बार रची जाती, वह भी मौखिक, और कब किस माध्यम से गायक वर्ग विशेष के पास पहुंचती और किस सतर्कता से वह उस कथा-वृत्त को अपनी गायन और वादन शैली के माध्यम से गाता-सुनाता फिरता। लोकरंजन भी करता, जीविका भी कमाता। समय का सच भी कहता। सतकर्म की ओर प्रेरित करता। इसी प्रकार ‘कात्थू परंपरा’ का जिक्र भी किया जा सकता है। हर गांव में दो-चार ऐसे व्यक्ति जरूर रहे हैं जो कथा सुनाने में माहिर होते। मतलब उनका अपना ही ‘स्टाइल’ होता है कथा शुरू करने, विस्तार देने और समाप्त करने का। इसमें उनका वाचिक और आंगिक अभिनय भी विशेष होता है जो श्रोता को बांधे रखता है, आदि से अंत तक।

हमारे गांव में भी धर्मचंद नाम का व्यक्ति है जिसने मुझे अनेक कथाएं सुनाई हैं। कथाएं क्या, मूल कथा के साथ अनेक अंतर्कथाएं, पता नहीं कहां से सुनी हैं, कब सुनी हैं, कैसी विचित्र स्मृति है उसकी, कभी-कभी तो वृहद उपन्यास जैसी लगती हैं उसकी कथाएं। वह मेरे से दस वर्ष छोटा है। कबीरपंथी है, देखने में स्याणा लगता है। परंतु अब भी कहता है कभी- ‘मामा! टैम हुंगा तां इक कथा सुणाणी है।’ स्कूल गया था दो साल सिर्फ, पूरी उम्र मजूरी कर परिवार पालता रहा। यह उदाहरण मैंने इसलिए दिया कि ऐसे पात्र हर गांव में मिलते हैं जिनके पास अमूल्य धरोहर है लोकसाहित्य की वाचिक परंपरा की। मैंने जब इसकी विस्तारण व श्रवण-कथन परंपरा पर खोज की तो यही निष्कर्ष निकला कि सर्दियों में जो अंगीठा-अलाव सेंकने, अटयालों, चौराहों पर गप्प-शप सुनाने की संस्कृति रही है, उसी की देन है लोकसाहित्य की समृद्ध कथा तथा गाथा-गीत गायन वाचिक परंपराएं।

आज विकास के युग में हमारी जीवन पद्धति इतनी गति से बदली कि वे स्थितियां देखते-देखते लुप्त हो रही हैं जो जन्मदात्री तथा प्रसारण माध्यम थीं जनपदीय लोकसाहित्य की। अब तो विद्यालयी पाठ्यक्रमों के माध्यम से ही उपलब्ध होंगी धरोहर संबंधी जानकारियां। समय गतिशील है। विकास का धर्म है परंपरा के आधार पर नई परंपरा की स्थापना। पुस्तक प्रकाशन के बाद ज्यूं-ज्यूं हमें ज्ञान के दस्तावेजीकरण के माध्यम उपलब्ध होते गए, हमारी वाचिक परंपरा तथा स्मृति परंपरा दोनों का क्रमिक ह्रास हुआ।

पूर्वकाल में निरक्षर के पास भी वाचिक तथा स्मृति परंपरा के कारण अद्भुत ज्ञानकोष लोक परंपरा थी। पुराने छात्रों को अपने पाठ्यक्रमों की कई कहानियां, कविताएं, पोईम्ज स्मरण हैं जिन्हें यदा-कदा सुनाते-दोहराते हैं। परंतु आज के छात्रों को किसी भी कवि की कविता की चार पंक्तियां स्मरण नहीं होती। आज ज्ञान स्मृति आधारित न होकर मोबाइल, लैपटॉप, कम्प्यूटर आधारित हो गया है। वाचिक मंच का स्थान टीवी, यू-ट्यूब, फेसबुक ने छीन लिया। ये सब तकनीकी युग की देन है जो दोहराती रहती है। योग माध्यम ही कालांतर में विज्ञान माध्यम बने हैं। यह विकास की प्रक्रिया अनवरत रहती है। अतः आज आवश्यकता है हम श्रुत परंपरा या वाचिक ज्ञान को संरक्षित करने के सार्थक, स्वस्थ तथा वैज्ञानिक प्रयास करें। लोक वाणी में अथाह ज्ञान कोष है। इतिहास, संस्कृति, सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था, लोकधर्मी परंपराएं सब कुछ लोकसाहित्य मंजूषा में सुरक्षित है, परंपरित है, ऐसा हमने हिमाचल के लोकसाहित्य के विविध पक्षों, बिंदुओं पर अनुभवी लेखकों के विचारों से, जो इस स्तंभ में प्रकाशित हुए हैं, निरंतर देखा है।

अतः हिमाचल के लोकसाहित्य के अनेक पक्ष अभी भी अछूते हैं जिनके प्रति शोधकर्ताओं, विश्वविद्यालयों को समय रहते विचार और प्रयास करने चाहिएं। सरकार को प्रदेश भाषा, कला-संस्कृति अकादमी की आर्थिक सामर्थ्य बढ़ाकर वहां से हो रहे प्रयत्नों को गति और दिशाएं देने के प्रयास करने चाहिए।


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