चिंतन के नए आयाम : क्यों न हम बनें देवता?

By: Jun 27th, 2021 12:04 am

बल्लभ डोभाल, मो.-8826908116

-गतांक से आगे…

वास्तव में धर्म की परिभाषा जितनी कठिन है, उतनी ही आवश्यक भी है। मनु, याज्ञवल्क्य आदि ने धर्मशास्त्र जरूर लिख दिए, पर उतने से काम चलने वाला नहीं। व्यवस्था और स्थितियों के अनुसार हमें स्वयं भी कई निर्णय लेने पड़ते हैं। इसलिए धर्म को किसी सांचे में नहीं रखा जा सकता। राम को प्रतिष्ठा इसलिए मिली कि उन्होंने राज्य का त्याग कर पिता की आज्ञा का पालन किया। पिता की आज्ञा का पालन उनका धर्म बना, किंतु प्रह्लाद पिता की आज्ञा का पालन न कर वही प्रतिष्ठा पा जाते हैं जो राम को मिलती है। श्रवण कुमार का सम्मान माता-पिता की सेवा के कारण होता है, जबकि परशुराम माता की हत्या करने से सम्मानित हो जाते हैं। राजा दिलीप गुरु सेवा से यशस्वी होते हैं तो गुरु द्रोणाचार्य का वध करने पर अर्जुन को वही यश प्राप्त हो जाता है। विदेशों में पति के मरने पर दूसरे पति का वरण स्त्री के लिए दोष नहीं, भारत में वह दोष कहा जाता है। मुसलमानों में चाचा अथवा मामा की लड़की से निकाह पाप नहीं, हिंदुओं में उसे पाप कहा जाता है। ऐसी स्थिति में मानव-धर्म क्या है, अधर्म क्या?…पाप क्या है और पुण्य क्या?…इसका निर्णय कर पाना कठिन है। तो भी निर्णय हमें स्वयं करना है। वेद-शास्त्रों से आज की समस्याएं हल होने वाली नहीं हैं। हमारा अपना चिंतन जरूरी है। इसीलिए कहा है- स्वयं को पहचानो। दूसरों का ज्ञान तुम्हारे काम आने वाला नहीं है।

तुम्हारे भीतर भावना का एक व्यापक समुंदर लहरा रहा है। एक दुनिया तुम्हारे भीतर भी बसी है, उस दुनिया में लौट जाओ। भावों की उस दुनिया में लौट सको तो फिर तुम्हें भगवान बनने से कोई रोक न सकेगा। मनुष्य प्राणी को इसलिए श्रेष्ठ कहा गया है कि उसमें चेतना है। अपने अंदर सोई चेतना को जागृत कर दूसरों को उसका लाभ पहुंचाने में ही जीवन की सार्थकता है। यही मानव का श्रेष्ठ कर्म है और यही मानव का परम धर्म भी बन जाता है। चेतना स्वयं देव-स्वरूप है, इस स्वरूप को समझने की देर है, जिसने समझ लिया, वह देवतुल्य हो गया। देवताओं की अर्चना, उपासना, पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन आदि के मूल में एक ही भावना होती थी, वह ‘सोऽहं’ की भावना थी। अभिप्राय यह कि जो तुम हो, हम भी वही बनें। वही शक्ति-सामर्थ्य हमें भी प्राप्त हो। तुम्हारी तरह हम भी अमर पद को प्राप्त हो सकें। अमरत्व ही देवताओं का वरदान है। और यही अमरत्व उनकी पहचान भी है। वरना साक्षात देवताओं से किसका साक्षात्कार हो सका है। भाव ही उसका साक्षी रहा है, जो उस भाव में खो गया, वही देवता बन गया। चिरकाल के बाद लौटने पर जब लोगों ने बुद्ध से भगवान के बारे में पूछा तो बुद्ध मौन रह गए। किंतु अपने तप-त्याग और भावना के कारण भगवान कहलाने लगे। स्वामी राम इस भाव में इतने विभोर हुए कि पागलों की तरह नाचते-गाते ही चले गए। भगवान को उन्होंने भी नहीं देखा, लेकिन महाप्रभु का पद पा गए। सूरदास, तुलसीदास, मीरा आदि अनेकों को यह भावना अमर कर जाती है, और अमर हो जाना ही देवत्व को प्राप्त हो जाना कहा गया है।                                                      – समाप्त


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