सावधान, फोन में जासूस है!
इजरायल की कंपनी एनएसओ का स्पाईवेयर सिस्टम ‘पेगासस’ एक बार फिर चर्चा में है। इस बार आरोपों और देशों का दायरा अपेक्षाकृत बड़ा है। भारत भी उस सूची में है, लेकिन सरकार ने आज तक स्पष्ट नहीं किया है कि उसने ‘पेगासस’ खरीदा है अथवा नहीं। बहरहाल आरोप हैं कि 300 भारतीय नागरिकों की फोन, मोबाइल के जरिए जासूसी कराई गई। विपक्ष विरोध पर इतना आमादा हो गया कि संसद के मॉनसून सत्र के पहले दिन ही, दोनों सदनों में, प्रधानमंत्री मोदी को अपने मंत्रिमंडल के नए सदस्यों का परिचय तक नहीं कराने दिया। यकीनन संसदीय परंपराएं टूटीं और संसद की गरिमा पर भी आंच आई। सरकारी एजेंसियां तब से जासूसी करती रही हैं, जब से स्वतंत्र भारत में संविधान लागू हुआ है। उसकी एक संवैधानिक प्रक्रिया है। केंद्र सरकार के गृह सचिव, सूचना-संचार सचिव, कानून सचिव, खुफिया एजेंसियों के प्रमुख और कभी-कभार कैबिनेट सचिव भी एक समिति में साझा तौर पर निर्णय लेते हैं कि निगरानी या जासूसी देशहित, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अनिवार्य है अथवा नहीं है। यह किसी प्रधानमंत्री, गृहमंत्री या रक्षा मंत्री का इकलौता फैसला नहीं होता। जासूसी का मामला ऐसा नहीं है कि इस मुद्दे पर बैनर बनाकर संसद में लहराए जाएं और हंगामे से संसद की कार्यवाही न चलने दी जाए।
अतीत में किस राजनीतिक पक्ष ने क्या किया था, उसे उदाहरण नहीं बनाया जा सकता। चोर कभी भी चोरी की दलील नहीं दे सकता। जिस कांग्रेस के सांसद और नेता-प्रवक्ता आज जासूसी के मुद्दे पर कपड़े फाड़ रहे हैं, कमोबेश उनकी सरकारों के रिकॉर्ड संसद में ही बेनकाब किए जाएं और मीडिया में उनकी कवरेज हो कि जासूसी का दुरुपयोग किस कदर और किस हद तक किया गया! आपातकाल इसका सबसे विद्रूप उदाहरण है। हम निजी स्तर पर और प्राइवेट कंपनियों के द्वारा देश के नेताओं, पत्रकारों, एक्टिविस्ट, कानूनी जानकारों और विशिष्ट नागरिकों की जासूसी के पक्षधर नहीं हैं, लेकिन आतंकवाद, अपराध, हवाला, देश-विरोधी गतिविधियों में भी नागरिकों की ही धरपकड़ होती रही है। पत्रकार और खुफिया वाले आपस में तालमेल से काम करते रहे हैं। भीतरी सूत्र जो ख़बरें देते हैं, वे भी देश के ही नागरिक हैं। अपराध और देश-विरोध पुनः परिभाषित किए जाने चाहिए। आज जो देशद्रोह और राष्ट्रीय सुरक्षा के उल्लंघन के जुमले बुलंद कर रहे हैं और प्रधानमंत्री मोदी को एकमात्र ‘खलनायक जासूस’ की तरह कठघरे में खड़ा कर रहे हैं, वे भी असंख्य बार आरोपित हुए हैं। वे भी ‘दूध के धुले’ नहीं हैं। वे जिनके पैरोकार रहे हैं, वे भी देश-विरोधी गतिविधियों में संलिप्त रहे हैं। वे संसदीय प्रणाली के ही खिलाफ हैं। अपराध और देश-विरोधी साजि़शें किसी भी नागरिक के चेहरे पर अंकित नहीं होतीं। नेताओं, मंत्रियों, पत्रकारों को कोई विशेषाधिकार हासिल नहीं हैं कि वे देश-विरोधी हरकतों में शामिल रहें और सरकार उन पर निगरानी न रखे। फिर भी ऐसी निगरानी या जासूसी के मद्देनजर किसी की निजता में सेंध लगाई गई हो, किसी की नागरिक स्वतंत्रता को लूटा जा रहा हो, तो वे सर्वोच्च न्यायालय तक गुहार कर सकते हैं। भारत में न्यायपालिका स्वतंत्र, तटस्थ और ताकतवर है।
वह सरकार को आदेश देकर जासूसी पर नए दिशा-निर्देश जारी करा सकती है। मौजूदा कानून में संशोधन करा सकती है, लेकिन तब तक कोई भी व्यक्ति या संगठन देश की चुनी सरकार के चेहरे पर कालिख नहीं पोत सकती। इजरायल के ‘पेगासस’ सिस्टम वाली कंपनी ने उन मीडिया संस्थानों के खिलाफ मानहानि का केस दर्ज कराने की घोषणा की है, जिन्होंने ऐसी गलत धारणाओं और अपुष्ट सिद्धांतों पर ख़बर छापी या प्रसारित की है। इजरायली कंपनी का पक्ष भी सामने आना चाहिए। बेशक दुनिया भर में ऐसी जासूसी से नागरिक और देश परेशान रहे हैं, लेकिन एक सर्वसम्मत जवाब तभी मिलेगा, जब कोई व्यापक और अंतरराष्ट्रीय जांच होगी। संयुक्त राष्ट्र की जांच को भी ठेंगा दिखाया जाता रहा है। भारत में दिसंबर, 2019 में ‘पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन लॉ’ संबंधी बिल पेश किया गया था, लेकिन आज तक संसद में उसे पारित नहीं कराया जा सका। बिल में कुछ खामियां बताई गई थीं। संसद में ही उनमें संशोधन किया जा सकता है, लेकिन वह ‘पीडि़त पक्ष’ के लिए कुछ तो सुरक्षा-कवच का काम कर सकता है। इसी संदर्भ में व्हाट्स ऐप ने अमरीका में एनएसओ कंपनी के खिलाफ कानूनी केस जीता था। माइक्रोसॉफ्ट ने भी अपने उपकरणों में ऐसे बचाव किए हैं कि पत्रकारों या किसी के भी मानवाधिकार का हनन करना संभव नहीं है। भारत सरकार को भी कुछ ताकतवर और सक्षम बचाव करने की शुरुआत करनी चाहिए, क्योंकि निजता भी मौलिक अधिकार से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
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