कलह की कलगी

By: Jul 21st, 2021 12:05 am

पंजाब कांग्रेस के जलजले का असर हिमाचल में नहीं होगा या कितना होगा, इसको लेकर काफी समानताएं दिखाई दे रही हैं। चुनाव की अगली दहलीज के नजदीक हिमाचल कांग्रेस के बीच, पहले से ही दरारें रही हैं और अब वीरभद्र सिंह की मौत के बाद अरमानों की स्थिति और बदलेगी। दरअसल कांग्रेस अपने गणित में असहज और रणनीति में अनिर्णायक होती जा रही है। पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू को पार्टी अध्यक्ष बनाकर कांग्रेस ने जो माला पहनी है, उसके फूलों की खुजली को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आश्चर्य यह कि सिद्धू के व्यक्तिव में दंडवत कांग्रेस आलाकमान क्या पाना चाहता है और क्या पा सकेगा, यह अपने आप में ऐसी राजनीति के पांव हैं जो अपनी ही कुल्हाड़ी से परेशान रहेंगे। बेशक सिद्धू मजमा लगा सकते हैं या जुमलेबाजी में अतिरंजना के नए सुर पैदा कर सकते हैं, लेकिन पुराने कांग्रेसियों के लिए अब आयातित बोझ उठाना नीयति बनता जा रहा है। सुर हिमाचल में भी अब नई करवटों के साथ और वीरभद्र सिंह की शोक सभाओं के समांतर उठे हैं, तो कमोबेश यहां भी सिद्धू होते देर नहीं लगेगी।

 राजनीति अगर अपने पांव चले या कांग्रेस खुद को घायल न करे तो पंजाब, उत्तराखंड व हिमाचल में चुनाव की हर संभावना करीब हो सकती है, लेकिन पार्टी अपने लिए मुसीबत चुनना पसंद करती रहेगी, तो समीकरण बदलते देर नहीं लगती। बेशक जीएस बाली कांग्रेस के अभियान में अपना कद आजमाते रहे हैं और उनके साथ पार्टी का अतीत जुड़ा है, लेकिन वीरभद्र सिंह की शोक सभाओं में उनकी गुगली का हवा में उछलना अपनी ही पिच को खराब करने जैसा है। हिमाचल की नजदीकी सियासत में कांगड़ा का पिछड़ना या पंडित समुदाय की हिस्सेदारी का कमजोर होना एक हकीकत है, लेकिन ये दो शर्तें तो नहीं हो सकतीं या केवल इस मुद्दे को उछाल कर बाली सर्वमान्य हो जाएंगे। बाली का बयान जिस कलह की कलगी बनना चाहता था उसके विपरीत एक नया सच सामने आया है। पूर्व मंत्री चौधरी चंद्र कुमार व कांगड़ा के विधायक पवन काजल ने बाली बयान के कान खींचते हुए यह स्पष्ट करने की कोशिश की है कि पार्टी एकता- एकजुटता से ही सरकार का खाका बनेगा। ये दोनों नेता ओबीसी की ओर से कांग्रेस की ताकत हैं, इसलिए जातीय आधार पर चिन्हित इरादे पार्टी को परेशानी में डाल सकते हैं। पिछली कांग्रेस सरकार में बड़े मंत्री अगर हारे थे, तो इसी कांगड़ा ने चिमटे से उठाकर उन्हें क्यों बाहर किया।

 यहीं काफी अरसे बाद वीरभद्र की गैर मौजूदगी में कांग्रेस का जहाज उड़ाना है, तो हर अवरोधक को हटाकर समतल जमीन बनानी पड़ेगी। पंजाब में हो सकता है कि सिद्धू का प्रभाव कैप्टन अमरेंद्र की जमीन को समतल सतह बना दे या एक साथ कई नए शिखर खड़ा कर दे। इसी हिसाब से हिमाचल में वीरभद्र सिंह की याद में जुटी भीड़ और उनकी शोक सभाओं में पार्टीजनों को गर्दन झुकाने का अवसर मिला। कुछ एहसास अगर हुआ है, तो इससे अलग अलख जगाकर बाली ने अपने हाथी-घोड़े जरूर खोले हैं। विडंबना यह है कि जिस क्षेत्रवाद को खत्म करने के लिए वीरभद्र सिंह को अपनी राजनीति बदलनी पड़ी, उसी के सहारे अब कुछ जख्म कुरेदे जा रहे हैं। हालांकि राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा के प्रश्न पर अब हिमाचल की हर सत्ता को क्षेत्रीय संतुलन की अहमियत पर गौर करना होगा। प्रदेश में उपमुख्यमंत्री व स्वतंत्र वित्त मंत्री के पद सुनिश्चित करने होंगे। जीएस बाली की आंख में कांगड़ा का सुरमा कितना चढ़ता है, लेकिन यह सत्य है कि वीरभद्र सिंह के अलावा इस जिला की हस्ती को कोई अन्य मुख्यमंत्री उतना नहीं संवार पाया।


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