लोक नाट्य परंपरा में कांगड़ा-चंबा जनपदीय भगत-थिएटर

By: Jul 18th, 2021 12:06 am

अतिथि संपादक : डा. गौतम शर्मा व्यथित

विमर्श के बिंदु

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -39

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी 39वीं किस्त…

डा. गौतम शर्मा ‘व्यथित’, मो.- 9418130860

जब आठवें दशक में शाहपुर-कियारी-रेहलू भगतिया डेरेदार सालीराम की पार्टी को कांगड़ा लोकसाहित्य परिषद के निदेशक के माध्यम से जालंधर दूरदर्शन से पारंपरिक शैली में कृष्णलीला तथा स्वांग परंपरा प्रदर्शित करने का अवसर मिला तो सालीराम तथा मनसुखा का किरदार निभाने वाले रामदास ने महसूस किया था कि ‘हम भी टीवी कैमरे के माध्यम से अपनी विरासती लोक नाट्य परंपरा के चमत्कार दिखा सकते हैं, यदि हमारी भी अन्य कलाकारों की तरह पहचान हो, प्रोत्साहन मिले।’ भगतिया कलाकार व डेरेदार हरिजन समुदाय से रहे हैं। जल संस्कृति से संबद्ध रही झीर जाति भी भगत-डेरेदारी निभाती रही है। कहीं-कहीं कबीरपंथी भी इसके कलाकार रहे हैं। हिमाचल में करियाला, बाठड़ा, भगत, बौरा, धाज्जा, हरण, हौरण, हौरिड.फो, हरणेतर, बूचेन आदि लोक नाट्य परंपराएं प्रचलन में हैं। परंतु नाटकीय तत्वों की दृष्टि से प्रथम पांच रूप ही महत्वपूर्ण हैं। भगत-मंचन परंपरा कांगड़ा और चंबा क्षेत्र में अधिक रही है। बुलावे पर सीमांती क्षेत्रों में भी इनका आना-जाना रहा है। इसका पुराना रूप ‘स्वांग’ नकल मात्र था जो वर्गगत व्यवहार तथा व्यवसायों की अच्छाई-बुराई को लेकर एहलकारों से संबंधित होती। इस थिएटर की खूबसूरती भाषा प्रयोग, आशु संवाद, हास्य-व्यंग्यपूर्ण अभिनेय चेष्टाएं रही हैं जिनके द्वारा किसी के प्रति उगली बुराई भी हंसी में बदल जाती। अर्थात जिसकी आलोचना हो रही होती, वह भी उसमें सम्मिलित होकर प्रदर्शन का मज़ा लेता।

पूर्व काल में इसकी भाषा भदेश-अश्लील थी जिसके कारण इसका दर्शक समाज सर्वहारा, श्रमिक वर्ग ही था, स्त्रियों को तो सामाजिक वर्जना थी। परंतु आजादी के बाद धीरे-धीरे साक्षरता बढ़ने के कारण इस मंच की भाषा और अभिनय पर भी सहज अंकुश दिखाई देता। वर्ष 1977 के बाद यह मंच कांगड़ा लोकसाहित्य परिषद के लोक रंगमंच का एक हिस्सा बनता गया और उसी माध्यम से प्रदेश तथा देश के कई हिस्सों में संगीत नाटक अकादमी दिल्ली तथा उत्तर क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र पटियाला के आयोजनों में शिरकत करने लगा जिसके परिणामस्वरूप इस थिएटर के तीन चरण विकसित हुए- पूर्व रंग के बाद कृष्णलीला, (2) स्वांग-नकलें, (3) सामाजिक, धार्मिक, ऐतिहासिक ड्रामे। इस प्रकार इस थिएटर की रात तीन भागों में बंटती।

पूर्व रंग तथा कृष्णलीला प्रदर्शन-आधी रात तक, 2. स्वांग तथा नकलें, 3. कोई सामाजिक, ऐतिहासिक-धार्मिक ड्रामा (दर्शकों की फरमाईश पर), अंत में भक्तमाल गायन के साथ समापन। परंतु अधिकांश मंचों पर समय की कमी के कारण इसके अधिकतर स्वांग-नकलें ही प्रदर्शित होतीं, जिसके परिणामस्वरूप यह धारणा बनती गई कि भगत में केवल स्वांग-नकलें ही दिखाई जाती हैं। परंतु अपनी नाट्यगत विशेषताओं यथा कृष्णलीला प्रसंग प्रदर्शन, धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक नाटक, जो अपनी भाषा और नाट्य सोच के अनुरूप होते, अत्यंत रोचक और अद्भुत होते। अद्भुत इसलिए कि निकटवर्ती प्रदेश पंजाब आदि में उपलब्ध, मंचों पर प्रदर्शित नाटकों का जब ये अपनी भाषा में रूपांतरण करते तो अपनी ओर से भी कुछ न कुछ जोड़ देते, जो उन्हें लोकाभिव्यक्ति का स्वरूप प्रदान करता। वस्तु और भाषा की एडैपटेशन स्वतः ही प्रस्तुति को जिज्ञासापूर्ण और रोचक बना देती। एक प्रश्न के उत्तर में सालीराम बता रहे थे- ‘हमारे थिएटर को सामंतवादी दर्शक भी लुकछिप कर देखा करते, परंतु जाहिर में नहीं बताते कि हम भगत देख रहे थे।

एक जमाना था लोग हमारे मुख से प्रभु नाम सुनना हीनता समझते, हमारे मस्तक पर श्री कृष्ण की भूमिका में मुकुट धारण करना अपराध था। परंतु श्रमिक, सर्वहारा वर्ग भगत कराने की सुखण करते और हमें आदर सहित बुलाते। हमारे द्वारा प्रदर्शित श्री कृष्णलीला तथा गायन को चाव से देखते-सुनते, मन्नतें मनाते। चंद्रावल लीला, द्रोपदी चीरहरण लीलाएं, साधु का स्वांग, गद्दी-गद्दण का स्वांग, लाट साहब का स्वांग और ड्रामों में हीर-रांझा, रूप-बसंत, कृष्ण-सुदामा, हरिश्चंद्र, शामोनार बड़े लोकप्रिय रहे। पूर्व काल में भगतिया डेरेदारों में मिर्चू भगतिया उन ज्वाली, बालकरूपी का गणूराम, डूहका-कोना का फूलाराम, बंडिया बैजनाथ का प्रेमदास, मझैरने का किरपू, आलमपुर के मस्तराम आदि के डेरे काफी मशहूर रहे। वर्तमान में आलमपुर-बालकरूपी के विश्वनाथ जोगी, लंबागांव के ओमप्रकाश प्रभाकर, ज्वालामुखी के ओमप्रकाश नगैरा डेरेदारी संभाले हैं। परंतु वर्तमान में भगत का स्वरूप पारंपरिक औपचारिक मात्र होने लगा है। नाच-गाना या समय के गीतों की भीड़ में फरमायशी प्रस्तुतियों पर जी रहा है। अब मिर्चू और रामदास जैसा मनसुखा कहां है जिनकी अदायगी जॉनी वाकर और मुकरी के समान थी। हाजिरजवाबी में तो रामदास का मुकाबला नहीं।

पारंपरिक भगतियों की समस्या यह है कि ये कलाकार अपनी सोची हुई कथावस्तु के अनुरूप, स्वतः घढ़े संवादों और स्वतः सोची अभिनेय रूप को तो सहजता से अपना लेते हैं, परंतु किसी स्क्रिप्ट के आधार पर लिखे संवादों व तदानुरूप अभिनेय करना इनके लिए सहज नहीं होता। मैंने साक्षरता अभियान में लिखे इन्हीं की शैली पर स्वांग लिखकर भी सिखाए, परंतु जब स्टेज पर जाते, उन्हें भूलकर अपने ही संवाद बोलने लगते। जब मैं पूछता तो कहते- ‘जनाब, स्हांझो तुसां दे लिखियों जो गलाणे दा सझ नि पौआ दा।’ अर्थात हमें आपकी लिखी बातों को कहने का सलीका नहीं आ रहा। हम आपकी बात को अपने ढंग से कह सकते हैं।’ यही इस परंपरित नाट्य की वाचिक खूबसूरती है जो दर्शकों को ठंड में भी अलाव के दायरे में सारी रात बैठने, जागरा करने को विवश करती है। जैसा कि आधुनिकता से परंपरा का हर रूप प्रभावित हुआ है, भगतिया थिएटर भी उसी दौर से गुजर रहा है। आवश्यकता है इस पारंपरिक थिएटर के संरक्षण की। विस्तृत जानकारी हेतु- हिमाचली परंपराशील लोक नाट्य : भगत कथ्य एवं शिल्प : डा. गौतम शर्मा व्यथित। शीला प्रकाशन, नेरटी, कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश।


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