चिंतन के नए आयाम : कोरोना से बड़ी महामारी है ‘अंधविश्वास’

By: Jul 11th, 2021 12:04 am

बल्लभ डोभाल, मो.-8826908116

प्रायः सुनने में आता है कि मनुष्य अच्छे कर्म करे तो मरने के बाद उसे स्वर्ग की प्राप्ति हो जाती है। अच्छे कर्म जिसने नहीं किए, उसके लिए भी स्वर्ग की कामना की गई है। मरने के बाद सभी स्वर्गवासी हो जाते हैं। स्वर्ग जाने के लिए मरना एक जरूरी शर्त जैसे बन गई है। किंतु यह भी एक शाश्वत सत्य है कि मरना कोई नहीं चाहता। भले कितनी दुर्दशा हो जाए, मृत्यु कोई नहीं चाहता। एक बार घूमता हुआ ऋषिकेश जा पहुंचा। वहीं लक्ष्मण झूले के पास एक भिखारी को छाती पर कटोरा रखे पड़ा हुआ देखा। लोग उसके कटोरे में पैसा डालकर चले जाते। भिखारी के हाथ-पांव गले देखकर एक यात्री बोला, ‘देखो, ऐसे जीने से क्या फायदा। इससे अच्छा तो मर ही जाता।’ भिखारी ने सुना तो उसकी आंखें फैल गईं। बोला, ‘मैं मर जाऊं?…तू क्यों नहीं मर जाता। तेरे घर के सारे मर जाएं, तुम सब मर जाओ।’ स्वर्ग में भले सब कुछ मिलता हो, पर वह सब तो मरने के बाद ही मिलेगा, और मरना भी कोई नहीं चाहता। आगे एक जगह भागवत पुराण की कथा चल रही थी। व्यास जी कहानी सुना रहे थे- ‘एक बुढि़या थी, जिसका कोई सहारा नहीं था। वह स्वयं जंगल से लकडि़यां उठा लाती और उन्हीं को बेचकर उसका जीवन-निर्वाह हो रहा था। एक दिन लकड़ी का गट्ठर उससे उठाया न जा सका तो वह बहुत दुखी हुई। यमराज को याद करने लगी। ‘हे यमराज, कहां है तू… क्यों नहीं आकर मुझे उठा लेता?’ अचानक यमराज उसके सामने आ खड़े हो गए। देखकर बुढि़या ने पूछा, ‘तू कौन?’ ‘कि मैं यमराज हूं। तूने याद किया, बोल, अब क्या करना है?’ सुना तो बुढि़या सावधान हो गई। बोली, ‘अच्छा बेटा, तू आ ही गया तो यह लकड़ी का बोझ मुझसे नहीं उठता, इसे उठाकर मेरे सिर पर रख दे। बस…इसीलिए याद किया था।’ तो मरना कोई नहीं चाहता। स्वर्ग में कितना ही सुख क्यों न हो। आप किसी से कहें कि ‘आ मैं तुझे स्वर्ग पहुंचा दूं’, इससे पहले वह आपको ही स्वर्ग का रास्ता दिखा देगा।

आदमी स्वर्ग का इच्छुक भी है। उसे पाने की चिंता भी जीवन भर लगी है। वह परलोक सुधारने के चक्कर में इहलोक की उपेक्षा भी कर जाता है। भविष्य की चिंता में वर्तमान अक्सर बेकार हो जाया करता है। प्रायः शरीर को नाशवान कहकर उसके प्रति उपेक्षा-भाव बना दिया गया है। सृष्टि में नाशवान तो सभी कुछ है। राम, कृष्ण जिन्हें हम देवता मानते हैं, अंततः वे भी नहीं रहे। गीता में बताया गया है कि आत्मा शरीर रूपी पुराने वस्त्र को त्याग कर नया वस्त्र यानी नया शरीर धारण करती है। आत्मा का स्थान वहां ऊंचा है, किंतु आत्मा को भी शरीर की आवश्यकता पड़ती है। आत्मा, मन, बुद्धि आदि का कितना ही महत्त्व क्यों न हो, शरीर के बिना उन्हें कोई पूछने वाला नहीं। शरीर ही उन्हें धारण करता है, उन्हें पोषण देता है, उन्हें सुरक्षित रखता है, इसलिए इस सबसे बढ़कर शरीर का महत्त्व है। मनुष्य देह, यानी मानव जीवन नहीं तो स्वर्ग और मोक्ष की जरूरत भी क्या है, वह सब किसके लिए हैं? आयुर्वेद के धुरंधर अश्विनी कुमार देवताओं के चिकित्सक थे। वे देवताओं के राजा इंद्र के ही भाई थे। किंतु अश्विनी कुमारों की सेवा का फल यह था कि स्वर्ग में उनकी प्रतिष्ठा इंद्र से कहीं ऊंची हो जाती है। इंद्र का शासन बज्र का शासन था, जबकि अश्विनी कुमारों ने सेवा-धर्म का शासन स्थापित किया था। बाद में इंद्र को आयुर्वेद की संपूर्ण जानकारी देने के बाद अश्विनी कुमार इंद्र से यही कहते हैं कि ‘इस जीवन को ही जानो। अन्यथा ब्रह्म को कौन जान पाएगा। इस जीवन की उपासना ही ब्रह्म की उपासना है।’ उपनिषदों में सर्वत्र मानव जीवन का ही आख्यान है। केनोपनिषद का कहना है कि ‘इस जीवन में ही ब्रह्म को न जाना गया तो मृत्यु में विनाश के सिवा कुछ हाथ आने वाला नहीं है।’ इसलिए अच्छा यही होगा कि हम इस जीवन के रहते ही स्वर्ग और मोक्ष की तलाश करें…और यहीं उनके सुखों का उपभोग करें। इसके लिए हमें अपने कुछ पूर्वाग्रहों को छोड़ना होगा। खासकर इस धारणा को कि मरने के बाद ही स्वर्ग अथवा नर्क जाना होता है। ऐसी रूढ़ परंपराओं को लेकर व्यास जी उस दिन कथा सुना रहे थे।…एक राजा के कई रानियां थीं। एक दिन राजा का मुख्यमंत्री किसी काम से रनिवास में गया तो देखा कि सभी रानियां रो रही हैं।

उन्हें रोते देख मुख्यमंत्री को भी रोना आ गया। वह रोते-रोते बाहर निकल आया। मंत्रियों ने देखा कि मुख्यमंत्री रो रहा है तो वे भी रो पड़े। मंत्रियों को रोते देख राजा भी रो पड़ा। समूचे रनिवास से लेकर मंत्रिमंडल तक सभी रो रहे थे, तभी एक बूढ़ा ब्राह्मण किसी काम से राजा के पास आ पहुंचा। देखा कि राजा रो रहा है, उसने रोने का कारण पूछा तो राजा बोला, ‘ब्राह्मण देवता, मुझे तो नहीं मालूम, पर मंत्री रो रहे थे, इसलिए रोना आ गया।’

ब्राह्मण ने मंत्रियों से पूछा तो उत्तर मिला कि रनिवास में रानियां रो रही थीं, इसलिए रोना आ गया। ब्राह्मण ने रनिवास में जाकर पूछताछ की तो पता चला कि बड़ी रानी रो रही थी। बड़ी रानी से पूछने पर पता चला कि उसकी धोबन रोते-रोते आई, उसे देखकर रोना आया। अब ब्राह्मण धोबन के पास पहुंचा और रोने का कारण जानना चाहा, तो धोबन बोली, ‘महाराज क्या बताऊं, मेरे पास एक गधा था जो कपड़ों का बोझ उठाकर घाट तक पहुंचा दिया करता था। कल वह मेरा प्यारा गधा मर गया। रोना इसलिए आया कि अब कौन इतना बोझा उठाएगा।’ आज सहत्तर वर्ष पुरानी घटनाओं वाले वे दिन जब याद आते हैं तो उनके सामने वर्तमान किसी दिशा में विश्वसनीय नहीं बनता। आज दुनिया के तथाकथित विकसित और विकासशील देश अपनी तरक्की और विकास के कितने ही दावे क्यों न पेश करें, किंतु इस सच्चाई से वे बेखबर हैं कि वर्तमान ‘कोरोना’ और ‘फंगस’ जैसे अंधविश्वासों ने सब जगह अपनी जड़ें मजबूती से जमा रखी हैं। व्यास जी की कथा में सबके रोने का कारण धोबन ने खोल कर रख दिया, जबकि दुनिया को रुलाने वाले इन अंधविश्वासों के बारे में आज कोई बोलने का साहस नहीं करता। डर लगता है, कहीं यह दुनिया भी अपने आपमें एक अंधविश्वास बनकर न रह जाए।

ताकि सनद रहे

‘जनता के हृदय का शासन ही लोकतंत्र है, न कि बहुमत की शक्ति का प्रदर्शन। बहुमत और अल्पमत कार्यशैली के अंतर का नाम है। ध्येय अभिन्न होना चाहिए। लोकतंत्र के प्रत्येक नागरिक में अपने कर्त्तव्य के प्रति जीने-मरने का भाव होना चाहिए। अधिकारों और स्वार्थ के लिए किए जाने वाले संघर्ष जनतंत्र का नाश कर देते हैं।’             -बल्लभ डोभाल


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