जीवन की शक्ति

By: Jul 24th, 2021 12:20 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

इन प्रश्नों के उत्तर में संपूर्ण संसार के पर्यटन एवं अनुभव के पश्चात मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूं कि उनका केंद्र हमारा धर्म है। यही भारतवर्ष है जो अनेक शताब्दियों तक शत-शत विदेशी आक्रमणों के आघातों को झेल चुका है। यही वह देश है जो संसार की किसी भी चट्टान से अधिक दृढ़ता से अपने अक्षय पौरुष एवं अमर जीवन शक्ति के साथ खड़ा हुआ है। इसकी जीवन शक्ति भी आत्मा के सम्मान ही अनादि, अनंत एवं अमर है और हमें ऐसे देश की संतान होने का गौरव प्राप्त है।

अतीत से वर्तमान की ओर

भारत के सामाजिक नियम सदैव युगानुसार परिवर्तनशील रहे हैं। उनका प्रारंभिक उद्भव एक विशाल योजना के प्रतीकस्वरूप हुआ था और इस योजना को शनैः शनै समय के साथ उद्घाटित होना था। प्राचीन भारत के महार्षियों की दृष्टि भावी के गर्त में इतनी दूर तक प्रवेश कर चुकी थी कि विश्व को उनके ज्ञान का उचित मूल्यांकन करने के लिए अभी शताब्दियों तक प्रतीक्षा करनी  होगी। उनके वंशजों में उत्तम आश्चर्यजनक योजना की पूर्ण सीमाओं को समझने की योग्यता का अभाव ही भारत के पतन का एकमेव कारण है। भारत का पतन इसलिए नहीं हुआ कि अतीत के नियम एवं आचार खराब थे, बल्कि इसलिए हुआ क्योंकि उन नियमों एवं आचारों को उनकी स्वभावसिद्ध दिशाओं में अग्रसर नहीं होने दिया गया।

वर्तमान भारत का चित्र

विशाल भारत और गहरी, उमड़ती हुई और अधीर नदियां उन नदी तटों पर स्वर्गिक नंदनवन को लजाने वाले मनोरम उद्यान, उन उद्यानों के मध्य अपूर्ण कारीगरी से युग कला सज्जित संगमरमर के गगनचुंबी प्रासाद और उनके आगे पीछे, अगल-बगल झोपडि़यों के झुंड, उनकी मिट्टी की बढ़ती हुई दीवारें उनकी जर्जर छतें, जिनका बांसों का ढांचा नंगा हो चुका है, इधर-उधर घूमते हुए बच्चों और बूढ़ों को फटे-पुराने चिथड़ों से ढंकी कंकालवत आकृतियां, जिनके चेहरों पर सैकड़ों वर्षों की गरीबी और निराशा की गहरी रेखाएं अंकित हैं। हर जगह गाय, बैल और भैसों के दर्शन और ओह! उनकी आंखों में भी वही उदासी की छाया और उनके भी वैसे ही कृश शरीर, रास्ते में जगह-जगह कूड़े और मैले ढेर यही है हमारा आज का भारत।

अट्टालिकाओं से सटी हुई जीर्ण-शीर्ण झोपडि़यां, मंदिरों के द्वारों पर कूड़े के ढेर, रेशमी वस्त्रधारी के बगल में चलता हुआ कौपीनधारी संन्यासी, प्रचुर अन्न से तृप्त व्यक्तियों की ओर दृष्टि गड़ाए क्षुधा क्लांत व्यक्ति की आभाहीन कातर दृष्टि यही है हमारी जन्मभूमि।

विदेशी की दृष्टि में वर्तमान भारत

महामारी और हैजे का भीषण विनाश, नर्तन जाति के मर्मस्थलों को चूसता हुआ मलेरिया, भुखमरी और आधा पेट भोजन मानों दूसरा स्वभाव।


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