ताकि अस्तित्व पर पानी न बरसे

By: Jul 22nd, 2021 12:05 am

बारिश अब ऋतु से आगे निकल कर नए इम्तिहान की परिपाटी में शामिल हो रही है। यह सूचना भर नहीं कि मौसम बदल गया है या पानी हमारे अस्तित्व पर बरस रहा है। हर साल की अदा में बारिश अब ठिकाने ढूंढने लगी है और पानी खुद को कोसों दूर ले जाने की तरकीबों से जूझने लगा। पानी सिर्फ पहाड़ से नहीं बहता, बल्कि आकाश के हर छेद से बह रहा है। पानी को विकास के आकाश से अलग अपने लिए जमीन चाहिए। हम कसूरवार हैं, हमारा विकास कसूरवार है कि पानी की जमीन को छीन कर, भविष्य का अनुमान लगा रहे हैं। पल भर के लिए हम पानी को रोक भी दें, मौसम को कौन रोक पाया। ऐसे में प्रश्न यह कि हिमाचल अपने प्राकृतिक जल संसाधन को बतौर संपत्ति कितना समझ पाया और मौसम के व्यवहार में जल के उत्पात को कितना साध पाया। आश्चर्य यह कि बरसात को तबाही मान कर हम यह अनुमान लगाने को कहीं अधिक तवज्जो देने लगे हैं कि आखिर केंद्र से भरपाई कैसे कराई जाए, जबकि इन जख्मों से सीखने की जरूरत है। बरसात में विद्युत और पेयजलापूर्ति को अपनी अक्षमता मान चुके विभागों ने आखिर नवाचार पर तवज्जो क्यों नहीं दिया और क्यों हर बार पेयजलापूर्ति परियोजनाओं के बाढ़ में बर्बाद होते अस्तित्व पर मासूम बने रहने का सदाबहार बहाना मिल जाता है।

 अधिकांश परियोजनाएं खड्डों, नदी-नालों की गाद में शुतुरमुर्ग की तरह काम करती हैं या इनके उद्गम स्थल पर डेरा डालती हैं। पानी की जरूरत को मौसम से मापने के बजाय, इसके आधार को बाढ़ से अलग करके स्थापित करने की जरूरत है। हिमाचल में बाढ़ का सबसे बड़ा कारण वन संरक्षण अधिनियम भी बनता जा रहा है। करीब 66 फीसदी हिस्से को भले ही वन भूमि चिन्हित करके विभाग एक तरह से जनसमुदाय के जीने या जीवनशैली से अलग कर दे, लेकिन इस तरह की वर्जनाओं ने जीवन के खतरे बढ़ा दिए हैं। क्या कभी वन विभाग से पूछा गया कि बरसात के मौसम में जंगल की 66 फीसदी जमीन हिमाचल की आबादी और विकास पर क्या कोहराम मचाती है। जंगल की प्रवृत्ति में पेड़ों की शिनाख्त तो महज 27 प्रतिशत भाग में है, जबकि शेष रुंड-मुंड जमीन पर तो किसी का नियंत्रण नहीं। ऐसे में जंगल अपनी क्षमता में न तो भू संरक्षण की सौ फीसदी गारंटी है और न ही मौसम की विकरालता में अपनी सुरक्षा पद्धति पैदा कर रहा है। हर साल जंगल की आग, तेज हवाओं में पेड़ों के गिरने से नुकसान और बरसात में जंगल के पानी से नदी-नालों में उफान या विकास के खिलाफ ऐसे व्यवहार का कौन जिम्मेदार है। हिमाचल के बरसाती नुकसान में जंगल का जमीनी अधिकार खतरनाक सिद्ध हो रहा है और इसलिए यह आवाज उठानी पड़ेगी कि इसके लिए केंद्र सरकार अलग से प्रबंध करे या माकूल धन दे।

 इसी तरह शहरी जीवन की परिकल्पना में जिस तरह का विकास हो रहा है, वहां मौसम का आगमन व विदाई दोनों ही परिस्थितियां खतरनाक अंजाम तक पहुंच रही हैं। जल निकासी की परियोजनाओं पर हर शहर, कस्बे, धार्मिक व पर्यटक स्थल का नक्शा बनना चाहिए। कमोबेश यही जरूरत हर महकमे की भी है कि बरसात में सड़क, विद्युत और जलशक्ति विभागों की संपत्तियां कैसे बचाई जाएं। मसला अब अतिक्रमण व कूड़ा कचरा प्रबंधन से राज्य स्तरीय टीसीपी कानून को अंगीकार करने का है, तो विकास के डिजाइन का भी है। पहली बारिशों में कुछ छोटे पुल क्यों बहे या पुलों के डिजाइन के कारण खड्डों ने अपने बहाव की दिशा क्यों बदली, इस पर भी गौर होना चाहिए। पर्वतीय खड्डों का तटीकरण और बरसात से पहले उनकी गहराई तय करने के अलावा बरसात के अवरोध बने पत्थरों को एक किनारे लगाने का इंतजाम भी करना होगा। सड़कों के साथ लगती खड्डों के बहाव को पीडब्ल्यूडी भी समझे और बरसाती बाढ़ के स्पॉट चिन्हित करके इन्हें सुरक्षित बनाया जाए। बरसात के मौसम से पहले तमाम विभागों को अपने-अपने दायित्व में सुरक्षा के दायरे मजबूत करने होंगे तथा इसके लिए वार्षिक योजना बनानी पड़ेगी।


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