पगड़ी संभालने की नौबत

By: Jul 23rd, 2021 12:05 am

हिमाचल के सियासी गले में उपचुनावों की फांस स्पष्ट होने लगी है और सत्ता के अंतिम डेढ़ साल में यह परिस्थितियां राजनीतिक पार्टियों को अनुशासनहीनता के भंवर तक ले जा रही हैं। प्रदेश कांग्रेस के भीतर मसला उपचुनावों से भी आगे निकल कर आगामी चुनावों के करिश्में ढूंढ रहा है, तो भाजपा को अपनों के रूठने का रोग लग चुका है। पिछले कुछ दिनों की रुसवाइयों में सत्तारूढ़ दल की अपनी हसरतें चूर-चूर हुई हैं। अचानक अर्की विधानसभा का उपचुनाव अपने ही अनुपात में भाजपा की रणनीतिक अंकगणित को गड़बड़ाने लगा है। सहूलियत की राजनीति में जमीनी आधार पर कमोबेश हर पार्टी, सत्ता में आकर जुंडली बन जाती है और इस राजनीतिक बीमारी की तीमारदारी जैसा दृश्य बन जाता है। भाजपा के लिए सत्ता का चक्र और उपचुनावों का सत्र आपस में भिड़ रहा है। अर्की के सारे मायने पूर्व विधायक गोविंद राम शर्मा की मुट्ठी में अचानक बंद नहीं हुए, बल्कि वहां राजनीति का बहुरुपियापन पकड़ा गया है।

 भाजपा प्रदेश प्रभारी अविनाश राय खन्ना की अर्की परिक्रमा उस चौपाल के चक्र काट आई जिस पर रूठ कर पूर्व विधायक बैठे हैं। यह कितने गज़ की दूरी है, क्योंकि जिन्हें पार्टी घुटनों के बल लाना चाहती है, वे अपने इरादों के नए घोड़े दौड़ा रहे हैं। यहां सत्ता और संगठन के बीच कड़ी प्रतियोगिता में उतर रहा विरोध कमोबेश हर उपचुनाव के समीकरणों को उलझा रहा है। क्योंकि सत्ता की मिठास फिलवक्त भाजपा के पास है, लिहाजा ये चारों उपचुनाव शहद की मक्खियों से घिरे हैं। भाजपा के लिए फतेहपुर, जुब्बल-कोटखाई और मंडी संसदीस क्षेत्र का समर भी अपनी भीतरी परीक्षा पर उतर रहा है। इन उपचुनावों की हकीकत में कई बांध क्यों टूटने लगे, यह भाजपा के लिए मंत्रणा का विषय है। इस तरह घटनाक्रमों का सत्ता के लिए सबसे बड़ा नुकसान यह हो सकता है कि आंतरिक असहमति-विरोध के कारण, ये तमाम उपचुनाव खुद ब खुद खड़े हो जाएंगे, जबकि दोनों पार्टियों के लिए अपनी-अपनी जमीन हासिल करने के लिए लगभग बराबर के पलड़े हैं। फतेहपुर व अर्की विधानसभाओं के उपचुनाव कांग्रेस के लिए गंगा में डुबकी लगाने वाले साबित हो सकते हैं, क्योंकि पारिवारिक संवेदना के कई क्षण, आगामी सियासत को आशीर्वचन देंगे।

 कांग्रेस की पृष्ठभूमि के हिसाब से मंडी संसदीय क्षेत्र का उपचुनाव भी अब वीरभद्र सिंह की विरासत का ऋण चुकता करना चाहता है। इसी दृष्टि से जुब्बल-कोटखाई की तमाम चुनावी संभावनाओं के अक्स में भाजपा की पगड़ी ऊंची है। बहरहाल एक साथ चार उपचुनावों की बिसात में सत्ता के साढ़े तीन सालों की मेहनत, मुख्यमंत्री की छवि और भाजपा की रणनीति सामने आएगी। ये उपचुनाव अतीत से कितने भिन्न और समीकरणों के हिसाब से भाजपा संगठन और सत्ता के बीच संतुलन भी पैदा करते हैं, यह देखना होगा। भाजपा की मिलकीयत में सत्ता का आरोहण जिन चेहरों को पिछले साढ़े तीन साल में आगे करता रहा है, दरअसल उनके लिए ही ये उपचुनाव अब कीमती होने जा रहे हैं। जाहिर तौर पर ये सारे उपचुनाव परिस्थितिवश हो रहे हैं, लेकिन सत्ता की महत्त्वाकांक्षा में अवश्य ही उथल-पुथल मचा रहे हैं। हर चुनाव अपनी जिरह बदलता है और अगर मुकाबला सत्ता के बीचोंबीच शुरू हो जाए, तो परिणाम कठिन हो सकते हैं। भाजपा अपने आंकड़ों की आपूर्ति करती है या इन्हें और आगे बढ़ा देती है, यह सरकार और संगठन के बीच मर्यादित व अनुशासित तरीकों से ही संभव होगा। फिलहाल अर्की की घटना सीधे-सीधे चुनौती की तरह चस्पां है।


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