लाहुली लोकसाहित्य में प्रकृति के विविध आयाम

By: Jul 11th, 2021 12:04 am

पदमा ठाकुर, मो.-9418155324

हिमाचल प्रदेश का जनजातीय जिला लाहुल-स्पीति अपनी अलग परंपराओं, मान्यताओं, भौगोलिक कारणों से सदैव प्रदेश के अन्य जिलों से भिन्न पहचान रखता आया है। यहां के लोगों की सादगी जनजातीय स्वभाव को निःसंदेह दर्शाती है क्योंकि स्वभाव को किसी प्रकार से बदला नहीं जा सकता:  ‘स्वभावो न उपदेशेन शक्यते कुर्तभन्यथा।’ लाहुल की गीत, गाथाओं, कहावतों, जो कि लोकसाहित्य के विभिन्न अंग हैं, में नैसर्गिकता, सहज स्वीकार्यता का भाव प्रतिबिंबित होता है। लोक गाथाओं (घुरे) या लाहुली सांस्कृतिक गीतों में एक साधारण मानव की व्यवहारचर्या से लेकर तत्कालीन विशिष्ट जनों यानी ठाकुरों के वीरता, शृंगार, अनेक विवादों, देवी-देवताओं तथा बौद्ध गोंपाओं पर आधारित अनेक रचनाओं का प्राचुर्य प्राप्त होता है।

इन सबके बीच प्रकृति के प्रति लाहुली (लाहुलवासी) अपने गीतों के माध्यम से या उसके दैनिक व्यवहार से सदा ही संवेदनशील प्रतीत होता है। प्रकृति के प्रति इनका भाव अपनी जन्म देने वाली मां के समतुल्य ही रहता है। दोनों को ही समान दर्जा उनकी निःस्वार्थता के कारण दिया जा सकता है, चाहे वो जन्म देने वाली मां हो या प्रकृति रूपी मां। जिस प्रकार के अटूट प्रेम और लगाव से मां अपने बच्चे को संभाले रखती है, ठीक वैसे ही प्रकृति भी हमें गोद में संभाले रखती है। एक मां का चित्त अपने बच्चों के प्रति शरीर के अंतिम क्षणों तक चिंतित रहता है। जैसे लाहुली प्रसिद्ध घुरे ‘रूपी रानी की बलि’ की कुछ पंक्तियां भी दर्शाती हैं ः ‘ए धीरा धीरा घूषाड़ा बालक रोलूणे लागी जे।’ (घुषाल वासियो रुको कुछ क्षण रोते बच्चों को चुप करा आती हूं)। अंत समय को जान अपनी अंतिम इच्छा कहती है: ‘ए मेणी बाटा देन्दा जे चूचू बारे नीसे राखी जे, ए मेणी याना बालक आयेला मेणी ए चूचू पीयेला।’ (दोगे जब बलि मेरी स्तनों को रखना बाहर बच्चे मेरे  करेंगे पान)। ‘ए मेणी याना सीरा जे बारे नीसे राखी जे, ए मेणी दीवा आयेला मेणी जूआं हेरला’। (दोगे जब बलि मेरी सिर को रखना बाहर देखेगी जुएं आकर बेटी)। यानी अपने बालक की भूख-प्यास की चिंता एक मां को अपने अंतिम सांसों तक रहती है।

इसी तरह एक अन्य घुरे ‘चेपि की मृत्यु’ में जो कि स्वयं मृत्यु की गोद में होते हुए अपने बच्चों के भविष्य की चिंता में अपनी सौतन (तत्कालीन जेठानी या देवरानी के लिए प्रयुक्त शब्द) से कहती है ः ‘अयो मेरे सोखूणी मउंए मरुणे री ध्याडी।’ (हे सौतन मृत्यु की घड़ी मेरे सर पर है)। ‘ए बालाका याणा कासे री हाथे, अयो मेरे सोखूणी बालाका तेन्ठूणे हाथे’। (मेरे ये बच्चे सौंपती हूं, इन्हें अब हाथ तुम्हारे)। यानी एक वो मां जो हमें इस सुंदर धरा पर लाती है और एक वो मां जो हमारे अच्छे-बुरे कर्मों को बिना देखे हमारा पालन-पोषण करती है। दोनों ही अपनी निःस्वार्थता की पराकाष्ठा को दर्शाती हैं। परिवर्तन को अंगीकार करते हुए लोग अवश्य अपने विचारों में, कर्मों में बदलाव लाते हैं, परंतु प्रकृति का केवल देने का यह भाव पहले भी था, आज भी विद्यमान है। अथर्ववेद में भी ऐसा ही विषय प्रस्तुत होता है ः ‘सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्न्युरूं लोकं पृथिवी नः कृणोतु’। अर्थात, इस पृथ्वी ने भूतकाल के जीवों का पालन किया था। भविष्य काल के जीवों का भी पालन करेगी।

इस प्रकार की पृथ्वी हमें निवास के हेतु विस्तृत स्थान प्रदान करें। लाहुल के अधिकतर लोगों की आजीविका का एक महत्त्वपूर्ण आधार कृषि है, जिससे उठकर ही आज एक लाहुली किसान ब्राफो, कूंठ, आलू की खेती से आगे बढ़कर फूलगोभी, ब्रोकली, फ्लोरीकल्चर तक के सफर से देश की विभिन्न मंडियों तक पहुंच बना पाने में समर्थ हुआ है। एक लाहुली किसान परिवार किस प्रकार हर्षोल्लास के साथ अपने खेतों को लहलहाने का प्रयास करता है, इसका एक संक्षिप्त सा विवरण इस प्रकार है : हल जोतने का दिन उसके लिए प्रसन्नता का दिन रहता है।

इस दिन किसान ब्राफो तथा जौ को भूनकर, टोटू (सत्तू का पिंड), मक्खन से सुसज्जित छंग (पेय पदार्थ) से भरे पात्र (पूर्णता का प्रतीक) को लेकर, शुर (जुनिफर), हड (हल), जुम (जुगल), बैलों के जोड़े को लेकर और ढेर सारी आशाओं, उम्मीदों के साथ खेतों में पहुंचता है। खेत में बैलों को तैयार कर (हड, जुम लगाकर), उन्हें छुड.भर (मक्खन का टीका, शुभ प्रतीक) लगाकर, ब्राफो, जौ के दानों सहित, मक्खन, टोटू को आसमान की तरफ (विषम संख्या में) उछाल कर छंग इत्यादि को अर्पित कर कृतज्ञ होकर धरती का श्रद्धापूर्ण शागुन (शुभ मंगल कामना) करते हुए हल जोतने और बीज वपन का काम आरंभ करता है। बीज के वपनोपरांत गार, रंगला वैली या अन्य वैलियों में उस फसल की अच्छी पैदावार के लिए कामना की जाती है। इसकी भी एक खास प्रक्रिया है। इनके अतिरिक्त भी लोक गीतों में सांसारिक भाग-दौड़ के बीच विस्मृत होते अपने बीते कल को कवि याद करते हुए अपनी धरती ‘स्वांगला’ (लाहुल के लिए प्रचलित अभिज्ञान) की स्वर्ग से तुलना करने में अतिशयोक्ति नहीं समझता।

गीत की पंक्तियां हैं : ‘स्वांगलो धरती स्वर्गो शु डेरा, पेशा यवातईं रे सादी रे’। पहाड़ों व नदियों के कारण लाहुल की धरा पर स्वर्ग का भाव उभरना स्वाभाविक है। कवियों ने चंद्रभागा नदी की महिमा का गुणगान भी किया है। इस प्रकार लोक गीतों के माध्यम से तथा लोक व्यवहारों से स्पष्ट है कि लाहुली अपने जीवन के अभिन्न अंगों अपनी मां, नदी रूपी मां के सदृश ही प्रकृति से सदा के लिए जुड़ा हुआ है।


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