हमें हीरे चाहिए या ऑक्सीजन

By: Jul 23rd, 2021 12:05 am

महाराजा कॉलेज, छतरपुर के प्रोफेसर एसके छारी के शोध से पता चलता है कि इन्हीं जंगलों से लगे पहाड़ों पर आज भी शैल चित्र विद्यमान हैं जो आदिमानव कालीन सभ्यता को बयां करते हैं। दरअसल बक्सवाहा के जंगल एक ऐसे फेफड़े हैं जो बुंदेलखंड को सांसें प्रदान करते हैं। इनकी कटाई बुंदेलखंड में मानवता को समूल नष्ट करने का आखिरी ताबूत साबित होगा। एक तरफ ‘केन-बेतवा लिंक परियोजना’ है जिसमें लगभग 1000000 पेड़ों की कटाई होनी है और दूसरी तरफ बक्सवाहा का जंगल बुंदेलखंड के पर्यावरण को समूल नष्ट कर देगा। कोविड महामारी तय कर चुकी है कि अब हम सरकारों के भरोसे नहीं बैठ सकते, इसलिए जंगल बचाना, जमीन बचाना एवं जीवन बचाना हम सबकी जिम्मेदारी होगी, जिसके लिए हमें आगे आना होगा…

हीरा उत्खनन के लिए सस्ती कीमत पर दिए जा रहे बुंदेलखंड के जंगलों ने एक तरफ ऑक्सीजन यानी प्राणवायु और दूसरी तरफ अमीरों के श्रृंगार में जरूरी हीरे को एक-दूसरे के सामने खड़ा कर दिया है। अब हमारी सरकार, सेठ और समाज को तय करना है कि इनमें से किसे अहमियत दी जाए। इस आलेख में इसी विरोधाभास पर प्रकाश डालने की कोशिश करेंगे। विंध्याचल पर्वत श्रृंखला के कैमूर पर्वत में अवस्थित बक्सवाहा के जंगलों की कटाई इसलिए होगी क्योंकि वहां जमीन के नीचे हीरा है, लेकिन ऑक्सीजन क्या किसी हीरे से कम है? इसलिए अब वहां मुद्दा ऑक्सीजन बनाम हीरा का है। पिछले कुछ महीनों में कोविड महामारी के चलते ऑक्सीजन की कमी ने ऐसा कोहराम मचाया है कि अचानक सबकी आंखें खुल गई हैं। देश के सर्वाधिक वनाच्छादित राज्य होने के बावजूद मध्यप्रदेश में ऑक्सीजन का अकाल पड़ गया था। भले ही हम कृत्रिम ऑक्सीजन और प्राकृतिक ऑक्सीजन में अंतर रखते हों, लेकिन होती वह प्राणवायु ही है। दूसरी तरफ मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले में हीरे के उत्खनन के लिए 382.131 हेक्टेयर भूमि पर आच्छादित सघन वनों को काटे जाने का प्रस्ताव है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस क्षेत्र में सिर्फ दो लाख 15 हजार पेड हैं, जबकि वास्तव में यह कई लाख पेड़ों का जंगल है। स्थानीय लोग बताते हैं कि उन्हें जहां तक पता है कि यह केवल फलदार वृक्षों की गणना है, इसमें इमारती लकड़ी और सघन झाडिय़ों को शामिल नहीं किया गया है। साथ ही औषधीय पौधे, जीव-जंतु, वेटलैंड, विलुप्त होते जानवर और आदिमानव कालीन सभ्यता को सरकारी रिपोर्ट में कम महत्त्व दिया गया है। सवाल है कि हम किस चीज का चयन करें? हीरा उत्खनन के लिए जंगलों की कटाई का या ऑक्सीजन एवं जैव-विविधता बनाए रखने के लिए जंगलों का? या फिर कोई तीसरा रास्ता भी हो सकता है, जिससे वन संपदा, ऑक्सीजन, जैव-विविधता भी बनी रहे और कीमती हीरा भी हाथ लग जाए। हीरे की बजाय क्या हम उस जंगल से मानव सभ्यता को बनाए रखेंगे जो वहां के पुरातात्विक स्रोतों में दिखाई देती है।

 और जिसे आरक्षित वन घोषित करके हजारों प्रजातियों का संरक्षण कर बुंदेलखंड के फेफड़े बक्सवाहा से छूटती सांसों को बचाया जा सकता है? मध्यप्रदेश वनाच्छादन में देशभर में ऊंचे स्थान पर है। यहां आदिम जनजातियां भी ज्यादा हैं, आरक्षित वन व राष्ट्रीय उद्यान भी। हमारे मुख्यमंत्री ने ‘नर्मदा जयंती’ पर प्रतिदिन एक पेड़ लगाने का संकल्प लिया था, लेकिन फिर भी वे वृक्षों की कीमत समझने के बाद, बक्सवाहा जैसे विशाल जंगलों को कटा कर क्या सिद्ध करेंगे? क्या उनका लगाया हुआ एक-एक पेड़ इन लाखों पेड़ों के जैसा हो जाएगा और क्या जंगल खड़े किए जा सकते हैं? वर्ष 2017 में भी मध्यप्रदेश सरकार ने नर्मदा घाटी में आठ करोड़ पौधे लगाने का दावा किया था, लेकिन स्थिति यह हुई कि ‘गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड’ में इस वृहद वृक्षारोपण के आवेदन तक को निरस्त कर दिया गया। जब हम प्राकृतिक पर्यावरण से समृद्धि की बात करते हैं तो वह केवल पैसे तक सीमित नहीं होती। उसमें शारीरिक, मानसिक समृद्धि से सराबोर एक खुशहाल व सशक्त समाज होता है। एक मजबूत पारिस्थितिकी तंत्र होता है जो स्थानीय के साथ-साथ क्षेत्रीयता को एक अलग पहचान देता है। यदि हम केवल एक सामान्य पेड़ की बात करें तो वह साल भर में 20 किलोग्राम धूल सोखकर लगभग 700 किलोग्राम ऑक्सीजन देता है, 20 टन कार्बन डाइऑक्साइड सोखकर दूषित हवा को फिल्टर करता है और ध्वनि/शोर को नियंत्रित करता है। बक्सवाहा का जंगल तो एक विराट जंगल है, जिसके बारे में हम कल्पना नहीं कर सकते कि वह हमें कितनी ऑक्सीजन देता और कितना कार्बन डाइऑक्साइड सोखता है।

आज दुनियाभर के देश विकास के चक्कर में पर्यावरण के लिए दूसरे देशों पर निर्भर होते जा रहे हैं। पर्यावरण पर आधारित वैश्विक कन्वेंशन क्योटो प्रोटोकोल कार्बन क्रेडिट की बात करता है जो स्थानीय स्तर पर भी संभव है। हम अपने पर्यावरण के संरक्षण हेतु अपनी ऑक्सीजन उत्पन्न करें और यदि हमारे पास जरूरत से ज्यादा ऑक्सीजन है तो हम पड़ोसी जिलों, राज्यों को क्रेडिट करें। इसके मापदंड के रूप में सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल जैसे मापदंड हैं, लेकिन यह कुछ दिनों तक ही सीमित हैं क्योंकि दूसरे देश भी कमतर ही सही, लेकिन उसी भेड़ चाल में चल रहे हैं, जनानांकिकी विकास भी कर रहे। यह रास्ता हमें प्राणवायु और वन संपदा भी देगा तथा हीरे जैसी चमचमाती कीमत भी। यह लाभ किसी एक कंपनी या किसी एक सरकार को नहीं, बल्कि संपूर्ण मानव सभ्यता और समाज को मिल पाएगा। जंगल के इस महत्त्व को हम वन संपदा और जैव विविधता के नजरिए से भी देख सकते हैं। बक्सवाहा का जंगल वह क्षेत्र है जहां पर हीरा उत्खनन होना है।

उस क्षेत्र में लगभग 14 गांवों के लगभग 1000 परिवार (8000 लोग) प्रभावित हैं जो बताते हैं कि हम इसी जंगल पर पूरी तरह निर्भर हैं और प्रतिवर्ष लगभग दो लाख रुपए की आय करके अपनी आजीविका चलाते हैं। इसके अलावा पन्ना टाइगर रिजर्व से लेकर नौरादेही अभ्यारण्य तक यह एक पूरा जैव-विविधता का हॉटस्पॉट तथा जंगली जानवरों का कॉरिडोर है जिसे हम एक प्राकृतिक पर्यटन स्थल के रूप में भी विकसित कर सकते हैं। महाराजा कॉलेज, छतरपुर के प्रोफेसर एसके छारी के शोध से पता चलता है कि इन्हीं जंगलों से लगे पहाड़ों पर आज भी शैल चित्र विद्यमान हैं जो आदिमानव कालीन सभ्यता को बयां करते हैं। दरअसल बक्सवाहा के जंगल एक ऐसे फेफड़े हैं जो बुंदेलखंड को सांसें प्रदान करते हैं। इनकी कटाई बुंदेलखंड में मानवता को समूल नष्ट करने का आखिरी ताबूत साबित होगा। एक तरफ ‘केन-बेतवा लिंक परियोजना’ है जिसमें लगभग 1000000 पेड़ों की कटाई होनी है और दूसरी तरफ बक्सवाहा का जंगल बुंदेलखंड के पर्यावरण को समूल नष्ट कर देगा। कोविड महामारी तय कर चुकी है कि अब हम सरकारों के भरोसे नहीं बैठ सकते, इसलिए जंगल बचाना, जमीन बचाना एवं जीवन बचाना हम सबकी जिम्मेदारी होगी, जिसके लिए हमें आगे आना होगा।

अंकित मिश्रा

स्वतंत्र लेखक


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