उपासना और साधना

By: Sep 18th, 2021 12:20 am

श्रीराम शर्मा
साधना का दूसरा पक्ष उत्तरार्ध, उपासना है। विविध शारीरिक और मानसिक क्रिया कृत्य इसी प्रयोजन के लिए पूरे किए जाते हैं। शरीर से व्रत, मौन, अस्वाद, ब्रह्मचर्य, तीर्थयात्रा, परिक्रमा, आसन, प्राणायाम, जप, कीर्तन,पाठ, बंध, मुद्राएं, नेति, धौति, बस्ति, नौलि, बज्रोली, कपालभाति जैसे क्रियाकृत्य किए जाते हैं। मानसिक साधनाओं में प्रायः सभी चिंतन परक होती हैं और उनमें कितने ही स्तर के ध्यान करने पड़ते हैं। नादयोग, बिंदुयोग, लययोग, ऋजुयोग, प्राणयोग, हंसयोग, षटचक्र वेधन, कुंडलिनी जागरण जैसे बिना किसी श्रम या उपकरण के किए जाने वाले, मात्र मनोयोग के सहारे संपन्न किए जाने वाले सभी कृत्य ध्यान योग की श्रेणी में गिने जाते हैं। स्थूल शरीर से श्रमपरक, सूक्ष्म शरीर से चिंतनपरक उपासनाएं की जाती हैं। कारण शरीर तक केवल भावना की पहुंच है। निष्ठा, आस्था, श्रद्धा का भाव भरा समन्वय च्भक्तिज् कहलाता है। प्रेम संवेदना इसी को कहते हैं। यह स्थिति तर्क से ऊपर है। मन और बुद्धि का इसमें अधिक उपयोग नहीं हो सकता है। भावनाओं की उमंग भरी लहरें ही अंतःकरण के मर्मस्थल का स्पर्श कर पाती हैं। मनुष्य के अस्तित्व को तीन हिस्सों में बांटा गया है सूक्ष्म, स्थूल और कारण। यह तीन शरीर माने गए हैं। दृश्य सत्ता के रूप में हाड़ मांस का बना सबको दिखाई पड़ने वाला चलता-फिरता, खाता-सोता, स्थूल शरीर है। क्रिया शीलता इसका प्रधान गुण है।

इसके नीचे वह सत्ता है, जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं। इसका कार्य समझ और केंद्र मस्तिष्क है। शरीर विज्ञान में अनाटॉमी, फिजियालॉजी दो विभाजन हैं। मनःशास्त्र को साइकोलॉजी और पैरा-साइकोलॉजी इन दो भागों में बांटा गया है। मन के भी दो भाग हैं एक सचेतन, जो सोचने विचारने के काम आता है और दूसरा अचेतन, जो स्वभाव एवं आदतों का कंेद्र है। रक्त संचार, श्वास-प्रश्वास, आकुंचन-प्रकुंचन, निमेष-उन्मेष जैसी स्वसंचालित रहने वाली क्रियाएं इस अचेतन मन की प्रेरणा से ही संभव होती हैं। तीसरा कारण शरीर, भावनाओं का, मान्यताओं एवं आकांक्षाओं का के्रद्र है, इसे अंतःकरण कहते हैं। इन्हीं में च्स्वज् बनता है। जीवात्मा की मूल सत्ता का सीधा संबंध इसी च्स्वज् से है। साधना को कई लोग सामान्य अर्थों में किसी क्रियापरक प्रवृत्ति से जोड़कर समझने का प्रयास करते हैं। साधना का अर्थ है अपनेआप पर नियंत्रण। अपनेआप को साध लेना। साधना से सिद्धि प्राप्त होती है। साधक अनेकानेक विभूतियों को प्राप्त करता है। गुरुदेव ने साधना से सिद्धि के लिए वातावरण को अधिक महत्ता दी है। साधना और उपासना व्यक्ति के जीवन में दिव्य ज्योति जैसा प्रकाश लाती है। अपने अंतःकरण में उस ज्योति की अनुभूति का आभास करने के लिए आपको साधना और उपासना का मार्ग अपनाना चाहिए। साधना के द्वारा इंद्रियों को वश में किया जा सकता है। इस तरह आप सब कुछ जीत सकते हैं।


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