जीवन यात्रा और स्वभाव

By: Oct 16th, 2021 12:20 am

ओशो

मुझे लगता है जीवन यात्रा में मैं स्वभाव से बहुत दूर निकल आया हूं। तो क्या स्वभाव में वापस लौटने की, प्रतिक्रमण की यात्रा भी इतनी ही लंबी होगी? या उसमें कोई शर्टकट भी संभव है?

शार्टकट तो बिलकुल भी संभव नहीं है और दूसरी बात और ख्याल से समझ लें, यात्रा इतनी लंबी नहीं होगी। यात्रा होगी ही नहीं। करीब-करीब हालत ऐसी है कि एक आदमी सूरज की तरफ पीठ करके खड़ा है और चलता जा रहा है। हजारों मील चल चुका है। और हम उससे आज कहते हैं कि तू सूरज की तरफ चल चुका हजार मील पीठ करके, इसलिए अंधेरे में भटक रहा है और प्रकाश को खोजना चाहता है। तो वह आदमी कहेगा कि क्या सूरज की तरफ मुंह करने के लिए मुझे हजार मील फिर चलना पड़ेगा? उससे हम कहेंगे, नहीं हजार मील नहीं चलना पड़ेगा। वह कहे कि क्या कोई शार्टकट हो सकता है कि दो-चार-पांच मील चलने से हो जाए। हम कहेंगे कि चलने की कोई जरूरत नहीं, तू सिर्फ रुख बदल ले, तू सिर्फ पीठ सूरज की तरफ किए है, मुंह उधर कर ले। क्योंकि सूरज केवल एक स्थान में बंधा हुआ नहीं है और जब तू सूरज की तरफ पीठ करके जा रहा था तब भी सूरज तेरे पीछे साथ ही था। परमात्मा अगर कहीं एक जगह बंधा हुआ होता या स्वभाव कहीं कैद होता,  हम उससे दूर निकल सकते थे। हम दूर नहीं निकल सकते हैं हम केवल पीठ ही कर सकते हैं। इसलिए कोई लाखों जन्मों तक स्वभाव से पीठ किए रहा हो, कोई फर्क नहीं पड़ता।

 आज मुंह फेरने को राजी हो गए, स्वभाव में प्रविष्ट हो जाएगा। इसलिए न तो मैं कहता हूं कि उतना ही चलना पड़ेगा, जितना आप विपरीत चले हैं और न मैं कहता हूं कि कोई शार्टकट संभव है। शार्टकट की तो कोई जरूरत ही नहीं है। क्योंकि चलना ही नहीं है, सिर्फ रुख बदलना है। ऐसा समझे कि इस कमरे में अंधेरा भरा हो हजारों साल से और हम कहें कि दीया जलाओ। तो कोई पूछे कि हजारों साल तक दीया जलाते रहेंगे तब अंधोरा मिटेगा? क्योंकि अंधेरा हजारों साल पुराना है और अभी दीया जलेगा तो एकदम से कैसे अंधेरे को मिटाएगा? इतना पुराना अंधेरा कोई जल्दी का उपाय नहीं है? तो हम उससे कहेंगे कि न तो देर लगेगी और न जल्दी का कोई सवाल है। क्योंकि दीया जला नहीं कि अंधेरा मिट जाएगा। अंधेरे की कोई प्राचीनता नहीं होती, अज्ञान की कोई प्राचीनता नहीं होती।  वह कितना ही समय रहा हो, उसकी पर्तें नहीं जमतीं। उसको काटना नहीं पड़ेगा। ज्ञान की एक किरण और अंधेरा कट जाता है और अज्ञान छूट जाता है। और ऐसा किसी व्यक्ति के साथ थोड़े ही है कि वह स्वभाव से दूर निकल गया है। सभी स्वभाव से दूर निकल गए हैं, पर दूर निकलने का इतना ही मतलब है कि वे पीठ करके चलते रहे हैं। वस्तुतः तो कोई स्वभाव से दूर नहीं निकल सकता। कैसे निकलेंगे? स्वभाव का मतलब ही यह है कि जो आप हैं। स्वभाव और आप दो होेते तो कहीं स्वभाव को छोड़कर भाग आ सकते थे। स्वभाव यानी आप, तो आप दूर कैसे निकलेंगे। कोई दूर निकलने का उपाय नहीं है। स्वभाव की परिभाषा यह है जिसे छोड़ा न जा सके। जिसे छोड़ा जा सके वह परभाव है। स्वभाव का अर्थ है जिसे अपने से अलग नहीं किया जा सकता। लाख उपाय करें, तो भी स्वभाव से भिन्न आप नहीं हो सकते। तो पहली बात यह है कि आप स्वभाव को छोड़ नहीं सकते, स्वभाव से विपरीत नहीं हो सकते।


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