चिंतन के नए आयाम : खेत में कविता

By: Oct 3rd, 2021 12:04 am

बल्लभ डोभाल, मो.-8826908116

एक लंबे अंतराल के बाद जब गांव जाना हुआ तो रास्ते वाले खेत में बासूदा को हल चलाते देख लिया। अस्सी वर्ष पार कर चुके बासूदा को मजबूती से हल की मूंठ थामे देख पहली प्रतिक्रिया यही हुई कि पहाड़ के वातावरण हवा-पानी का ही यह कमाल है जो मरते दम तक किसी को हारमान नहीं होने देता। फिर बासूदा की आधी से ज्यादा उम्र तो फौज में ही कटी है। देश में अंग्रेजों की हुकूमत रही। उनकी फौज में रहकर बासूदा जब जर्मनी, फ्रांस, बेल्जियम, इटली जैसे देशों के साथ लड़ाई के किस्से सुनाता तो सुनने वालों के कान खड़े रह जाते, मुंह खुला रह जाता। बासूदा बचकर निकल आया तो सरकार ने भी अपने फौजी जवान को दिल्ली के पास बतौर बख्शीश के जमीन भी दे दी।

घर बनाकर कुछ वर्षों तक बासूदा वहां रहा भी, लेकिन गांव की याद जब आई तो वह सारा कुछ बच्चों के हवाले कर गांव लौट आया। मुझे आया देख उसने बैलों को कुछ देर के लिए खुला छोड़ दिया। बोला, ‘अबकी बार देर से आए हो, अब शायद तुम्हें भी गांव की याद नहीं आती।’ ‘आती है बासूदा…बहुत याद आती है, लेकिन मजबूरी है, आना नहीं हो पाता।’ मैंने कहा। ‘चलो देर से सही, तुम आ तो जाते हो। वहां तुम्हारी मजबूरी है और यहां रोग ऐसा लगा है कि एक बार गांव से निकल कर जो चला गया, वह फिर लौटकर नहीं आया। गांव खाली होते जा रहे हैं।’ कहते हुए एक विषाद की झलक बासूदा के चेहरे पर उभर आई। सचमुच गांवों के साथ यही हुआ है। उन्हीं दिनों गांवों के पलायन पर मैंने कुछ कविताएं लिखी थी। बासूदा को शायद किसी ने बताया हो कि कविता लिखना कोई मामूली बात नहीं, हर कोई कविता नहीं लिख सकता। मेरा कविता करना बासूदा के लिए गर्व का विषय बना।

उत्सुक लहजे में बोला, ‘सुना है तू कविता करने लगा है।’ ‘हां, लिखता तो हूं।’ मैंने कहा। मसखरे अंदाज में बासूदा कभी ऐसी बातें कह जाता है कि सामने वाले के पास कहने को कुछ नहीं रह जाता। बोला, ‘दिल्ली, बंबई जैसे शहरों में बैठकर तुम लोग कविता करते हो तो यहां गांव में रहकर हम भी कविता कर लेते हैं।’ मन ही मन सोचा, बासूदा कैसी कविता करता है। सुनने की उत्सुकता हुई तो मैंने बासूदा से कविता सुनाने का आग्रह किया। बोला, ‘मेरी कविता सुनने-सुनाने की नहीं, देखने और करने की है। देखना हो तो तीन महीने बाद आना, कविता तुम्हें खेत में खड़ी नजर आएगी…जहां तक लिखने की बात है तो वह जो हल की नोक है, वह रही हमारी कलम…और उस कोने तक फैला कागज जैसा खेत…उस पर जब हमारी कलम चलती है तो कविता की कई किस्में उग आती हैं…और वर्ष भर के लिए हम बफिक्र हो जाते हैं। कविता तुम भी लिखते हो, तुम्हारी कविता इतना कुछ दे पाती है क्या?’ मेरे पास कोई उत्तर नहीं। लगा कि हमारी कविता किसी काम की नहीं, असली कविता तो बासूदा ही लिखता है। वह हमारी तरह खोखले शब्दबीज नहीं बोता, वह ऐसे बीज बोता है जो हमें जीवन देते हैं और मन की भूख के साथ तन की भूख भी मिटाते हैं।


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