हिमाचल की उपजाऊ ज़मीन पर : गज़ल की फसल

By: Oct 10th, 2021 12:05 am

कविता एक सांस्कृतिक व सामाजिक प्रक्रिया है। इस अर्थ में कि कवि जाने-अनजाने, अपने हृदय में संचित, स्थिति, स्थान और समय की क्रिया-प्रतिक्रिया स्वरूप प्राप्त भाव-संवेदनाओं के साथ-साथ जीवन मूल्य भी प्रकट कर रहा होता है। और इस अर्थ में भी कि प्रतिभा व परंपरा के बोध से परिष्कृत भावों को अपनी सोच के धरातल से ऊपर उठाते हुए सर्वसामान्य की ज़मीन पर स्थापित कर रहा होता है। पाठक को अधिक मानवीय बनाते हुए और एक बेहतर समाज की अवधारणा देते हुए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए रचनात्मकता का विश्लेषण और मूल्यांकन जरूरी है। यथार्थ के समग्र रूपों का आकलन आधारभूत प्राथमिकता है। यदि यह आधार खिसक गया तो कवि कर्म पर प्रश्न उठेंगे।…हिमाचल प्रदेश में कविता व ग़ज़ल की सार्थक तथा प्रभावी परंपरा रही है। उसी को प्रत्यक्ष-परोक्ष, हर दृष्टि और हर कोण से खंगालने की चेष्टा यह संवाद है।… कुछ विचार बिंदुओं पर सम्मानित कवियों व समालोचकों की ज़िरह, कुम्हार का चाक/छीलते काटते/जो घड़ दे एक आकार। ‘हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में’ शीर्षक के अंतर्गत महत्त्वपूर्ण विचार आप पढ़ेंगे। जिन साहित्यकारों ने आग्रह का मान रखा, उनके प्रति आभार। रचनाकारों के रचना-संग्रहों की अनुपलब्धता हमारी सीमा हो सकती है। कुछ नाम यदि छूटे हों तो अन्यथा न लें। यह एक प्रयास है, जो पूर्ण व अंतिम कदापि नहीं है।

– अतिथि संपादक

द्विजेंद्र द्विज

मो.-9418465008

समकालीन ग़ज़ल ने भाषा की सहजता और सरलता इस हद तक प्राप्त कर ली है कि उर्दू और हिंदी में केवल लिपि के आधार पर ही अंतर किया जा सकता है। हिंदी कविता के आधुनिक भावबोध, उसकी लोकधर्मिता और उसके मुहावरे के साथ लिखी गई ग़ज़ल की पहचान हिंदी ग़ज़ल के रूप में मुखरित हुई है और इस लिहाज़ से प्रगतिशील शायरी और हिंदी ग़ज़ल में अधिक ़फर्क़ नहीं दिखाई देता। हिंदी ग़ज़ल के समकालीन स्वरूप में सामाजिकता, जनवाद, प्रगतिवाद, राष्ट्रवाद, प्रकृति प्रेम  तथा और भी न जाने क्या-क्या, एक साथ प्रतिबिंबित होता दिखता है। हिमाचल की ग़ज़ल की बात करें तो यहां ग़ज़ल की ज़मीन भी कभी कम उर्वरा नहीं रही। कई नाम हैं जिनके ख़ूबसूरत क़लाम की बदौलत हिमाचल में ग़ज़ल की शम्अ रौशन रही है। हिमाचल प्रदेश में ग़ज़ल के विकास का श्रेय ग़ज़ल की एक समृद्ध परंपरा को जाता है। इस आलेख में हिमाचल में ग़ज़ल के तमाम मौसमों का आकलन प्रस्तुत है, इसलिए हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं के ग़ज़लकारों/शायरों के योगदान को संकलित करने का प्रयास किया गया है। इस आलेख के प्रथम भाग में ग़ज़ल विधा में उनके योगदान का  जि़क्र है जो अब हमारे बीच नहीं हैं। लालचंद प्रार्थी ‘चांद’ कुल्लुवी साहिब का कलाम हिमाचल में रची गई शायरी  की धरोहर है  : ‘धूल की चादर लपेटे राह में बैठा हूं मैं/जाने क्यों दुनिया समझती है कि बेपर्दा हूं मैं’, ‘देखकर जिसको हुईं फूलों की आंखें अश्कबार/ऐ चमन वालो! वही ग़मनाक नज़्ज़ारा हूं मैं।’ उर्दू, हिंदी, पहाड़ी, पंजाबी और डोगरी भाषाओं में समान अधिकार से ग़ज़ल कहने वाले मनोहर शर्मा ‘साग़र’ पालमपुरी की ग़ज़लों में अपने ही परिवेश से अंजान, बेचेहरा तथा चिंतन के अभाव में दिशाहीन तथा उद्देश्यहीन जनमानस की चिंता झलकती है ः ‘अपने ही परिवेश से अंजान है/कितना बेसुध आज का इंसान है’, ‘ओढ़े हुए हैं बर्फ़ की चादर तो क्या हुआ/इन पर्वतों के पीछे कहीं रौशनी-सी है’, ‘मेरे मन की अयोध्या में न जाने कब हो दीवाली/झलकता है अभी तो राम का बनवास आंखों में।’ उर्दू क़लाम के अतिरिक्त हिंदी सुभाव की ग़ज़लों के लिए प्रसिद्ध डा. शबाब ललित चेताते हैं ः सपनों के बर्फ़ ख़ानों में दुबके पड़े हैं लोग/सूरज यथार्थों का इधर सर पे आ गया’, ‘रावण कोई हर ले गया फिर न्याय की सीता/लगता है कथा फिर वही दोहराएगा जंगलद्य।’

 तलअत इरफ़ानी के ऐसे शे’रों को कैसे भुलाया जा सकता है  : ‘अभी तो शिव के गले से वो विष नहीं उतरा/तुम्हें पड़ी है समुन्दर को फिर बिलोने की!’ सुरेश चंद्र ‘शौक़’ ने हिंदी-उर्दू की गंगा-जमुनी संस्कृति से संपन्न भाषा में जीवन की विविध अनुभूतियों की ग़ज़लें कही हैं। इस शायर की शायरी का जादू भी अलहदा है  : ‘अंधेरों को मुक़द्दर जानकर जो मुतमुइन हैं/ज़रा उन तीरा-जि़ह्नों को जि़याएं दीजिएगा’/ ‘अज़ारादार सूरज के नहीं हैं आप तनहा/सभी को सब के हिस्से की जि़याएं दीजिएगा!’ जि़या सिद्दीक़ी की ग़ज़लों में बेचेहरगी के दौर में आइनों को दरकिनार कर आत्म मुग्धता में जी रहे समाज की लक्ष्यहीनता का प्रतिबिंब झलकता है  : ‘न था इक आइना जब तक मैं सब था/फिर उसके बाद जो था बेसबब था’, ‘उदास आंखों में प्यासी खेतियां थीं/ख़याल आया समंदर का ग़ज़ब था!’ ‘हर खिड़की पे आ बैठा है सूरज/मगर घर आज तक सीला पड़ा है।’ प्रफुल्ल कुमार ‘परवेज़’ की अनुभव संपन्न दृष्टि पाठक के मन को छू लेती है। ग़ज़ल को बोलचाल की ज़ुबान में कहना और भाषा की जीवंतता को भी बचाए रखना, दो अलग-अलग मुश्किल काम हैं जिन्हें ‘परवेज़’ ने अपनी ग़ज़लों में बख़ूबी निभाया ः ‘हमसे हर मौसम सीधा टकराता है/संसद केवल फटा हुआ इक छाता है!’ ‘भूख अगर गूंगेपन तक ले जाए तो/आज़ादी का क्या मतलब रह जाता है।’ ‘शेष अवस्थी’ महत्वपूर्ण ग़ज़लकार हैं जिन्होंने ग़ज़ल को आम आदमी के भोग, अनुभूति और अभिव्यक्ति का माध्यम माना। उनके यहां आकर ग़ज़ल विश्व व्यापिनी, सार्वभौमिक हो जाती हैः ‘एक ही घटना निरंतर घट रही है/पेड़ की हर नर्म टहनी कट रही है!’ ‘चाहिए जिसको नहीं उसके लिए हर काम है/काम का हर आदमी इस दौर में नाकाम है।’ डा. प्रेम भारद्वाज जीवन के यथार्थ को समग्रता में प्रस्तुत करते हैं। कोरी बौद्धिकता व पांडित्य की जुगाली से बचते हुए अपने परिवेश की दुखती रग पर हाथ रखते हुए अपने अनुभवों को सार्थक अभिव्यक्ति देते हैं : ‘क्या अंगारे और क्या मौसम/ठीक नहीं जब मन का मौसम’, ‘मजबूरी की थाप पड़ी तो/हारी आदर्शों की सरगम।’

-(शेष भाग निचले कॉलम में)

अतिथि संपादक :चंद्ररेखा ढडवाल

मो. : 9418111108

हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में -5

विमर्श के बिंदु

  1. कविता के बीच हिमाचली संवेदना
  2. क्या सोशल मीडिया ने कवि को अनुभवहीन साबित किया
  3. भूमंडलीकरण से कहीं दूर पर्वत की ढलान पर कविता
  4. हिमाचली कविता में स्त्री
  5. कविता का उपभोग ज्यादा, साधना कम
  6. हिमाचल की कविता और कवि का राज्याश्रित होना
  7. कवि धैर्य का सोशल मीडिया द्वारा खंडित होना
  8. कवि के हिस्से का तूफान, कितना बाकी है
  9. हिमाचली कवयित्रियों का काल तथा स्त्री विमर्श
  10. प्रदेश में समकालीन सृजन की विधा में कविता
  11. कवि हृदय का हकीकत से संघर्ष
  12. अनुभव तथा ख्याति के बीच कविता का संसर्ग
  13. हिमाचली पाठ्यक्रम के कवि और कविता
  14. हिमाचली कविता का सांगोपांग वर्णन
  15. प्रदेश के साहित्यिक उत्थान में कविता संबोधन
  16. हिमाचली साहित्य में भाषाई प्रयोग (काव्य भाषा के प्रयोग)
  17. गीत कविताओं में बहती पर्वतीय आजादी

अभी बढ़ रहा है गज़ल को सींचने वालों का कारवां

-ऊपरी कॉलम का शेष भाग…

हिमाचल में ग़ज़ल के पुरोधा प्रो. परमानंद शर्मा ‘शरर’ साहिब के सदाबहार कलाम की बानगी इन दो शे’रों में देखी जा सकती है ः ‘यह पत्थरों का शहर है, पत्थर के लोग हैं/इस घर में आके बस गए किस घर के लोग हैं’, ‘काली रातों में जिनके रहे मुन्तज़र/किस तरफ़ सुबह के वो उजाले गए।’ यशस्वी शायर कृष्ण कुमार ‘तूर’ साहिब स्तब्ध कर देने वाली ख़ूबसूरती से जि़ंदगी के तमाम रंगों को अपने शे’रों में ढालते हैं : ‘तेरे बन्दों से इस जहां का सुलूक/मेरे परवरदिगार! देखे बना। ‘अभी वाकि़फ़  नहीं रस्म-ए-जहां से/मेरे बच्चे अभी हंसते बहुत हैं’, ‘इसी इक बात पे हूं ‘तूर’ जि़न्दा/मेरे अन्दर के दरवाज़े बहुत हैं।’ ज़ाहिद अबरोल साहिब की लाजवाब अभिव्यक्ति : ‘तुमने तो भर लिए कान अपनी ही आवाज़ों से/मेरी आवाज़ को अब कौन सुनेगा यारो!’ डा. मधुभूषण शर्मा ‘मधुर’ की ग़ज़लों का माधुर्य स्वार्थी शक्तियों के हाथों निरंतर त्रस्त जनमानस के मनोविज्ञान की काव्यात्मक प्रस्तुति मंे है :  ‘गली-गली सड़क-सड़क पे लाश  है घिसट रही/है  मांगता  बदन क़फ़न, क़फ़न पे भी बवाल है’, ‘बारहा बन  कर  बिखर  सकता हूं मैं/क्या करूं यूं ही  संवर  सकता हूं मैं।’ पवनेन्द्र ‘पवन’ पहाड़ी परिवेश की पीड़ा व चिंता को अद्वितीय प्रतीकों के साथ अपने धारदार शे’रों में ढालते हैं :  ‘दहकते जंगलों के बीच इसको देख लगता है/चिता पे जल रही जैसे ‘पवन’ हो लाश पर्वत की’, ‘इनको बौना रखने कोई साजि़श लगती है हमको/इनके भार से भी ज़्यादा जो भार है इनके बस्ते में।’ ग़ज़ल को ‘पारम्परिक कविता  से  चार क़दम आगे चल रही कविता का कविता-कथन’ मानने वाले और शे’र कहने की नैसर्गिक प्रतिभा  से सम्पन्न कवि एवं  ग़ज़लकार डा. विनोद प्रकाश गुप्ता ‘शलभ’ आधुनिक भावबोध की ग़ज़लें कहते हैं ः ‘लबों पर प्यार का भीगा हुआ नग़मा नहीं सूखे/तुम्हारी आंख में जीवित कोई कोई सपना नहीं सूखे’, ‘तू बादल है तो रखना याद तेरी जि़म्मेदारी है/तेरे होते हुए आंचल ये धरती का नहीं सूखे।’

हिमाचल की कविता और ग़ज़ल का एक ऊर्जावान व संस्कारवान स्वर नवनीत शर्मा हिंदी-उर्दू दोनों भाषाओं को स्वीकार्य है। नवनीत के ये शे’र गौरतलब हैं ः ‘केंचुओं सी रेंगने की पड़ गई आदत/बात भी अब सर उठा कर कौन करता है’, ‘झील में सोने का सिक्का गिर जाता है/और पहाड़ों का पारा गिरा जाता है’, ‘ये एक रीढ़ हमें रोकती है झुकने से/ये एक झुकता हुआ सर उदास करता है।’ आशा शैली के शे’रों की एक अलग पहचान है :  ‘नदी हूं हर तरफ बहने की राह रखती हूं/कोई हो रास्ता उस पर निगाह रखती हूं’, ‘हैं मेरे सीने में भी ग़म के कोहसार बहुत/मैं उनमें नर्गिसी फूलों की चाह रखती हूं।’  नलिनी विभा ‘नाज़ली’ के शे’र मंत्र मुग्ध करते हैंः ‘यहां होना नहीं होना कोई मा’नी नहीं रखता/समझना है इसे तो ग़ौर से इक बुलबुला देखें’, ‘क्यों न फिर असर उनकी हर ग़ज़ल में आ जाए/शे’र के समुंदर में जिनको डूब जाना है।’ प्रो. चंद्ररेखा ढडवाल के शे’र विशिष्ट कहन के लिए जाने जाते हैं :  ‘फ़ाख्ता उम्र भर घर बना न सकी/और दावा हवा का वो क़ातिल नहीं’, ‘ताल, सरोवर, पनघट, तेरे/अपनी केवल प्यास रे जोगी।’ निर्मला कपिला की ग़ज़लों का अलग अंदाज़ है  : ‘आस्था में आदमी क्या-क्या नहीं करता है देखो/पूजने के वास्ते पत्थर शिवालों में रखा है।’ राजीव भरोल ‘राज’ शे’रों में अपने सशक्त कथ्य का जादू जगाते ऐसे जगाते हैं : ‘मैं कैसे मान लूं बादल यहां भी बरसा है/यहां तो सब मुझे प्यासे दिखाई देते हैं’, ‘ज़मीर की सभी बातें जो मानने लगते/हमारे हाथ से मौका निकल भी सकता था।’ सतपाल ‘ख़याल’ का अंदाज़ उन्हें बहुत से अन्य ग़ज़लकारों से अलग करता है : ‘फर्ज़ पूरा किया चरागों ने/जब उजाला हुआ तो दम तोड़ा’, ‘जिस्म था वर्दी किसी किरदार की/गिर गया पर्दा तो वर्दी छोड़ दी।’ नासिर यूसु़फज़ई की शायरी भी मोहक है  : ‘सारी दुनिया के दर्द पी लें हम/आओ सुकरात हो के जी लें हम!’

नकुल गौतम के  शे’रों की दृश्यावली भी देखते ही बनती है : ‘मेज़ के नीचे फटे क़ाग़ज़ पड़े हैं/लफ़्ज़ मेरे रात भर मुझसे लड़े हैं।’ ‘शायद क़लम में फि़ट है कहीं कैमरा कोई/ऐसे उतारता है वो मंज़र लपेट कर।’ कमल नयन शर्मा ‘कमल’ के यहां संबंधों के समीकरण समूचे परिवेश के विद्रूप की बात करते हैं : ‘शहर में रिश्तों के अब के हो रहा दंगा बहुत/द्वंद्व कपड़ों में भी हो कर दिख रहा नंगा बहुत।’ नवीन कमल भारती जीवन-मृत्यु को ऐसे व्यक्त करते हैं : ‘यही है जि़ंदगी और मौत दोनों की ही परिभाषा/कलश भी मैं उठाउंगा मेरी ही अस्थियां होंगी’, ‘सियासत को तो मंदिर और मस्जिद मिल गए लेकिन/हमारी भूख हिंदू और मुस्लिम हो नहीं सकती।’ सुमित राज वशिष्ठ के शे’र भी आकर्षित करते हैं : ‘रोज़ उठता है धुआं घर के किसी कोने से/रोज़ तस्वीर मेरे घर की बदल जाती है।’ कुलदीप ‘तरुण’ गर्ग कूपमंडूकों से कहते हैं : ‘कुएं को ही तू समुन्दर समझ के बैठा है/दयार और भी हैं इस दयार से बाहर।’ प्रताप जरयाल की ग़ज़ल के ये शे’र प्रार्थना जैसे हैं : ‘सही राहों को चुनने का हुनर देना मेरे दाता/मुझे इन्सानियत से तर नज़र देना मेरे दाता’, ‘बहारों से कोई महरूम रह जाए न दुनिया में/सभी की जि़ंदगी में रंग भर देना मेरे दाता।’ नवीन चन्द्र शर्मा विस्मित की ग़ज़लें भी आकर्षित करती हैं : ‘शरीफ़ों के मुहल्ले में शराफ़त से चला जब मैं/शरीफ़ों की शराफ़त ने शराफ़त छीन ली मेरी।’ नरेश पाल ‘निसार’ भी अपने ख़ूबसूरत शे’रों के लिए जाने जाते हैं। ‘सारी रंगत उड़ गई चेहरा भी काला पड़ गया/वक्त से लगता है अब उसको भी पाला पड़ गया।’ विजय धीमान के शे’र भी अलग होते हैं ः ‘हमको ओढ़े और बिछाए/ताक पे फिर वो धरता जाए।’ ‘इस मेले में भीड़ बड़ी है/आओ ख़ुद को ढूंढा जाए।’ सुभाष साहिल का शे’र देखिए : ‘जो नंगे पांव भूखे पेट मीलों चल के आए हैं/कोई पूछे उन्हें दिखता वहां से था ख़ुदा कैसा।’ प्रकाश बादल संवेदना व संभावना संपन्न ग़ज़लकार हैं। उनकी ये शे’र जैसी पंक्तियां ग़ज़ल के कथ्य से कहीं भी अलग नहीं हैं ः ‘कटे हुए सर लिए घूमती हैं/हवाएं ख़ंजर लिए घूमती हैं।’ इसके अतिरिक्त ग़ज़ल का कारवां  निरंतर  बढ़ रहा है। डा. कंवर करतार, साध्वी सैनी, जगदीश बाली, राजीव पथरिया, विनोद बेनूर, अनंत आलोक, अर्जुन देव कनौजिया, सुरेश भारद्वाज निराश, शक्ति चंद राणा, मोनिका शर्मा सारथी, मुनीष तन्हा, अतुल अंशुमाली, जीवन बिलासपुरी, अंशुल कुठियाला व नरेश देयोग जैसे रचनाकार भी ग़ज़ल-पथ के उल्लेखनीय यात्री हैं।

-द्विजेंद्र द्विज

संस्मरण : जन से बनता तंत्र

बल्लभ डोभाल

मो.-8826908116

 एक लंबे अंतराल के बाद जब गांव जाना हुआ तो लगा कि अब पहले जैसा अपना गांव नहीं रह गया है। तब जाते ही गांव के लोग मिलने-मिलाने दौड़ आते। खुशी से सबकी आंखें नम हो जाती। अब वे लोग कहां चले गए। ज्यादातर घरों को खाली पड़ा देख मन उदास हो गया। शुक्र है कि अपने बचपन का साथी रतनी कहीं गया नहीं। रतनी चौथी कक्षा तक मेरे साथ पढ़ता रहा। पढ़ाई मे तेज, लेकिन हालात कुछ ऐसे बने कि पढ़ाई छोड़ खेती के काम में जुट जाना पड़ा। यही बात उसके भीतर कुंठा बन रह गई। मेरे आने की खबर पाते ही वह सामने आ खड़ा हो गया। वह अधेड़ उम्र वाला रतनी…मुझसे लिपट गले मिला और फिर देर तक हम पुरानी यादों में खोए रह गए। हाल-समाचार जानने के बाद वह बोला, ‘इतनी देर बाद आए हो तो कुछ लाए भी हो?’ कुछ लाने की बात मैं नहीं समझा तो उसने समझाया कि अब देश-विदेशों से जो इन पहाड़ों पर आते हैं, वे कुछ न कुछ लेकर ही आते हैं, तुमने सुना नहीं कि- ‘सूरज अस्त पहाड़ मस्त।’ ‘लेकिन यह तो ड्राई एरिया घोषित है।’ मैंने कहा। बोला, ‘घोषणाएं तो होती रहती हैं, तू कुछ लाया नहीं तो निकालो पैसा…पैसा हो तो ड्राई को जहां तक चाहो सींचा जा सकता है।’ रतनी के साथ बैठने का मन हुआ तो मैंने पैसे निकाल कर दे दिए, शाम हुई तो वह मस्ती का सामान जुटा लाया।

गांव में तीन आदमी जो रह गए थे, उन्हें भी बुला लिया और मस्ती के साथ बातों का सिलसिला शुरू हो गया। सभी का मानना था कि इस समय पहाड़ ही नहीं, समूचा देश मस्ती में डूबा मिलेगा…और जो नहीं डूब सके वे अगले पांच-सात वर्षों में डूब जाएंगे। थोड़ी देर बाद रतनी जब झांझ में आ गया तो बोला, ‘अब गांव खाली कर लोग शहरों की ओर निकल गए हैं। सुनते हैं कि अब शहरों से भी लड़के-लड़कियां बाहर जाने की फिराक में रहने लगे हैं। आखिर अपने यहां ऐसा क्या नहीं जिसके लिए अपना घर-द्वार छोड़ना पड़ रहा है।’ रतनी के लहजे में तीखापन महसूस होने लगा। लगा कि गांव का आदमी भी अब सीधा-सरल न रहकर काफी आगे बढ़ चुका है। शहर की आबोहवा ने भी गांव को अपनी चपेट में ले लिया है। सूचना-प्रसारण तंत्र ने जैसे गांव की दिशा ही बदल दी है। अब वह दिन दूर नहीं जब मीडिया के टीवी चैनल ही सबकी दिनचर्या में तय करेंगे कि आपको क्या करना है और क्या नहीं। उन्हीं दिनों ओबामा को अमरीका का राष्ट्रपति चुना गया तो मीडिया तंत्र पर कई दिनों तक ओबामा का बुखार चढ़ा रहा। बच्चों-बूढ़ों सभी की जुबान पर ओबामा बैठ गया। ओबामा के बारे में रतनी क्या जानता है, सोचकर मैंने पूछा, ‘तू ओबामा को जानता है क्या?’ ‘कौन ओबामा?’ ‘अरे इतने बड़े देश…अमरीका का राष्ट्रपति ओबामा।’ ‘मैं नहीं जानता।’ उत्तर मिला। समझ गया, रतनी जानता सब है, लेकिन अभी कुछ कहने के मूड में नहीं। ‘चल ओबामा न सही, अपने देश के राष्ट्रपति को तो जानता होगा।’

मैंने पूछा। ‘नहीं जानता।’ वह बोला। ‘प्रधानमंत्री को?’ पूछा तो बोला, ‘मैं किसी मंत्री वंत्री को नहीं जानता।’ ‘फिर तू जानता क्या है?’ जोर देकर मैंने पूछा तो रतनी ने झटके से गर्दन झुका ली। थोड़ी देर सोचकर बोला, ‘अच्छा तो पहले ये बता कि वे मुझे जानते हैं?’ मुझे हंसी आ गई। मैंने कहा, ‘तेरे पास ऐसा क्या है कि वे तुझे जानने लगें?’ बोला, ‘वे मुझे नहीं जानते तो मुझे पागल कुत्ते ने काटा है कि मैं उन्हें जानने लगूं।’ मैंने उसे समझाया कि वे देश के नेता हैं, वे ही देश को चला रहे हैं, इसलिए हर देशवासी का कर्त्तव्य है कि अपने नेताओं के बारे में जानकारी रखें। बोला, ‘वे देश को चला रहे होंगे तो मैं क्या बेकार बैठा हूं? मैं भी हल चला रहा हूं…और तुझे बता दूं कि देश नेताओं से नहीं, हल से चलते हैं।…मेरी मुश्किलें किसी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री को जानने से नहीं, हल चलाने से ही हल होंगी। …मैं पूछता हूं तेरे नेताओं को हल चलाना आता है क्या?’ कहते हुए उसने अपना खाली गिलास मेरे आगे सरका दिया। तब लगा कि अब रतनी नहीं बोल रहा है, यह सच्चाई बोतल से फूट रही है। मैंने उसके गिलास में तीसरा पैग डाला तो उसे फुर्ती से हलक में उतार उसने बोलना शुरू किया। ‘तुम लोग गांव छोड़कर चले तो गए, पर शहरों में तुम्हारी औकात क्या है, सब जानता हूं। यहां कुत्ते, बिल्ले भी खुलेआम स्वतंत्र घूम-फिर लेते हैं, जो तुम्हारे नसीब में नहीं है।…पिछले वर्ष बेटा आया था, दिल्ली दिखाने ले गया। भेड़-बकरों जैसी भीड़ भरी दिल्ली, बाहर से आने वालों का स्वागत भी खूब करती है, जगह-जगह स्वागती बोर्ड लगे हैं, ऐसा स्वागत कि पहले ही दिन मेरी जेब कट गई। मुझे दिल्ली दिखाने का मतलब था कि हम भी गांव छोड़ उसके साथ दिल्ली में रहें। रह सकते थे, लेकिन सातवीं मंजिल पर उसके घर को देख अपनी तो जान सकते में आ गई। ऊंची डाल पर बना घोंसले जैसा घर।’ ‘तू ने उसे घोंसला कहा?’ ‘हां, घोंसला तो फिर भी खुला होता है, वह बंद घोंसला कहा तो बेटे को अच्छा न लगा।

 बोला, ‘मैंने इसे तीस लाख में लिया है और आप घोंसला कह रहे हैं।’ मैं बोला, ‘तू ने पचास लाख में लिया हो, है तो घोंसला ही, बता इसमें हिलने-डुलने की जगह कहां है। याद कर…जब बचपन में घर के आसपास फैले खेतों में दूर तक तेरी कूद फांद रहा करती थी, यहां तेरे बच्चे घर के अंदर चूजों की तरह दुबके पड़े रहते हैं, पास-पड़ोस में तुम्हें जानने-सुनने वाला कोई नहीं। यह कैसी जिंदगी तुम लोग जी रहे हो।’ रतनी की बातें सटीक मानकर मैंने कहा, ‘तेरा कहना सही है, पर उसकी भी अपनी सोच है। वह अपने घोंसले में मस्त है और तुम अपने इस ऊजड़ गांव में खुश हो, फिर परेशानी की क्या बात है?’ बोला, ‘परेशानी की कोई बात नहीं, पर सवाल यह है कि अपना होकर अपनों से दूरी क्यों?…हमारे समय में ऐसा तो कुछ नहीं था कि अपनों का मुख देखने के लिए भी आदमी तरसता रहे। ’ मन ही मन सोचा, ऐसे कई सवाल रतनी के पास होंगे। वह अकेला नहीं, लाखों-करोड़ों की संख्या में लोग होंगे जो रतनी की तरह सवाली बने हैं और जिनके सवालों का उत्तर किसी के पास नहीं। मेरे पास भी कोई उत्तर नहीं रहा तो मैंने भी जनतांत्रिक सरकारी नीति से काम लिया, आखिरी पैग उसके गिलास में उंडेला और अपना ट्रांजिस्टर खोल उसके आगे रख दिया। प्रसारण में तब विज्ञापनों का दौर चल रहा था। सूचना के साथ विज्ञापन। सोने में सुहागे की तरह…जन गण मन को जिन ऊंचाइयों तक ले जाते हैं, लगा कि रतनी भी वहीं कहीं पहुंच गया है।

पुस्तक समीक्षा : भोपाल की पत्रिका का डा. नलिनी को सलाम

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका रिसाला-ए-इंसानियत ने हिमाचल प्रदेश की नामी-गिरामी गजलगो डा. नलिनी विभा ‘नाजली’ पर विशेषांक प्रकाशित किया है। यह प्रदेश व डा. नाजली के लिए फख्र की बात है। वह वर्षों नहीं, दशकों से साहित्य में जुटी-डटी हैं। कई मील के पत्थर भी स्थापित किए हैं। देश की मकबूल पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं निरंतर प्रकाशित होती रहती हैं। प्रदेश में हिंदी गजलों के शायर ज्यादा नहीं हैं। डा. नाजली की गजलें ज्यादातर छोटी वहर की व चुस्त-दुरुस्त होती हैं, जो सीधे मन को प्रभावित करती हैं। हिंदी गजलों की प्रकृति के अनुसार उन्होंने अपने को बखूबी ढाला है। इससे प्रदेश के युवा गजलगो को प्रोत्साहन मिल सकता है। विशेषांक में चार दर्जन के करीब नामचीन हस्तियों ने डा. नाजली पर अपने ख्यालात का इजहार किया है। दूर भोपाल की पत्रिका ने उन पर विशेषांक प्रकाशित कर उनको तवज्जो-तरजीह दी है, तो उनके इल्म व सलाहियत से मुतासिर यकीनी तौर पर हुई होगी। डा. नाजली ने बचपन में ही अपने दादा से उर्दू का ककहरा सीख लिया था। उनके दादा संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। पिता चांद धर्माणी जीएम जैसे उच्च पद पर रहे, साथ ही वह भी लेखक थे। इसके अलावा संगीत प्रेमी, छायाकार व अन्य विधाओं के माहिर थे। मां शीला धर्माणी अपने समय की एमए पढ़ी थी। ऐसे में उनके व्यक्तित्व-कृतित्व के पीछे उनकी पृष्ठभूमि भी मायने रखती है। प्रदेश के नामी शायर डा. शबाब ललित उनकी गजलों से काफी मुतासिर हुए।

 उनकी रचनाओं से इतने मुतमुइन हुए कि उनको नया तखल्लुस (उपनाम) ‘नाजली’ दिया। पत्रिका के संपादक ने डा. नलिनी को पाकिस्तान की मशहूर गजल गायिका परवीन शाकिर के समकक्ष खड़ा करने की कोशिश की है। पत्रिका ने डा. नलिनी की दार्शनिकता, धीर-गंभीर मिजाज व हरफनमौला शख्सियत को नए अंदाज में पेश किया है। उनके शब्दों की खूबसूरत बानगी देखिए- ‘काश! मेरी गजल का हर मिसरा, मेरे दिल की जबान हो जाए।’ उनका एक गंभीर अंदाज देखें- ‘जब्त इतना ‘नाजली’ तूने किया, दम सुलगता है, भड़कता क्यों नहीं।’ डा. नलिनी की तालीम अंग्रेजी स्कूलों में हुई। बीए व एमए संगीत जालंधर से किया। रोहतक में 1976 में संगीत पढ़ाना शुरू किया। 1980 से 2012 तक हमीरपुर कालेज में ज्ञान बांटा। डा. नलिनी की जीवन यात्रा में यह विशेषांक अच्छा मुकाम कहा जा सकता है। वह हमीरपुर के पास भोटा में रहती हैं। उन्हें एक नहीं, अनेक पुरस्कार मिले हैं। पत्रिका के दो पृष्ठ इन्हीं छायाचित्रों से सुसज्जित हैं।

-बलराज सकलानी


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