क्रांतिकारी थे कलम के सिपाही यशपाल

उनकी कहानी ‘पिंजरे की उड़ान’ 1939 में हिंदी साहित्य में चर्चित हुई। इसके पश्चात वे लखनऊ चले गए, लेकिन वहां से वापस आना पड़ा। उन्होंने पत्रिका भी निकाली…

जाने-माने साहित्यकार व क्रांतिकारी यशपाल का हिंदी साहित्य में विशिष्ट स्थान है। बचपन की यातनाएं, भूमिगत विद्रोही भावना तथा सात वर्ष की लंबी जेल ने उन्हें तत्कालीन सामाजिक व आर्थिक ढांचे के विरुद्ध कर दिया। वे इस ध्येय को नहीं मानते थे कि कमजोर वर्गों के लोगों को भाग्य पर बैठ जाना चाहिए। वे जीवन में काफी शौकीन थे। अपने आपको ऐसे संवारते थे जैसे कोई बहुत बड़ा अवसर हो। अपने आपको वैसे सबके बराबर समझते थे और अपने लेखों व रचनाओं द्वारा लोगों को असमानता से संघर्ष की प्रेरणा देते थे। 3 दिसंबर सन् 1903 को हमीरपुर जिले के भूंपल गांव में साधारण परिवार में यशपाल जी का जन्म हुआ। दुर्भाग्यवश उनकी छोटी आयु में ही पिता जी का साया उठ गया। माता जी जीवन निर्वाह हेतु एक अध्यापिका के रूप में सेवारत हुई। बचपन लायलपुर व लाहौर में बीता, जहां उनकी माता अध्यापिका थी। यशपाल व उनके भाई ने प्रारंभिक शिक्षा आर्य समाज व गुरुकुल कांगड़ी में प्राप्त की। माता जी की यह प्रबल इच्छा थी कि यशपाल एक दिन स्वामी दयानंद के विचारों का प्रचारक बने। यशपाल जी ने सात वर्ष तक यहां अध्ययन कर, देश भक्ति व समाज सेवा की शिक्षा प्राप्त की। सख्त अनुशासन व शारीरिक अस्वस्थता ने यशपाल जी को गुरुकुल छोड़ने पर मजबूर कर दिया। वे फिरोजपुर गए जहां उनकी माता अध्यापन में कार्यरत थी। तत्पश्चात वे दयानंद वैदिक स्कूल लाहौर में शिक्षा प्राप्त करने गए। यहां उन्होंने उर्दू सीखी। तब उर्दू पत्रिकाओं की भरमार थी। परिवार की परिस्थितियों ने व निर्धनता की ठोकरों ने यशपाल पर एक गहरी छाप डाली। माता जी का प्रातः दो बच्चों का भोजन बनाना और सात बजे स्कूल जाना, शाम को जब स्कूल से थके-मांदे वापस आना तो बच्चों के कपड़े धोना और घरेलू सफाई करना इत्यादि से यशपाल काफी प्रभावित हुए। वे माता जी की पूरी सहायता करने के लिए गांव के कुएं से पानी लाते थे। बाजार से वस्तुएं खरीद कर लाते। यशपाल जी आर्य समाज मंदिरों में जाते। वहां वेद पढ़ते और कभी-कभी व्याख्यान देते। हरिजनों की अवस्था देखकर वे बहुत पश्चाताप करते। इसी कारण रात को उन्होंने पढ़ाने का कार्य आरंभ किया। बाद में वे 8 रुपए प्रति मास वेतन पर अध्यापक नियुक्त हुए। माता जी ने यशपाल जी को कांग्रेस के आंदोलन से जुड़ने की अनुमति दे दी। तब महात्मा गांधी के निर्देशन से ब्रिटिश स्कूलों व न्यायालयों का बहिष्कार हुआ था। नेशनल कालेज में प्रवेश के लिए यशपाल के साथ छात्रावास में शहीद भगत सिंह के साथी सुखदेव थे। वे सभी जानते थे कि यशपाल साहित्य में रुचि रखते हैं।

 भगत सिंह ने भी साहित्यकार यशपाल को लेखन में सहयोग देना प्रारंभ किया। पहले कुछ नाटक, फिर उर्दू व हिंदी में अन्य रचनाएं लिखना प्रारंभ किया। यशपाल की प्रथम रचना ‘एक कहानी’ गुरुकुल कांगड़ी की पत्रिका में प्रकाशित हुई। लाहौर में इनके हिंदी के गुरु उदयशंकर भट्ट ने उनका उत्साह बढ़ाया और कुछ कहानियां हिंदी पत्रिकाओं में विशेष करके गणेश शंकर विद्यार्थी के ‘प्रताप’ में प्रकाशित करवाई। यशपाल ने एक दिन भगत सिंह के साथ रावी नदी में एक नाव में बैठकर देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति देने का प्रण किया। महात्मा गांधी जी के चोरा-चोरी के घटना के परिणामस्वरूप असहयोग आंदोलन के पश्चात देश के कुछ नवयुवकों को यह अहसास हुआ कि देश की स्वतंत्रता बिना शक्ति प्रयोग नहीं मिलेगी। इन्हीं विचारों से हिंदुस्तान सोशलिस्ट पार्टी का जन्म हुआ और सुखदेव, यशपाल, भगत सिंह ने इसकी नींव रखी। जब भगत सिंह जेल में थे तो उन्होंने यशपाल को संदेश भेजा कि वे लिखना जारी रखें और पढ़ाई-लिखाई, लेख व रचनाओं से स्वतंत्रता प्राप्ति के उद्देश्य को जन-जन तक पहुंचाने का कार्य करें। यशपाल ने भूमिगत होकर लुइस द्वारा लिखित ‘लेटिन व गांधी’ नामक पुस्तक का हिंदी में अनुवाद किया। लाहौर षड्यंत्र मामले में चंद्रशेखर के बलिदान के पश्चात ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी’ के अध्यक्ष बने। यशपाल को 1931 में इलाहाबाद में हिरासत में ले लिया गया और 14 वर्ष की सजा हुई। इसी जेल में उन्होंने बंगाली, फ्रांसीसी व रूसी भाषाएं सीखी और इनमें दक्षता प्राप्त की। 1935 में लाहौर के एक अमीर परिवार की युवती कुमारी प्रकाशवती कपूर से जेल में ही उन्होंने विवाह किया। जेल विभाग ने विवाह के लिए भी यशपाल को नहीं छोड़ा और जेल में ही विवाह संपन्न हुआ। सभी कैदियों को मिठाइयां बांटी गई। इस घटना से ब्रिटिश सरकार उत्तेजित हो गई और उन्होंने भविष्य में जेल में विवाह न हो सके, ऐसे जेल नियम बना दिए। यशपाल ने चित्रकला के लिए कुछ सामग्री मांगी तो जेल अधिकारियों को लगा कि यशपाल जेल का नक्शा बनाएगा और बाहर भेज देगा।

 इस भय के कारण जेल विभाग ने सामग्री देने से इंकार कर दिया। बाद में चित्रकारी की सामग्री दी गई। सन् 1938 में जब रियासतों में कहीं कांग्रेस सरकारें बनी, तभी लाल बहादुर जी के कारण जेल से बाहर आए। कुछ समय के लिए स्वास्थ्य लाभ हेतु वे मनाली चले गए। वहां पर उन सभी कहानियों को पूर्ण किया जो उन्होंने जेल में लिखनी आरंभ की थी। उनकी कहानी ‘पिंजरे की उड़ान’ 1939 में हिंदी साहित्य में चर्चित हुई। इसके पश्चात वे लखनऊ चले गए, लेकिन वहां से वापस आना पड़ा। उन्होंने पत्रिका भी निकाली जिसकी सफलता में प्रकाशवती ने विशेष योगदान किया। 72 पृष्ठों वाली पत्रिका उनकी अपनी रचनाओं से भरी होती थी। इनकी लेखन गति काफी तीव्र थी। उनकी पत्रिका ‘विप्लव’ मार्क्सवादी व आंदोलनात्मक सिद्धांतों को लेकर आगे बढ़ी जिसे शासन ने चलने नहीं दिया। परिणामस्वरूप यशपाल को हिरासत में ले लिया गया और पत्रिका बंद हो गई। इनकी रचनाएं, कहानियां, उपन्यासों के प्रकाशन का प्रकाशवती ने बीड़ा उठाया। उसने छापने की मशीन खरीदी और सारी रचनाएं प्रकाशित कर दी। पत्रिका को स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात फिर चालू किया गया, परंतु कुछ वर्षों के बाद फिर इसे बंद करना पड़ा। ‘गांधी की शव परीक्षा’ भी उन्होंने लिखी। यशपाल जी सामाजिक समस्याओं, बुराइयों व समकालीन विषयों पर अपने विचार स्पष्ट रूप से सबके सम्मुख रखने में कभी हिचकिचाते नहीं थे। कथाकार, निबंधकार, उपन्यासकार के रूप में यशपाल की हिंदी साहित्य को बहुत देन है। उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं दादा कामरेड व देशद्रोही। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी दिया गया। 26 दिसंबर, 1976 को उनका निधन हो गया और साहित्य जगत एक महत्त्वपूर्ण लेखक से वंचित हो गया।

डा. ओपी शर्मा

लेखक शिमला से हैं


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